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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

Tolstoy and his wife (in Hindi)

लेव निकोलाएविच टॉल्स्टॉय – पत्नी के आईने में *

-आकेल्ला चारुमति रामदास

उनका नाम था सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना बेर्स. मॉस्को के राजप्रासाद में काम करने वाले डॉक्टर बेर्स की तीन लड़कियों में बीच की थी सोफ़िया. उसकी माँ, ल्यूबोच्का बेर्स को, कुल तेरह संतानें हुईं, मगर उनमें से सिर्फ आठ ही जीवित रहीं – 3 लड़कियाँ और 5 लड़के. बड़ी – लीज़ा, बीच वाली – सोफ़िया (सोन्या) और सबसे छोटी – तात्याना.
सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना हर मामले में (याने रूप-रंग में, बुद्धिमत्ता में) साधारण ही थी. बड़ी – अत्यंत गंभीर स्वभाव की; छोटी – एकदम शरारती. अनेक वर्षों बाद तात्याना ने सोफ़िया के बारे में लिखा था : “सोन्या तन्दुरुस्त थी – लाल-लाल गाल, काली-भूरी आँखें, काली चोटी. स्वभाव से खूब बोलने वाली थी, थोड़ी सी भावुक भी थी, फ़ौरन उदास हो जाती. सोन्या कभी भी दिल खोलकर नहीं हँसी, और न ही ख़ुश हुई; शादी के आरंभिक वर्षों में उसके हिस्से में आए सुख को भी वह पूरी तरह भोग न सकी. जैसे कि सुख में और प्रसन्नता में उसका विश्वास ही नहीं था, उसे हमेशा यही लगता रहता कि अभी कुछ हो जाएगा और उसका सुख छिन जाएगा.”
इन तीनों बहनों की दुनिया में कुछ उलझे स्वभाव के लेव निकोलायेविच टॉल्स्टॉय ने प्रवेश किया सन् 1856 में. लीज़ा की आयु उस समय 13 वर्ष की थी, सोन्या – 12 की और तान्या थी – 10 वर्ष की. ख़ुद लेव निकोलायेविच उस समय कैसे थे? नवम्बर 1855 में सेवास्तोपोल के युद्ध में भाग लेकर वे पीटर्सबुर्ग लौटे थे. बदसूरत चेहरा, चौड़ी नाक, मोटे-मोटे होंठ, कंजी, चमकदार, बोलती हुई आँखें जो करुणा से ओतप्रोत थीं. साफ़-साफ़ कहें तो वे एक सहृदय, सीधे-सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, मगर मन के भीतर अनेक गाँठें थीं. हर बात का विरोध करना उनके स्वभाव की विशेषता थी. अनेक विद्वानों से उनकी ज़ोरदार लड़ाई हुई थी – सिर्फ इसलिए कि उनकी बात का विरोध करें – बाद में भले ही वे उनके विचारों से सहमत हो जाते.
उन दिनों वे पीटर्सबुर्ग में बड़े मनमौजी ढंग से रहते थे. उच्च-भ्रू समाज से कुछ भी छिपाते नहीं थे; बल्कि जीने के इस तरीक़े की बढ़-चढ़कर तारीफ़ भी किया करते, पर मन के भीतर आत्म-निरीक्षण की, पश्चात्ताप की, स्वयँपरिपूर्णता की और विशुद्ध कला की खोज की प्रक्रिया चल रही थी.
ऐसा, कुछ सनकी स्वभाव का यह व्यक्ति प्रेम भी करता है तो किस तरह!
सन् 1856 में, गर्मियों में, डॉक्टर बेर्स के घर के सामने एक घोड़ा-गाड़ी रुकी. गाड़ी से उतरे लड़कियों के कोस्त्या मामा, सामंत मेनग्देन और ऑफ़िसर काउन्ट लेव टॉल्स्टॉय. दोपहर का भोजन कब का समाप्त हो चुका था, कामवाली चर्च जा चुकी थी, और मेहमान तो भूखे थे! डॉक्टर बेर्स की होशियार लड़कियों ने दौड़-धूप करके मेहमानों को भोजन परोसा; आज तक जो कभी किया नहीं था, वह काम करने में उन्हें कितना मज़ा आ रहा था!
उस शाम को मॉस्को लौटने पर टॉल्स्टॉय ने अपनी डायरी में लिखा, “कोस्त्या के साथ आज दोपहर का खाना ल्यूबोच्का बेर्स के यहाँ खाया. लड़कियों ने ही भोजन की व्यवस्था की; बड़ी प्यारी और ख़ुशमिजाज़ हैं लड़कियाँ.” 1
अगले कुछ वर्षों में लेव निकोलायेविच डॉक्टर बेर्स के यहाँ मुश्किल से ही एकाध बार गए.
मगर सन् 1861 में विदेश की दूसरी यात्रा समाप्त करके वे रूस वापस लौटे. व्यस्तता के बावजूद वे अपने गाँव से मॉस्को भागते. ऐसे में एक बार डॉ. बेर्स के यहाँ आने पर लड़कियों को देखकर वे चकित रह गए. तीनों लड़कियाँ बड़ी हो गईं थीं. दोनों बड़ी लड़कियाँ तो बेहद ख़ूबसूरत लग रही थीं. उनकी स्कूली पढ़ाई भी पूरी हो चुकी थी. लेव निकोलायेविच अक्सर उनके यहाँ आने लगे. बेर्स दंपत्ति सोच रहे थे कि वे बड़ी, लीज़ा, के सामने ही विवाह का प्रस्ताव रखेंगे. मगर, हमेशा की तरह टॉल्स्टोय यह निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें कौन पसन्द है – लीज़ा या सोन्या. उन्होंने 6 मई 1861 को अपनी डायरी में लिखा, “बेर्स के यहाँ दिन अच्छा गुज़रता है, मगर लीज़ा से शादी नहीं कर सकता...लीज़ा मुझे अपनी ओर आकर्षित करती है, मगर यह होगा नहीं. सिर्फ सुन्दरता...बहुत बुद्धिमान है, मगर भावनाएँ नहीं हैं.”
फिर काफ़ी देर बाद उनका ध्यान सोन्या की तरफ़ गया. सोन्या उन दिनों पोलोवानोव नामक आर्मी ऑफ़िसर से प्यार कर रही थी. पोलिवानोव पीटर्सबुर्ग में था. मगर जब सोन्या का ध्यान इस तरफ़ गया कि काऊंट उसकी तरफ़ आकर्षित हो रहे हैं, तो वह पोलिवानोव को भूलने लगी. इधर लेव निकोलायेविच ने लीज़ा को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया था; सोन्या के पास एक और नौजवान – प्रोफेसर पोपोव आने लगा था. ल्यूबोच्का कहती भी थी कि ‘पोपोव को सोन्या बहुत पसन्द है.’ सोन्या को भी उससे मिलना अच्छा लगता – टॉल्स्टॉय के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई.
6 अगस्त को टॉल्स्टॉय अपने गाँव ‘यास्नाया पल्याना’ गए. ल्यूबोच्का अपनी तीनों बेटियों के साथ अपने पिता से मिलने के लिए निकली थी. लेव निकोलायेविच ने उनसे अनुरोध किया था कि पिता के गाँव जाते समय वे लोग यास्नाया पल्याना में अवश्य रुकें. अतः एक शाम को ल्यूबोच्का बेटियों के साथ यास्नाया पल्याना आई. लेव निकोलायेविच ने उनकी बड़ी आवभगत की. दूसरे दिन मेहमान आगे की यात्रा पर निकले. तीसरे दिन शाम को सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर लेव निकोलायेविच वहाँ हाज़िर!
लीज़ा समझ गई कि लेव निकोलायेविच सोन्या की तरफ़ कुछ ज़्यादा ही ध्यान दे रहे हैं. वह रोकर छोटी बहन से बोली, “देख, तान्या! सोन्या मेरे लेव निकोलायेविच को मुझसे छीने ले जा रही हि. तू देख रही है ना?”
आख़िरकार लेव निकोलायेविच ने प्यार का इज़हार कर ही दिया. इस संदर्भ में तान्या अपनी ‘यादें’ में लिखती है:
 “शाम को भोजन के बाद सभी मुझसे गाने की ज़िद कर रहे थे. मेरा मन नहीं था. मैं वहाँ से भागी और ड्राइंग रूम में कहीं छिपने के लिए जगह ढूँढ़ने लगी. मैं पियानो के नीचे छिपकर बैठ गई. कमरे में कोई नहीं था. वहाँ ताश खेलने की मेज़ रखी हुई थी.
कुछ देर बाद सोन्या और लेव निकोलायेविच वहाँ आए. दोनों ही कुछ उद्विग्न थे. वे ताश की मेज़ के पास बैठ गए.
 “तो, आप कल जा रहे हैं?” सोन्या ने कहा. “इतनी जल्दी किसलिए? मुझे बुरा लग रहा है!”
 “माशेन्का अकेली है, वह शीघ्र ही विदेश जाने वाली है.”
 “और क्या आप भी उसके साथ जा रहे हैं?” सोन्या ने पूछा.
 “नहीं, मैं जाने वाला था, मगर अब नहीं जा सकूँगा.”
सोन्या ने कारण नहीं पूछा. उसे कुछ-कुछ आभास तो हो गया था. उसके चेहरे की ओर देखकर मुझे ऐसा लगा कि अब कुछ न कुछ होने वाला है. मैं वहीं छिपी बैठी रही.
 “चलिए, हम हॉल में चलें,” सोन्या ने कहा. “हमें ढूँढ़ रहे होंगे.”
 “नहीं, रुकिए, यहाँ कितना अच्छा है!”
और उसने मेज़ पर चॉक से कुछ लिखा.
 “सोफ्या अन्द्रेयेव्ना, मैं यदि हर शब्द के पहले अक्षर से एक वाक्य लिखूँ तो क्या आप पढ़ सकेंगी?” उसने आशंकित होकर पूछा.
 “पढ़ सकूँगी,” सोन्या ने सीधे उसकी आँखों में देखते हुए दृढ़ता से कहा.
बिल्कुल यही प्रश्नोत्तर ‘आन्ना कारेनिना’ नामक उपन्यास में लेविन कीटी के सामने शादी का प्रस्ताव रखते हुए लिखता है :
लेव निकोलायेविच ने लिखा,” आ. ज. औ. सु. अ. मु. में. उ. औ. सु. अ. ए. क. र.”
सोन्या ने फ़ौरन पढ़ा, “आपकी जवानी और सुख की अभिलाषा मुझे मेरी उम्र का और सुख की असंभवता का एहसास करवा रही है.”
लेव निकोलायेविच बीच-बीच में प्रॉम्प्टिंग कर रहे थे.
 “और एक बात,” उन्होंने कहा, “आपके घर में मेरे और लीज़ा के बारे में ग़लतफ़हमी है. आप और तान्या मिलकर मुझे इससे बचाएँ...” 2
वापस लौटते समय ल्यूबोच्का और उनके बेटियाँ फिर 2-3 दिनों के लिए यास्नाया पल्याना में रुकीं और विदेश यात्रा पर निकली माशा के साथ मॉस्को के लिए निकलीं. तूला स्टेशन पर लेव निकोलायेविच हाज़िर! वे भी मॉस्को के लिए निकले थे.
मॉस्को में वे बेर्स के यहाँ जाने लगे – रोज़, रोज़!”
बेर्स परिवार के लिए यह बड़ा अटपटा था. सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना कभी हँस कर उनसे मिलती; कभी उदासी से, खोई-खोई; कभी अत्यंत गंभीरता से, कुछ कठोरता से! देखते-देखते पूरा अगस्त समाप्त हो गया. आख़िर 16 सितम्बर को लेव निकोलायेविच ने हिम्मत करके एक ख़त सोन्या के हाथों में दिया और बोले कि वे जवाब का इंतज़ार ऊपर, उनकी माँ के कमरे में कर रहे हैं.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ‘घायल पंछी’ के समान अपने कमरे में गई और उसने अंदर से दरवाज़ा बन्द कर लिया. वह पढ़ने लगी:
 “सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना! यह सब मेरे लिए बहुत ज़्यादा असहनीय हो रहा है.
पिछले तीन सप्ताह से मैं रोज़ कह रहा हूँ: आज सब कुछ कह दूँगा – मगर रोज़ दुख से, पश्चात्ताप से, डर से और सुख से वापस लौट जाता हूँ. रात को पिछली बातों पर गौर करता हूँ और ख़ुद ही से पूछता हूँ: ‘कहा क्यों नहीं?’ और क्या क्या कहता, कैसे कहता....अंत में यही निश्चय किया कि ख़त लिखकर ही आपसे कहूँगा.
 “आपके परिवार की मेरे बारे में ये ग़लतफ़हमी है कि मैं लीज़ा से प्यार करता हूँ. यह ग़लत है...
...
...
आप एक ईमानदार व्यक्ति हैं. अपने दिल पर हाथ रखकर, बिल्कुल भी जल्दबाज़ी किए बिना; भगवान की क़सम, जल्दबाज़ी न कीजिए, क्या आपको मेरी पत्नी बनना अच्छा लगेगा? मगर यदि आपका दिल पूरी तरह से ‘हाँ’ कह रहा हो, तभी! वर्ना आप ‘नहीं’ भी कह सकती हैं...”
सोफ़्या पढ़ रही थी, और दरवाज़े पर खटखटाहट हो रही थी. “सोन्या! बड़ी बहन चीख़ रही थी. “दरवाज़ा खोल, फ़ौरन खोल! मुझे तुझसे बात करनी होगी...”
दरवाज़ा खुला.
 “सोन्या, काऊंट ने ख़त में तुझे क्या लिखा है? बता!” एलिज़ाबेता अन्द्रेयेव्ना गुस्से से हुक्म दे रही थी.
सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ख़त हाथों में पकड़े ख़ामोश ही रही.
 “बोल! काऊंट ने तुझे क्या लिखा है?”
 “उसने शादी का प्रस्ताव रखा है,” हौले से सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने कहा.
 “मना कर दे!” सिसकियाँ लेते हुए लीज़ा कराहने लगी.3
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने कुछ भी जवाब नहीं दिया.
माँ भागी-भागी आई. फ़ौरन उसने यह सब रोका.  नीचे, छोटे से ड्राइंगरूम में लेव निकोलायेविच राह देख रहे थे. चेहरा फक् हो रहा था.
आख़िरकार क़दमों की हल्की आहट हुई...सोन्या अन्द्रेयेव्ना जल्दी जल्दी उनके पास आई और बोली, “बेशक, हाँ!”
कुछ ही पलों में मुबारकबादों का दौर शुरू हो गया.
बूढ़े डॉक्टर बेर्स बीमार थे और दरवाज़ा बन्द करके अपने कमरे में बैठे थे. पत्नी से इस प्रस्ताव के बारे में ज्ञात होने पर पहले तो उन्होंने थोड़ा विरोध ही किया. उनका विचार था कि टॉल्स्टॉय बड़ी बेटी, लीज़ा, से ही प्यार करते हैं और वह भी प्रत्युत्तर दे रही है. लीज़ा के बारे में उन्हें बहुत दुख हुआ, वे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. मगर सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के आँसुओं ने, और ख़ुद लीज़ा की भलमनसाहत के कारण सब कुछ ठीक हो गया. माता-पिता की सम्मति प्राप्त हो गई और 17 सितम्बर को लेव निकोलायेविच ने अपनी डायरी में लिखा:
 “दूल्हा, उपहार, शैम्पेन. लीज़ा बड़ी दयनीय और भारी दिल की प्रतीत हो रही है, वह निश्चय ही मुझसे नफ़रत कर रही होगी. चुम्बन ले रही है.” 4
टॉल्स्टॉय के अनुरोध पर एक सप्ताह बाद शादी करने का निश्चय किया गया.
लेव निकोलायेविच ने (‘आन्ना कारेनिना’ के लेविन की ही भांति) अपनी सारी डायरियाँ वधू को दे दीं. उसने इन ‘भयानक कॉपियों’ में उसके सारे ‘लफ़ड़ों’ के बारे में, हर प्रकार की उसकी अवनति के बारे में पढ़ा और दुख के आवेग में वह बड़ी देर तक रोती रही.
शादी की तारीख़ थी 23 सितम्बर; मुहूरत – शाम का. सुबह दूल्हे मियाँ हाज़िर! वे सोन्या से पूछने आए थे कि वह सचमुच में उनसे प्यार करती है या नहीं, अपने पुराने प्रेमी की याद तो उसे नहीं आती! सोन्या ने रोते-रोते उन्हें समझाने की कोशिश की, मगर वह उन्हें समझा नहीं सकी. तभी सोन्या की माँ कमरे में आई और वह दूल्हे को उस समय दुल्हन के घर आने पर डाँटने लगी. उसने ज़िद की कि लेव निकोलायेविच फ़ौरन वहाँ से निकल जाएँ...वे चले भी गए.
आख़िरकार शाम को शादी हो गई और सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना लेव निकोलायेविच के साथ यास्नाया पल्याना आ गई.
दिन बड़े प्यार से और प्रसन्नता से गुज़र रहे थे. सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना टॉल्स्टॉय के हर काम में दिलचस्पी लेती. उनके द्वारा किसानों के बच्चों के लिए खोले गए स्कूल में जाती, बच्चों के साथ दंगा-मस्ती करती. घर की सारी देखभाल उसीके ज़िम्मे थी. दोनों एक-दूसरे से ख़ूब-ख़ूब प्यार करते, मगर सन् 1862 के दिसम्बर में जब वे मॉस्को आए थे तो देखने वालों के ध्यान में यह बात आए बिना न रह सकी कि प्यार की पहली बहार ख़त्म हो गई है – पति की नज़रों में अब कुछ प्यार भरी फिक्र है उसके लिए, और पत्नी की नज़रों में – प्यार भरा समर्पण...लेव निकोलायेविच की जवान पत्नी उन्हीं के शब्द बोलने लगी थी और उन्हीं के विचारों के बारे में विचार करने लगी थी.
धीरे-धीरे वे दोनों एक-दूसरे से ईर्ष्या करने लगे – कोई भी तीसरा या तीसरी उनसे बर्दाश्त नहीं होते थे. ये ईर्ष्या बढ़ती ही गई जिसके परिणाम स्वरूप उनके जीवन में ज़हर घुल गया. अब उन्हें महसूस होता कि वे ‘अन्य लोगों की ही तरह’ सुखी हैं.
एक प्रसंग बड़ा दर्द्नाक है. टॉल्स्टॉय को यास्नाया पल्याना के स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक से भी ईर्ष्या हो चली थी.
 “आज,” सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना लिखती हैं, “हम चाय पीते-पीते सबके सामने ही एर्लेनवैन से बहस कर रहे थे – किसी छोटी सी बात पर. बस, उन्हें फ़ौरन गुस्सा आ गया. “क्या! शिक्षक के साथ? छिः छिः! हे भगवान! सोच भी नहीं सकता! शिक्षक तो बेचारा इतना गंभीर स्वभाव का है!”
अपनी डायरी में इस प्रसंग के बारे में टॉल्स्टॉय दुख प्रकट करते हैं. पत्नी की ओर देखकर वे कहते हैं, “मैं कोई न कोई बहाना ढूँढ़ता ही रहता हूँ अनजाने ही तुम्हारा अपमान करने का. ये नीचता है, शायद एक दिन समाप्त हो जाएगी, मगर गुस्सा न करो : तुम्हें तो मैं कभी ठुकरा ही नहीं सकता...” ... “आज गप्पें मारते हुए, एर्लेनवैन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश के कारण मेरी सत्यप्रियता और शक्ति चरम सीमा पर पहुँच गई. इसे कहते हैं – ईर्ष्य! हाँ, मुझे मालूम है. और फिर वह मुझे शांत करने की कोशिश करेगी...भयानक! मैं शराबी और जुआरी हूँ. ...मुझे क्या चाहिए? सुख से रहने का मतलब है उसका और स्वयँ का भी प्रेम प्राप्त करना, और ऐसे समय में मुझे अपने आप से नफ़रत होने लगती है...”. “उसे कोई दूसरा – बिल्कुल निचले तबके का भी – प्रिय है, यह बात मेरी समझ में आ जाती है और मुझे यह अयोग्य प्रतीत नहीं होना चाहिए, क्योंकि पिछले नौ महीनों में मैं ख़ुद ही एक बेहद क्षुद्र, निर्बल, नीच, अविचारी व्यक्ति हो गया हूँ...” 5
छोटी-छोटी बातों पर कितना वितंडवाद! कितना खदखदाता है, तीव्रता से बाहर आने की कोशिश करता है, त्रस्त हो जाता है उसका यह गर्म, भड़कता हुआ मिजाज़! उसकी पत्नी हँसकर दो शब्द भी शिक्षक से बोले तो भी वह स्वयँ को, अपने सुख को बुरा-भला कहने लगता है!...
उनके आततायी और विक्षिप्त स्वभाव का उदाहरण कई बार उनकी डायरी में मिलता है:
 सन् 1863 में वे लिखते हैं, “घर पर मैं बेकार ही सोन्या पर चिल्लाया कि वह मुझसे दूर क्यों नहीं हटी,. और फिर मुझे ही अपने आप पर शर्म आई और डर भी लगा.”
इसी प्रसंग के बारे में सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना की बहन ने सन् 1867 की ‘यादों’ में लिखा है:
 “सोन्या ने मुझे बताया कि वह ऊपर, अपने कमरे में, फर्श पर बैठकर अलमारी में छोटे-छोटे कपड़े संभाल कर रख रही थी. (वह गर्भवती थी.) लेव निकोलायेविच भीतर आकर उससे बोले:
 “नीचे क्यों बैठी हो? उठो!”
 “अभी उठती हूँ, बस, ये सब रख दूँ.”
 “मैं कह रहा हूँ, फ़ौरन उठो!” ज़ोर से चिल्लाए और कमरे से बाहर निकल गए.
सोन्या समझ ही नहीं पाई कि वे क्यों इतने गुस्सा हो रहे हैं. उसे बड़ा अपमान लगा और वह उनके अध्यय्न-कक्ष में गई. मैं अपने कमरे से उनका क्रोधित वार्तालाप सुन रही थी, मगर समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था और तब, अचानक किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई; काँच फूटने की आवाज़ आई और उनके चिल्लाने की आवाज़ आई:
 “निकल जाओ, निकलो बाहर!”
मैंने दरवाज़ा खोला. सोन्या वहाँ नहीं थी. फर्श पर फूटे हुए कप-प्लेट्स और थर्मामीटर पड़ा था, जो हमेशा दीवार पर टंगा रहता था. लेव निकोलायेविच कमरे के बीचोंबीच खड़े थे – चेहरा फक् और होंठ थरथरा रहे थे. आँखें दूर, किसी एक बिन्दु पर स्थिर थीं. मुझे उनकी बड़ी दया आई और डर भी लगा – मैंने उन्हें कभी भी ऐसी हालत में नहीं देखा था. उनसे एक भी शब्द कहे बगैर मैं सोन्या के पास भागी. उसकी हालत बड़ी दयनीय थी. जैसे वह पगला गई थी, बार-बार कह रही थी, “क्यों? क्या हो गया है उन्हें?” कुछ देर बाद उसने मुझे बताया:
 “मैं कमरे में गई और उनसे पूछा: ‘लेवच्का, तुम्हें क्या हुआ है?’
‘जाओ, जाओ, निकल जाओ!’ वे चीखे.
मैं घबरा कर उनके पास गई, उन्होंने मुझे हाथ से दूर धकेल दिया, कॉफी की ट्रे उठाई और कॉफी भरे कप समेत फर्श पर पटक दी. मैंने उनके हाथ पकड़ लिए. उन्हें ग़ुस्सा आ गया, उन्होंने दीवार पर टंगा हुआ थर्मामीटर उखाड़ कर फेंक दिया.”
मुझे और सोन्या को कभी भी पता नहीं चला कि इतना क्रोधित होने के पीछे क्या कारण था...” 6
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पहली संतान हुई सन् 1863 के जून में. कुल तेरह बच्चे हुए. 
बच्चों के कथनानुसार, घर में माँ सबसे महत्वपूर्ण थीं, सब कुछ उसी पर निर्भर था. वह रसोइए को खाने के बारे में निर्देश देती; बच्चों को घुमाने के लिए बाहर छोड़ती, बच्चों के कपड़े सीती; कोई न कोई नन्हा बच्चा हमेशा उसके आँचल से सटा दूध पीता और दिन भर घर में वह गड़बड़ी से घूमती रहती. उसके सामने ज़िद कर सकते थे; कभी कभी वह गुस्सा भी करती और सज़ा भी देती.
पप्पा के सामने ज़िद नहीं चलती थी. वे तुम्हारी आँखों में देखते और उन्हें हर बात फ़ौरन समझ में आ जाती , इसलिए उनसे झूठ भी नहीं बोल सकते थे. पप्पा ने कभी भी, किसी भी बच्चे को सज़ा नहीं दी; कभी भी, किसी भी काम के लिए ज़बर्दस्ती नहीं की; और शायद इसीलिए हर चीज़ उनकी मर्ज़ी के मुताबिक हुआ करती थी.
सोफ़िया अन्द्रेयेव्ना को संगीत का शौक था, वह चित्र भी अच्छे बनाया करती थी, मगर बच्चों की देखभाल में सारी बातें, अपने सारे शौक उसने मन में ही दफ़ना दिए. मगर इस सारी गहमा-गहमी में भी समय निकाल कर वह अपने पति के साहित्य-सृजन से जुड़ी रहीं. वह उनकी स्याही से मिटाई गई, जल्दी समझ में न आनेवाली पांडुलिपियाँ फिर से लिखती. वह ड्राइंग-रूम में अपने छोटे से टेबल के पास बैठती और खाली समय में लिखती रहती. कागज़ पर झुककर, टॉल्स्टॉय के गिचपिच अक्षर पढ़कर लिखते-लिखते पूरी शाम वह मेज़ के पास बैठी रहती और सबके बाद सोने के लिए जाती. कभी-कभी अक्षर बिल्कुल ही समझ में नहीं आते, तब वह पति के पास जाकर उससे पूछती; मगर यह बिरले ही होता था; उसे परेशान करना सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को अच्छा नहीं लगता. टॉल्स्टॉय चिड़चिड़ाकर पांडुलिपि देखते और पूछते, “इसमें समझ में न आने जैसी क्या बात है?” फिर वह पढ़ते, और कभी कभी तो उन्हें ख़ुद को ही अपनी लिखाई समझ में न आती. उनके अक्षर बहुत गन्दे थे, पंक्तियों के बीच बीच में, कागज़ के कोनों पर आड़े-तिरछे पूरे-पूरे वाक्य घुसेड़े हुए होते थे.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के सुवाच्य अक्षरों में लिखे पन्ने फिर से पति के पास जाते और उनमें फिर से फेरबदल होकर बिल्कुल पहचाने न जाने की हालत में वे वापस सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के पास लौटते. एक ही अध्याय को उसे पाँच-दस बार लिखना पड़ता. सोन्या के भाई, स्तेपान बेर्स ने अपनी ‘यादों’ में लिखा है कि उसकी बहन ने ‘वार एण्ड पीस’ उपन्यास को सात बार लिखा था.
जब यास्नाया पल्याना में प्रकाशक के पास से ‘प्रूफ’ आते तो भी यही सब कुछ होता. छूटे हुए वाक्य, पूर्ण विराम, अर्ध विराम...कई शब्द बदले जाते, पूरे-पूरे वाक्य बदले जाते, काटे-छाँटे जाते, कुछ जोड़-तोड़ भी होती – और अंत में प्रूफ इतना काला-नीला और भयानक हो जाता कि सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के अलावा किसी को कुछ भी समझ में नहीं आता था. फिर से वह पूरी-पूरी रात बैठकर सब कुछ लिख देती, सुबह पति उस पर ‘आख़री हाथ’ फेरता और फिर ‘वही ढाक के तीन पात...’
 “सोन्या, स्वीट हार्ट, माफ़ करना, मैंने फिर तुम्हारा काम ख़राब कर दिया; आगे से ऐसा कभी नहीं करूँगा,” वे अपराधी सुर में कहते. कल ज़रूर भेज दूँगा...” और वह ‘कल’ कुछ सप्ताह बाद अथवा कुछ महीनों बाद ही आता...
धीरे धीरे पति के शब्दों में बोलने वाली और उसीके विचारों में विचार करने वाली सोन्या ‘बड़ी’ और स्वतंत्र होने लगी. घर-परिवार में वह सम्पूर्णता ले आई.
                                *  *   * 

इस प्रसन्नता के वातावरण में टॉल्स्टॉय के मन में एकदम मृत्यु के भय ने प्रवेश किया. सन् 1873- 1875 की कालावधि में यास्नाया पल्याना में लेव निकोलायेविच की तीन संतानों – डेढ़ साल का पेत्या, दस माह का निकोल्का, अधूरे दिनों की नवजात बच्ची; उनकी बुआ और उनकी आया की एक के बाद एक मृत्यु हो गई.
वे हमेशा सोचने लगे, “क्यों? इसके बाद क्या?” ज़मीन-जायदाद ख़रीदो, नई कहानियाँ-उपन्यास लिखो, प्रसिद्धी बटोरो – फिर, इसके बाद क्या? यदि मैं ही नहीं रहूँगा, तो ये सब किसलिए?
 “मैं अपने आप को कैसे बचाऊँ? मुझे लगता है कि मैं मर रहा हूँ; जीवित हूँ, और मर रहा हूँ; ज़िन्दगी से प्यार करता हूँ और मौत से डरता हूँ – कैसे बचाऊँ मैं अपने आप को?” 7 उन्होंने सन् 1878 में लिखा.
मृत्यु के भय को दूर हटाने के लिए वे धर्म का सहारा लेने लगे. रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च की शिक्षा के अनुसार उपवास, व्रत, कर्म-कांड आदि करने लगे. मगर धीरे-धीरे उन्हें समझ में आ गया कि ये सब तो उन्हें समझ में ही नहीं आता, अपने मन के विरुद्ध यह सब करते हुए उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी.
पति की ये मानसिक उथल-पुथल सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना की समझ में नहीं आती थी. वह एक सीधी-सादी, ईमानदार स्त्री थी; निष्ठापूर्वक क्रिश्चन धर्म का पालन करती थी. जब पति हर वाक्य के बाद ‘ईश्वर की इच्छा!’ कहने लगा, ‘ईश्वर कृपा करें! जपने लगा – तो उसे ऐसा लगा कि यह उसकी नई सनक है. मगर बाद में उसका तिलमिलाना, उसका तड़पना देखकर उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह बीमार है. वह उसके इलाज पर ज़ोर देने लगी, उसके धार्मिक कार्य-कलापों से समझौता करने लगी...क्योंकि उसकी राय में यह सब पति तक ही सीमित है, औरों को इससे कोई तकलीफ़ नहीं थी.
धीरे-धीरे वे चर्च द्वारा दी जा रही शिक्षा पर टीका-टिप्पणी करने लगे, उन्हें ऐसा लगता कि ये सब झूठ है, असल में चर्च की कोई ज़रूरत ही नहीं है. इस संदर्भ में लिखे गए उनके लेखों को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया; टॉल्स्टॉय और साम्राज्य के बीच संघर्ष आरंभ हो गया. उन्होंने ईसा मसीह के उपदेशों में से पाँच उपदेश चुने और यही पाँच उपदेश उनकी ‘नई धार्मिक शिक्षा’ का आधार बने. वे पाँच उपदेश इस प्रकार हैं:
1.       क्रोध मत करो;
2.       भटक न जाओ;
3.       क़सम न खाओ;
4.       बुराई का विरोध ताक़त से मत करो;
5.       युद्ध मत करो (अपने शत्रु से प्रेम करो.)
5.
टॉल्स्टोय की पुस्तक ‘मैं किसमें विश्वास करता हूँ?’ उनकी धार्मिक संकल्पनाओं की जानकारी देती है:
 “मोह से संघर्ष करने के लिए विश्व के शक्ति सम्पन्न लोगों से अपेक्षा की जाती है कि अपनी जीवन पद्धति में समग्र परिवर्तन लाएँ;
 “निर्धन हो जाना चाहिए, भिखारी हो जाना चाहिए, आवारा हो जाना चाहिए – ईसा मसीह यही शिक्षा देते हैं, इसके बगैर ईश्वर के साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे, इसके बगैर पृथ्वी पर भी सुख नहीं पाओगे;
 “ये भिखमंगापन और आवारापन तुम्हें प्रकृति के निकट ले जाएगा, अपनी मर्ज़ी का, स्वतंत्र काम देगा (अर्थात् – शारीरिक श्रम), अपने परिवार से सचमुच की निकटता प्रदान करेगा; सब लोगों के साथ स्वतंत्र, प्रिय विचार-विनिमय की संधि देगा, स्वास्थ्य लाभ देगा, बीमारी के बिना मृत्यु देगा;
 “मगर ‘तुम्हें कोई खा नहीं खिलाएगा’ – ऐसा लोग कहेंगे – मगर वे ईसा के इन शब्दों को भूल जाते हैं कि शारीरिक श्रम करने वाला भोजन पाने के लिए पात्र है...” 8
मगर असली बात तो आगे है!
टॉल्स्टॉय को अपना यह ‘सुख’, अपना यह आविष्कार ख़ुद तक ही सीमित नहीं रखना था. उन्होंने अपने इस ‘नए धर्म’ का प्रयोग पीटर्सबर्ग में किया. वे अपनी बुआ के घर गए. बुआ जी अपने इस भतीजे पर अथाह प्यार लुटाती थीं. हाल-चाल पूछने के बाद वे अपना हृदय बुआजी के सामने खोलने लगे.
बुआजी चुपचाप रहीं.
 “मैं देख रहा हूँ कि मेरे विचारों ने आपको पूरी तरह मुग्ध कर दिया है,” वे बोले.
 “ग़लत है. मेरे दुलारे, मुझे यह सब समझ में ही नहीं आ रहा है.”
वे झटके से कुर्सी से उठ गए.
 “समझ में क्यों नहीं आता? ये इतना आसान है और दो ही शब्दों में मैंने बताया है. देखिए, मेरे हृदय में एक खिड़की खुल गई है – इस खिड़की से मुझे ईश्वर के दर्शन होते हैं, और इसके सिवा मुझे कुछ भी, याने बिल्कुल कुछ भी नहीं चाहिए.”
 “कुछ भी का क्या मतलब है? सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है – ईश्वर पर विश्वास करना; मगर पहले तुम मुझे बताओ, तुम उस पर किस तरह विश्वास करते हो?”
जवाब में उन्होंने चर्च की अनुपयोगिता और उसके कारण हो रहे नुक्सान के बारे में बताया. उन्हीं ईसा मसीह के देवत्व और इस माध्यम से स्वयँ की रक्षा करने का निषेध किया.
मगर बुआजी क्रिश्चन थीं, वे चर्च का पक्ष लेने लगीं. बुआजी के साथ युद्ध दिन भर चलता रहा. दूसरे दिन सुबह बुआजी जब उठीं तो उन्हें भतीजे की चिट्ठी मिली, बिना सूचित किए चले जाने पर माफ़ी मांगती हुई.
तब से बुआजी से उनके संबंध बिगड़ गए.
घर पर तो उनकी इस ‘शिक्षा’ का विपरीत ही परिणाम हुआ. उनके ‘भिखारी बनने’ की सीख का तो किसी पर कोई असर ही नहीं हुआ. किसी को भी इस बात पर विश्वास नहीं था कि कोई ऐसे भले आदमी मिलेंगे जो बुढ़ापे की ओर झुकते टॉल्स्टॉय के शारीरिक श्रम के बदले में इतने बड़े परिवार को खिलाएँगे. कोई भी अपनी शानदार जीवन शैली बदलने को तैयार ही नहीं था, जिसकी आदत ख़ुद टॉल्स्टॉय ने ही डाली थी.
इधर टॉल्स्टोय अपने साहित्यिक अधिकार छोड़ने और अपनी सारी सम्पत्ति निर्धनों में बाँटने चले थे. घर के लोगों ने उन्हें ताक़ीद दी कि ऐसा करने से वे उनके विरुद्ध फ़रियाद कर देंगे कि वे मानसिक रूप से बीमार होने के कारण ही ऐसा कर रहे हैं. संक्षेप में, उन्हें पागलखाने भेजने की धमकी दे डाली.
टॉल्स्टॉय तो एकदम बिफ़र गए. बाद में स्वयँ उन्होंने ही स्वीकार किया: “सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना पर दोष नहीं लगाया जा सकता. यदि वह मेरे ‘मत’ का अवलम्बन नहीं करती तो इसमें उसकी कोई गलती नहीं है. वर्तमान में वह जिस बात की ज़िद कर रही है; वो वही तो है जो अनेक वर्षों से मैं उसे बताता आ रहा हूँ. मैंने ही इस तरह से अपनी बात सही होने का यक़ीन दिलाया कि उसे अपने से दूर ही धकेल दिया. और अब मुझे पूरा यक़ीन है कि मेरी ही गलती के कारण इस नए ‘मत’ के द्वार उसके लिए सदा के लिए बन्द हो गए हैं.”
वाक़ई में उनके सुख के दिन समाप्त हो गए थे. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने कई वर्षों बाद (सन् 1914 में) लिखा: “मैं समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे विचारों (पति के) के साथ जिऊँ तो कैसे, मैं घबरा गई थी, दुखी होती थी, चिड़चिड़ाती थी. मगर मैं नौ बच्चों को लेकर वहाँ नहीं जा सकती थी, जहाँ मेरा पति, बार-बार अपने मतों को परिवर्तित करते हुए, मन से पहुँच गया था. उसके लिए तो ये एक सनसनीख़ेज़, उसका अपना, आविष्कार था; मगर मेरे लिए तो यह एक भोथरी नकल ही होती; परिवार के लिए भी घातक...”, “ ...पति की इच्छानुसार सारी सम्पत्ति बाँटने के बाद (मालूम नहीं, किसे) नौ बच्चों के साथ गरीबी में जीवन निर्वाह करना... मुझे तो बच्चों की ख़ातिर काम ही करना पड़ता – उन्हें खिलाना, सिलाई करना, धोना, बच्चों को अशिक्षित रखकर बड़ा करना...लेव निकोलायेविच तो लिखने के अलावा कुछ और कर ही नहीं सकते थे...”
सन् 1882 में सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने उन्हें लिखा: “...सुबह उठते ही दिखा तुम्हारा ख़त – दुखभरा और उबाऊ...दिनों दिन बुरा होता हुआ. मुझे ऐसा लगने लगा है कि यदि एक सुखी व्यक्ति को जीवन में हर चीज़ भयानक प्रतीत होने लगी है, और यदि उसने अनेक अच्छी बातों की तरफ़ से अपनी आँखें मूँद ली हैं, तो यह अस्वस्थ्यता के कारण हो रहा है. तुम्हें अपना इलाज करवाना ही चाहिए. यह मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के कह रही हूँ, मेरा ख़याल है कि यह बिल्कुल स्पष्ट है; मुझे तुम पर बड़ी दया आती है, और यदि तुम बिना क्रोधित हुए मेरे शब्दों पर और अपनी स्वयँ की परिस्थिति पर विचार करोगे तो शायद तुम्हें कोई मार्ग मिल जाएगा. यह दयनीय परिस्थिति एक बार पहले भी उत्पन्न हुई थी; तुम कहते हो, “अविश्वास के कारण आत्महत्या करने को जी चाहता है”? मगर अब? अब तो तुम विश्वास के बगैर नहीं जी रहे हो, फिर किसलिए दुखी हो? और, क्या तुम्हें पहले ज्ञात नहीं था कि भूखे, दुखी और बुरे आदमी होते हैं? अच्छी तरह से देखो : निरोगी और प्रसन्नचित्त व्यक्ति भी हैं, सुखी और दयालु भी हैं. ईश्वर ही तुम्हारी सहायता करें, मैं क्या कर सकती हूँ?” 10
सन् 1882 में टॉल्स्टॉय पर हिब्रू भाषा सीखने की धुन सवार हुई. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना अनेक वर्षों से उनके सृजनात्मक लेखन की ओर लौटने की राह देख रही थी; उसे बड़ा गुस्सा आया कि वह फ़ालतू की बातों में अपनी शक्ति गँवा रहे हैं. रोज़-रोज़ वह चिड़चिड़ाती. टॉल्स्टॉय ने सन् 1884 में लिखा, “घर पर ख़ूब कष्ट हो रहा है. मन पर बोझ है कि उनके प्रति सहानुभूति नहीं दिखा सकता. उनकी छोटी-छोटी, उन्हें ख़ुशी देने वाली बातें – परीक्षा में, सोसाइटी में उनका यश, संगीत, ख़रीद-फ़रोख़्त, - ये सब मुझे उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण और बुरा प्रतीत होता है, और मैं उनसे ये कह नहीं सकता. मैं कह सकता हूँ, मैं कहता भी हूँ, मगर मेरी बातों की ओर कोई ध्यान ही नहीं देता. उन्हें यह व्यर्थ की बकवास प्रतीत होती है...मैं तो उनके लिए बस एक हड्-हड् करने वाला बुड्ढा हो गया हूँ.” 11 और उन्हें ऐसा लगता कि इस सबके लिए ज़िम्मेदार है उनकी पत्नी – उसका असहकारपूर्ण और चिड़चिड़ा स्वभाव. उन्हें ऐसा अनुभव होता कि उनके चारों ओर कोई शेर घूम रहा है, और अभी वह...उन्हें लगता कि प्रेमिका और प्रेम करने वाली पत्नी यदि घर में हो तो सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा. कई बार वे घर छोड़कर भाग जाने का विचार भी करते. “यदि वाक़ई में देखूँ, तो उन्हें मेरी ज़रूरत ही क्या है? ये सारी मुसीबत किसलिए?” वे स्वीकार करते हैं कि उन्हें भी रोज़-रोज़ की इस झंझट के कारण ख़ुद पर क़ाबू रखने में कठिनाई हो रही है...
 “वह मेरे कमरे में आई और आकांड-तांडव मचाने लगी – वही, हमेशा के ही समान – कि कुछ भी बदलना योग्य नहीं है; कि वह बड़ी अभागी है, उसे कहीं भाग जाना चाहिए. मुझे उसकी दया आई, और मैं यह भी समझ गया कि किसी भी चीज़ की आशा नहीं है...वह मेरी मृत्यु तक मेरे और मेरे बच्चों के गले में ढेंढ़ की तरह पड़ी रहेगी...शायद, ऐसे ही होना होगा. गले में ढेंढ़ बंधी होने पर भी न डूबने की आदत करनी पड़ेगी...मैंने उसे दिलासा देने की कोशिश की, बीमार आदमी को देते हैं उस तरह...” 12   
कभी कभी सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ‘बिल्कुल शांत’ रहती और उसे ये ‘विस्फोट’ दिखाई नहीं देते.
उन्हें हमेशा की यह किचकिच बर्दाश्त नहीं होती. एक बार जून में शाम को वह बाग़ में काम करके ख़ुश-ख़ुश घर के भीतर आए. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को प्रसव-वेदना शुरू हो गई थी, उसने फ़ौरन पति पर तोप दागना आरंभ कर दिया कि उसका घोड़े बेचने का मन हो रहा है, जिनकी उसे ज़रूरत नहीं, और जिनसे वह छुटकारा पाना चाहता है. यह सब उनकी बर्दाश्त के बाहर हो गया और वह घर छोड़कर निकल पड़े, कभी भी वापस न आने के लिए. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना वेदना से कराह रही थी, ईश्वर से मृत्यु माँग रही थी; और वह निकल गए, अकेले ही तूला की ओर जाने वाले राजमार्ग पर, “पागलों द्वारा चलाए जा रहे, इस पागलख़ाने से दूर.” 13
मगर तभी उन्हें याद आया कि पत्नी का प्रसव-काल समीप है; और वह वापस लौटे. घर में ‘दाढ़ी वाले आदमी’ – उनके पुत्र – ताश खेल रहे थे. बाकी के बच्चे क्रॉकेट खेल रहे थे. वह अपने कमरे में आकर सोफ़े पर लेट गए, मगर आँखों में नींद का नाम न था. रात के दो बजे बाद वह उसके कमरे में आई.
 “मुझे माफ़ करो, मैं बच्चे को जन्म दे रही हूँ, शायद बचूँगी नहीं...”
प्रसव-वेदना बढ़ती गई और सुबह सात बजे उनकी पुत्री अलेक्सान्द्रा का जन्म हुआ. इस दौरान सन् 1884 में उसने लिखा, “...मैं देख रहा हूँ कि वह तेज़ी से मृत्यु की ओर एवम् मानसिक यातनाओं की ओर जा रही है...”
दिसम्बर 1885 में तो यह सब अपने चरम पर ही पहुँच गया. सोफ़्य़ा अन्द्रेयेव्ना अपनी बहन को लिखती है:
 “हुआ वही जो अनेकों बार हो चुका है. लेवच्का अत्यंत दुखी एवम् दयनीय मनःस्थिति में आया. मैं बैठकर लिख रही थी; मैंने देखा – उसका चेहरा भयानक प्रतीत हो रहा था. तब तक हम ठीक ही थे. एक भी अप्रिय शब्द नहीं कहा गया था, बिल्कुल एक भी नहीं. “मैं ये कहने के लिए आया हूँ कि मुझे तुमसे अलग होना है, इस प्रकार जीना असंभव है; मैं पैरिस या अमेरिका चला जाऊँगा.” तान्या, यदि मुझ पर पूरा घर भी गिर जाता तो भी मैं इतनी हैरान नहीं होती. मैंने आश्चर्य से पूछा: “हुआ क्या है?” ..”कुछ नहीं, मगर यदि घोड़े की पीठ पर अधिकाधिक रखा जाता रहे तो वह आगे चल ही नहीं पाएगा.” क्या रखा जाता रहे – कुछ समझ में नहीं आता. मगर चिल्ला-चोट शुरू हो गई. गालियाँ, दूषण, अधिकाधिक निकृष्ट...और अंत में, मैंने बर्दाश्त किया, किया और कुछ भी नहीं किया; मैं देख रही थी कि आदमी पागल हो गया है; और जब अंत में उसने कहा कि “जहाँ तू है, वहाँ की हवा ज़हरीली हो गई है”, तो मैंने एक सन्दूक मंगवाया और उसमें अपने कपड़े रखने लगी. तुम्हारे पास, कम से कम, कुछ दिनों के लिए आने का निश्चय किया. बच्चे दौड़ते हुए आए – रोना-पीटना, चिल्ला-चोट, चीख़-पुकार...तान्या ने कहा, “मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, ये सब किसलिए?” वह रुकने के लिए मुझे मनाने लगा. मैं रुक गई. मगर फ़ौरन ही लेवच्का थरथर काँपते हुए रोने लगा, जैसे उस पर पागलपन का दौरा पड़ा हो. मुझे उस पर बड़ी दया आई. बच्चे भी रोने लगे. मुझ पर मानो वज्राघात हो गया. मेरी बोलती बन्द हो गई, मैं बोल ही नहीं सकती थी...कुछ देर बाद सब ख़त्म हो गया, मगर पीड़ा, दुख, हमारे बीच बढ़ती हुई दूरी, परायेपन का बीमार अहसास...ये सब मेरे मन में घर कर गया. मैं कई बार ख़ुद से ही पूछती हूँ : “क्यों? मैं घर से बाहर पैर नहीं रखती, उसके प्रकाशन का काम रात को तीन-तीन बजे तक करती रहती हूँ, शांत रहती हूँ, सबसे इतना प्यार किया है मैंने...और...ये सब किसलिए?” 14
इस सारी खलबली मचाने वाली एवम् हृदय विदारक परिस्थिति के लिए एक और भी व्यक्ति ज़िम्मेदार था – व्लादीमिर चोर्त्कोव. चोर्त्कोव गवर्नर जनरल का पुत्र था. एक समृद्ध तथा प्रसिद्ध परिवार में जन्मा यह नौजवान सन् 1881 में फ़ौज की नौकरी छोड़कर अपने पैतृक गाँव आता है और टॉल्स्टॉय ही के समान किसानों के सहवास में रहकर उनके कल्याण के लिए काफ़ी काम करता है. टॉल्स्टॉय की ‘नई शिक्षा’ के बारे में सुनकर वह सन् 1883 में उनसे मिलने आता है. टॉल्स्टॉय को एक सच्चा मित्र और उनके कार्य को भविष्य में जारी रखने वाला वारिस मिल गया था.
सन् 1886 में टॉल्स्टॉय बीमार हो गए और बिस्तर पर पड़े पड़े फिर से साहित्य सृजन की ओर मुड़े. वे कहते जाते और सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना लिखती रहती. जैसे पुराने दिन वापस लौट आए थे. इस समय उन्होंने नाटक लिखा – ‘अँधेर का साम्राज्य’. आरंभ में इस नाटक पर सेन्सर ने प्रतिबंध लगाया था, मगर ख़ुद त्सार अलेक्सान्द्र III उस नाटक को पढ़कर उसके प्रकाशन की अनुमति दी. तीन दिनों में नाटक की 250,000 प्रतियाँ बिक गईं. मगर यह सब केवल कुछ ही दिनों तक रहा.
वे पत्नी को अपना विरोध करने के लिए क्षमा नहीं कर सके. उनकी राय में उनकी सारी मानसिक यातनाओं का कारण वही थी – वह और उसका अज्ञान. वह भविष्य भी नष्ट कर रही थी. वे अपनी डायरियों में, पत्रों में, मित्रों के सामने उस पर टीका किया करते; वह अपने संरक्षण के लिए आक्रामक रुख अपनाती. वे अपनी बात पर स्थिर नहीं रहते; दूर निकल कर भी जा नहीं सके, उनकी दुर्बलता जैसे सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना की विजय थी.
टॉल्स्टॉय अपनी रचनाओं का स्वामित्व छोड़ देना चाहते थे. उनकी राय में लेखन से धनार्जन करना वेश्यावृत्ति करने के समान था. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना उनके साहित्य को परिवार की सम्पत्ति मानती थीं – इसके बिना जीवन निर्वाह होना असंभव था. इस बात को लेकर तो झगड़ा इस हद तक पहुँचा कि सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना अपनी जान देने निकल पड़ी. वह रेल की पटरी पर लेट जाने के लिए निकली; रास्ते में बहन का पति उसे मिल गया जो उसे घर वापस ले आया. टॉल्स्टॉय ने कुछ समय के लिए इस ज़िद को छोड़ दिया, मगर आख़िर में उन्होंने अख़बार में यह इश्तेहार छपवा दिया कि सन् 1881 के पश्चात् लिखी गईं उनकी रचनाओं को कोई भी प्रकाशित कर सकता है. इससे पूर्व सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने इस प्रस्ताव का निषेध किया था, अब उसकी सहमति के बगैर ही लेव निकोलायेविच ने अपनी बात सही साबित कर दी.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना जिस प्रकार से जागीर का काम देखती, किसानों से बर्ताव करती वह भी उन्हें अच्छा नहीं लगता. मगर एक बार किसानों से कठोरतापूर्वक व्यवहार करने पर पुलिस ने उन्हें (मालिक को) अदालत में घसीटा, तब वे बहुत डर गए. उन्होंने फ़ौरन अपनी जागीर के दस हिस्से कर दिए – नौ हिस्से बच्चों के नाम पर (तेरह में से नौ ही संतानें ही बची थीं), और दसवाँ भाग सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के लिए. यह हुआ 17 अप्रैल 1891 को.
झगड़े के दौरान उनका ट्रम्प कार्ड होता था – घर छोड़कर जाने की धमकी; और पत्नी पलट कर वार करती – जान देने की धमकी देकर.
अब ऊपर उल्लेखित चोर्त्कोव के बारे में :
सन् 1896 के अंत में चोर्त्कोव, बिर्युकोव और त्रेगूबोव ने ‘दुखोबोरों’ की सहायता के लिए एक योजना बनाई. ‘दुखोबोर’ वे लोग थे जो रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च के विरोध में एक अलग ‘मत’ प्रतिपादित कर रहे थे. कॉकेशस के शासक उन पर बहुत अत्याचार कर रहे थे.
टॉल्स्टोय इस योजना में शामिल हो गए. ‘दुखोबोरों’ की परिस्थिति का वर्णन करके (शासन को इसके लिए ज़िम्मेदार बतलाते हुए) सहायता की माँग करने वाला पत्र ही था वह. बस, टॉल्स्टॉय के अलावा बाकी सबको गिरफ़्तार कर लिया गया. चोर्त्कोव लंडन भाग गया. लंडन में उसने ‘स्वोबोद्नोए स्लोवो’ नामक प्रकाशन गृह आरंभ किया. इस प्रकाशन गृह का प्रमुख कार्य था टॉल्स्टॉय की शिक्षा का प्रसार करना. जिन रचनाओं को प्रकाशित करने की सेन्सर ने अनुमति नहीं दी थी, उनका प्रकाशन यहाँ हुआ. इसके लिए आवश्यक धनराशि का अधिकांश भाग ‘दुखोबोर्स’ द्वारा टॉल्स्टॉय के माध्यम से लंडन भेजा जाता. टॉल्स्टॉय की ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं और चोर्त्कोव को भी विदेश में प्रसिद्धी प्राप्त हुई – टॉल्स्टॉय की रचनाएँ संग्रहित करके, उन्हें सावधानी से रखना और प्रकाशित करना – लेव निकोलायेविच की राय में यह बहुत बड़ा त्याग था.
सन् 1891 में, अपनी रचनाओं का स्वामित्व छोड़ने के बाद भी, टॉल्स्टॉय के पास प्रथम प्रकाशन का अधिकार शेष था, इससे भी काफ़ी धन प्राप्त होने की संभावना थी. चोर्त्कोव धीरे-धीरे इस अधिकार को भी हथियाना चाहता था. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को यह सब ठीक नहीं लग रहा था. धार्मिक-दार्शनिक रचनाओं की ओर से वह उदासीन थी, चोर्त्कोव द्वारा उनका प्रथम प्रकाशन किए जाने पर उसका विरोध नहीं था. परंतु जब टॉल्स्टॉय वापस साहित्य सृजन की ओर लौटॆ तो उसके ध्यान में यह बात आ गई कि उनके प्रथम प्रकाशन से ज़बर्दस्त रकम मिलने की संभावना थी. स्वाभाविक था कि इस रकम को अपने परिवार के उपयोग के लिए प्राप्त करने के उद्देश्य से वह सतर्क हो गई. उसने पति से ज़िद की कि वह चोर्त्कोव से प्रथम प्रकाशन अधिकार वापस ले ले. टॉल्स्टॉय ने निर्णय लिया कि वे साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित ही नहीं करवाएँगे – बहुत सी रचनाएँ पांडुलिपियों के रूप में ही पड़ी रहीं.
सन् 1895 में टॉल्स्टॉय ने अपनी डायरी में लिखा कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके वारिस लेव निकोलायेविच की रचनाओं के लेखकीय अधिकार से इनकार कर दें. उन्होंने बारे में सिर्फ विनती की थी, मगर इस प्रकार की कोई वसीयत तैयार नहीं की .
 “यदि ऐसा करोगे तो – ठीक. तुम लोगों के लिए भी ये अच्छा होगा; न करोगे – तो तुम्हारी मर्ज़ी. इसका अर्थ ये होगा कि तुम ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हो. पिछले दस सालों में मेरी पुस्तकें बिकीं, यह मेरे जीवन की सबसे अप्रिय बात थी.” 15
ये सारे निर्देश डायरी से निकाल कर टॉल्स्टॉय ने उस पर हस्ताक्षर किए और अपनी बेटी मारिया के पास उन्हें सुरक्षित रख दिया.
सन् 1902 में इस बात का पता चलने पर सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने पति से कहा कि ‘डॉक्यूमेंट’ उसके पास रखवाया जाए. वह कागज़ प्राप्त होने पर उसने फ़ौरन उसे नष्ट कर दिया. मगर अपनी बेटी की नाराज़गी से उसे आश्चर्य हुआ.
10 अक्टूबर 1902 को उसने अपनी डायरी में लिखा:
 “लेव निकोलायेविच की रचनाओं को सार्वजनिक ट्रस्ट के हवाले करना मेरी नज़र में मूर्खता है, और यह निरर्थक है. मैं अपने परिवर से प्यार करती हूँ और उनका भला हो यही विचार मेरे मन में है. यदि उनकी रचनाएँ सार्वजनिक ट्रस्ट को दी गईं तो सिर्फ बड़े-बड़े प्रकाशन गृह, जैसे मार्क्स का, त्सेत्लिन का प्रकाशन गृह ही और अधिक अमीर हो जाएँगे. मैंने लेव निकोलायेविच से कहा कि यदि वे मुझसे पहले मर जाते हैं, तो मैं उनकी यह इच्छा पूरी नहीं करूँगी और उनकी रचनाओं का प्रकाशन अधिकार नहीं छोडूँगी; और यदि मुझे यह योग्य प्रतीत होता तो मैं उनके जीवन काल में ही उन्हें यह ‘ख़ुशी’ दे देती – अधिकार छोड़ देती; मगर उनकी मृत्यु के बाद ऐसा करने से कोई लाभ ही नहीं है...” 16
टॉल्स्टॉय ने इस घोषणा की ओर शायद ध्यान नहीं दिया.
सन् 1906 की पतझड़ में सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना बहुत बीमार हो गईं. तीव्र वेदना के कारण वह सदा चिल्लाती रहतीं. मॉस्को से आए हुए डॉक्टर स्नेगिरेव ने ट्यूमर का निदान किया. यदि फ़ौरन ऑपरेशन न किया गया तो वह मर जाएगी, ऐसा डॉक्टर ने कहा. टॉल्स्टॉय “मृत्यु के महान कार्य की गरिमा और समारंभ को ऑपरेशन द्वारा रोकने का तीव्र विरोध कर रहे थे, मगर उन्होंने कोई भी निर्णय लेने से इनकार कर दिया. ख़ुद बीमार महिला और उसके पुत्रों ने ऑपरेशन की सम्मति दी. प्रोफेसर स्नेगिरेव इस प्रसंग को याद करते हुए कहते हैं :
 “एक बार वे बीमार काऊन्टेस से कहने लगे, “तुम इस तरह से पड़ी हो और घूम-फिर नहीं रही हो और मुझे कमरों में तुम्हारे पैरों की आहट नहीं सुनाई देती, और, तुम्हें मालूम है कि उसे न सुनने के कारण मुझे लिखने और पढ़ने में कष्ट हो रहा है.
 “और उस समय, जब वे ऑपरेशन के बाद उससे मिलते, तो उनकी आँखों में कितनी भावुकता होती थी, और हमेशा व्यंग्य करने वाली आवाज़ में कितनी मार्मिकता!” 17
28 अगस्त 1908 को टॉल्स्टॉय ने अपनी आयु के अस्सी वर्ष पूरे किए. लोगों ने शानदार समारोह आयोजित करने का निश्चय किया. बड़े-बड़े शहरों में समितियाँ बनाई गईं. टॉल्स्टॉय ने इस सबका जमकर विरोध किया और अपने मित्रों से विनती की कि उन्हें इस अप्रिय प्रसंग से बचाएँ. फिर भी दो सप्ताह तक मुबारकबाद और शुभेच्छाओं की बरसात होती रही.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने इस अवसर का लाभ उठाने की सोची और टॉल्स्टॉय की रचनाओं का 20 खण्डों का संकलन प्रकाशित करने का निश्चय किया. इस संकलन में उन रचनाओं को भी शामिल किया जाने वाला था, जिन पर प्रतिबंध लगा हुआ था. इस कार्य के लिए लगभग 50-70 हज़ार रूबल्स की धनराशि की आवश्यकता थी.
परिवार को इस बात का भी पता चला कि टॉल्स्टॉय की सभी रचनाओं के प्रकाशन का एकाधिकार प्राप्त करने के लिए कुछ प्रकाशक अनेक करोड़ स्वर्ण-रूबल्स देने को तैयार थे.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने वकीलों से सलाह-मशविरा किया. उसे यह पता चला कि उसके पास मौजूद समझौते के अनुसार उसे टॉल्स्टॉय की रचनाएँ बेचने का अधिकार नहीं है. यह भी पता चला कि क़ानूनन तैयार किए गए लेव निकोलायेविच के वसीयतनामे में यदि सन् 1881 के पश्चात् लिखी गईं रचनाओं के लेखकीय अधिकार त्यागने की लेव निकोलायेविच की इच्छा शामिल नहीं की गई है तो वह उनकी मृत्यु के पश्चात् निष्प्रभावी हो जाएगी.
अर्थात् काऊन्टेस को ख़ुद ही यह प्रकाशन का काम करना पड़ेगा; मगर मान लें, कि यदि बीच ही में टॉल्स्टॉय की मृत्यु हो जाती है तो उत्पन्न होने वाली अप्रत्याशित परिस्थिति से उसे बचाना भी होगा.
एक नई तरह का वाद-विवाद आरंभ हो गया. चोर्त्कोव के सामने ही ज़ोरदार झगड़ा हुआ. यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि काऊन्टेस टॉल्स्टॉय की इच्छा को ज़रा भी महत्व नहीं देती थीं. उसने यह बात छिपाई भी नहीं कि महान लेखक की मृत्यु के बाद सन् 1881 के पश्चात् लिखी गईं रचनाएँ सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं होंगी. इससे तो चोर्त्कोव के जीवन का लक्ष्य ही ढ़ह जाता. अब उसे सिर्फ कानूनन तैयार किए गए वसीयतनामे का ही सहारा था. देर करना घातक होता. टॉल्स्टॉय जर्जर होते जा रहे थे, और अपने परिवार की भलाई के लिए अपनी ‘इच्छा’ भी छोड़ने को तैयार होते जा रहे थे.
चोर्त्कोव ने बड़ी धूर्तता से अगला क़दम उठाया. सन् 1909 के सितम्बर माह में, जब टॉल्स्टॉय दम्पत्ति उसकी क्रोक्शिनो स्थित जागीर में मेहमान बनकर गए थे, उसने एकांत में टॉल्स्टॉय से कहा कि उसके पुत्र सार्वजनिक उपयोग हेतु दी गईं रचनाएँ निगल जाना चाहते हैं. टॉल्स्टॉय ने कहा, “यक़ीन करने को जी नहीं चाहता.” मगर फिर भी दूसरे दिन उसने ‘वसीयतनामा’ नामक कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए. उसमें यह लिखा गया था कि सन् 1881 के पश्चात् लिखी गईं सारी रचनाओं को वह सार्वजनिक उपयोग हेतु दे रहा है. वसीयतनामे में यह भी लिखा था, “मेरी इच्छा है कि मरणोपरांत मेरी पांडुलिपियाँ एवम् अन्य कागज़ात चोर्त्कोव को दे दिए जाएँ, और वह अभी जिस प्रकार कर रहा है, उसी प्रकार उनका उपयोग करता रहेगा.” 18 चोर्त्कोव के तीनों मित्रों ने इस वसीयतनामे पर गवाहों के रूप में हस्ताक्षर कर दिए.
यह कागज़ एक अनुभवी वकील को दिखाया गया. वकील ने कहा कि क़ानून की दृष्टि से वह सही नहीं है.
चोर्त्कोव और उसके मित्रों ने इस वकील के साथ षड़यंत्र करके नया ‘वसीयतनामा’ तैयार किया. आगामी परिस्थितियों से बचने के लिए चोर्त्कोव की छोटी बेटी अलेक्सान्द्रा ल्वोव्ना को कानूनी वारिस घोषित किया. उसका काम सिर्फ यही होने वाला था कि जिन कागज़ात की, साहित्यिक रचनाओं की चोर्त्कोव को ज़रूरत हो, वे उसे आसानी से उपलब्ध कराए. यह बात भी उस वसीयतनामे में लिखी गई थी. चोर्त्कोव के एक ‘दूत’ ने टहलते हुए टॉल्स्टॉय को बताया, “आपने अपनी ‘इच्छा’ कार्यान्वित करने के लिए कुछ भी नहीं किया. सन् 1891 का आपका घोषणा-पत्र कानूनी न होने के कारण सारे अधिकार वापस आपके परिवार के पास चले गए हैं. आपके मित्रों को इस बात से बहुत दुख हुआ है.”
अब टॉल्स्टॉय ने निर्णय किया कि अपनी समस्त  रचनाएँ अलेक्सान्द्रा ल्वोव्ना (अर्थात् चोर्त्कोव) के कब्ज़े में दे दी जाएँ. यह तो चोर्त्कोव की उम्मीद से भी काफ़ी अधिक था.
आख़िर में जंगल में, एक छोटे से भाग में, 22 जुलै 1910 को पुनः अंतिम वसीयतनामा लिखा गया और उस पर दस्तख़त किए गए.
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को संदेह हुआ कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है: उसकी बेटी और चोर्त्कोव के बीच चर्चाएँ, मुलाक़ातें, ख़तो-किताबत –– इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, अर्थात् ऐसा कुछ था जिसे उससे छुपाना ज़रूरी था. उसका डर और संदेह बढ़ता गया.
उसकी तबियत ख़राब हो गई और उसने तार भेजकर टॉल्स्टॉय को यास्नाया पल्याना बुलवा लिया. वह मानसिक किस्म की बीमारी थी. वह टॉल्स्टॉय पर नज़र रखे हुए थी. छुप छुपकर उसकी बातें सुनतीं, चुपके से कमरे में झाँकती. इधर चोर्त्कोव लेव निकोलायेविच के कान भर रहा था और उन्हें सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना पर दया आ रही थी. गुप्त रूप से बनाए गए वसीयतनामे का बोझ भी मन पर था. 3 अक्टूबर 1910 को उनकी तबियत खूब बिगड़ गई. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ज़रा भी नहीं घबराई. वह टॉल्स्टॉय के पलंग के पास डॉक्टरों की और बच्चों की सहायता कर रही थी. फिर वह उनके सामने घुटनों के बल बैठ गई, उनके पैरों को पकड़ कर, माथा टेककर काफ़ी देर तक वैसी ही बैठी रही. उसे ऐसा लग रहा था कि पति की संभावित मृत्यु के लिए वही ज़िम्मेदार है. फिर भी उसने पति की मेज़ से उसकी कागज़ातों वाली बैग उठा ली. बेटी ने पूछा, “मम्मा, तुम ये बैग क्यों ले रही हो?”
 “चोर्त्कोव न ले ले इसलिए...”
 “टॉल्स्टॉय ठीक हो गया, मगर अत्यंत क्षीण हो गया. उसे मृत्यु की आहट सुनाई दे रही थी और उसे ‘पागलखाने’ से – झगड़ों और घृणा से विषाक्त हो चुके घर से भाग जाना था. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना उसे हमेशा धमकियाँ देती कि यदि वह घर छोड़ कर गया तो अपनी जान दे देगी.
 “28 अक्टूबर की रात को टॉल्स्टॉय की आँख खुल गई. दरवाज़े खुलने और सतर्क क़दमों की आहट आई. उसने अपने अध्ययन-कक्ष की ओर देखा, वहाँ रोशनी थी. कागज़ों की सरसराहट सुनाई दे रही थी. वह समझ गया कि सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना उसके कागज़ात में कुछ ढूँढ़ रही है. कल ही तो उसने कहा था कि वह अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द न करे, अर्थात् उसकी हर हलचल, उसका हर शब्द पत्नी को मालूम होना चाहिए, उसके नियंत्रण में रहना चाहिए. उसे असहनीय घृणा महसूस हुई, भयानक गुस्सा आया. यह सब बड़ा शर्मनाक प्रतीत हुआ. उसने सोने का प्रयत्न किया, मगर नींद नहीं आई. आख़िरकारी मोमबत्ती जलाई और उठकर बैठ गया. सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना फ़ौरन कमरे में आ गई और तबियत के बारे में पूछने लगी.
 “उसका गुस्सा और घृणा चरम सीमा तक पहुँच गए. उसने उसी रात घर छोड़ने का निश्चय कर लिया. उसने जल्दी से पत्नी को पत्र लिखा और अपना सामान भरने लगा. उसने अपने डॉक्टर माकोवित्स्की एवम् अपनी बेटी तथा उसकी सहेली को उठाया.
 “धीरे से उसने पत्नी के शयनगृह का और कॉरीडोर का दरवाज़ा बाहर से भेड़ दिया और धीमे कदमों से वे निकल पड़े. सूटकेस में सामान रखा और सुबह-सुबह 82 वर्ष के इस वृद्ध ने हमेशा के लिए यास्नाया पल्याना को छोड़ दिया. साथ में सिर्फ उसके मित्र डॉक्टर माकोवित्स्की थे.”
क़रीब ग्यारह बजे सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना की आहट सुनाई दी. बेटी उसके सामने आई.
 “पप्पा कहाँ हैं?” घबराई हुई काऊंटेस ने पूछा.
 “पप्पा चले गए.”
 “कहाँ”
 “मालूम नहीं.”
 “ऐसे कैसे मालूम नहीं? क्या हमेशा के लिए चले गए?”
 “उन्होंने तुम्हारे लिए ख़त छोड़ा है. ये लो.”
सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना ने फ़ौरन ख़त पढ़ा:
  “28 अक्टूबर 1910, प्रातः 4.00 बजे
मेरे जाने से तुम्हें दुख होगा, इसके बारे में अफ़सोस है, मगर समझने का और विश्वास करने का प्रयत्न करो कि मेरे सामने अन्य कोई पर्याय ही नहीं था. घर के भीतर मेरी परिस्थिति बिल्कुल असहनीय हो गई थी...मैं इस ऐशो-आराम के जीवन में नहीं रह सकता. अपने जीवन के अंतिम दिन ख़ामोशी और एकांत में बिताना चाहता हूँ. ये बात समझ लो और मेरे पीछे आने की कोशिश न करो; मैं कहाँ हूँ यह जानने के बाद भी.
नई परिस्थिति से निभाने का प्रयत्न करो. मेरे बारे में दिल में अच्छे ही ख़याल रहने दो.
तुम्हारे साथ बिताए 48 वर्षों के लिए आभारी हूँ, और तुम्हें दुख देने के लिए मुझे क्षमा करो.                                     
यदि मुझे कोई संदेश भिजवाना हो तो साशा (अलेक्सान्द्रा) की सहायता लेना. उसे मेरा पता-ठिकाना मालूम रहेगा और वह तुम्हारा संदेश मुझ तक पहुँचा देगी, मगर इस बारे में वह किसी को बताएगी नहीं, क्योंकि उसने वैसी क़सम खाई है.
        
                                          --लेव टॉल्स्टॉय.” 19
        
 “गया, चला गया!” काऊन्टेस चीखी. “मैं उसके बिना जी न सकूँगी, मैं तालाब में कूद जाती हूँ, मुझे बिदा करो!”   
 ख़त ज़मीन पर फेंक कर वह दौड़ते-दौड़ते तालाब की ओर भागी और उसमें कूद गई.
बेटी उसके पीछे भागी. उसने माँ को खींचकर बाहर निकाला. पूरे दिन उस पर नज़र रखी गई. वह पूरी रात उसने रोते हुए गुज़ारी. सुबह डॉक्टर और परिवार के सारे सदस्य यास्नाया पल्याना पहुँच गए.
तब तक लेव निकोलायेविच लेडीज़ मॉनेस्ट्री पहुँच चुके थे. वहाँ उनकी बहन रहती थी, जो ‘नन’ बन चुकी थी. वहाँ अचानक सबसे छोटी बेटी अपनी सहेली के साथ आई. टॉल्स्टॉय आगे की ओर निकल पड़े. पासपोर्ट लेकर यूरोप जाने का उनका विचार था.
 “क्या तुम्हें अपने इस काम पर पछतावा हो रहा है? यदि मम्मा के साथ कुछ अनहोनी हो गई तो क्या इसके लिए तुम ख़ुद को दोषी मानोगे?” बेटी ने पूछा.
 “बिल्कुल नहीं. मेरे सामने कोई और रास्ता ही नहीं था. यदि मम्मा को कुछ हो गया तो मुझे बहुत दुख होगा.”
वे एक दूसरे को ख़त लिखते रहे.
इस डर से कि कहीं पत्नी पीछा न करे, वह रेलगाड़ी से सफ़र करते रहे.
मगर किस्मत ने तो पहले ही उनका भविष्य निर्धरित कर दिया था. सफ़र के दौरान वे बीमार पड़ गए. अस्तापोवो स्टॆशन पर उन्हें उतरना पड़ा. उन्हें निमोनिया हो गया था. स्टेशन मास्टर ने अपना घर उन्हें दे दिया.
सात दिन पश्चात् उनकी मृत्यु हो गई – डॉक्टरों के जमघट के बीच. उनका मित्र चोर्त्कोव, दो बेटियाँ और बड़ा बेटा उनके पास थे. मरणोन्मुख टॉल्स्टॉय ने छोटे बेटों को तार भिजवाया:
 “तबियत सुधर रही है, मगर दिल इतना दुर्बल हो गया है कि मम्मा से मुलाक़ात मेरे लिए मृत्युदायक ही होती.” उन्हें यही डर सता रहा था कि सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना को उनका ठिकाना पता चल जाएगा और वह उनके सामने आकर खड़ी हो जाएगी.
एक बार अपनी बेटी की ओर देखकर वे बोले:
”सोन्या को ख़ूब बर्दाश्त करना पड़ेगा...”
तात्याना ल्वोव्ना ने फिर पूछा,...
 “सोन्या को...सोन्या को ख़ूब बर्दाश्त करना पड़ेगा. हमने एक दूसरे से अच्छा व्यवहार नहीं किया...”
फिर वे कुछ असम्बद्ध सा बड़बड़ाने लगे.
“क्या उसे देखना चाह्ते हो? सोन्या से मिलना चाहते हो?”
वे ख़ामोश ही रहे.
बीच में ही वे चीख़ने लगे, “”निकालो, बाहर निकालो...मेरे पीछे आ रहे हैं...”
अस्तापोवो स्टॆशन पर बहुत अधिक भीड़ थी. सम्वाददाता टॉल्स्टॉय के बारे में और निकट ही खड़े ट्रेन के डिब्बे में रह रही सोफ़्या अन्द्रेयेव्ना के बारे में जानकारी दे रहे थे. वह परिवार के छोटे बच्चों के साथ ट्रेन के डिब्बे में रह रही थी.
एक बेटे के हाथों का सहारा लेते हुए वह स्टेशन मास्टर के छोटे से घर के निकट आती और खिड़कियों की ओर देखती. एक खिड़की का रोशनदान खुलता और उसे लेव निकोलायेविच के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी दी जाती. कुछ देर ठहरकर वह अपने कम्पार्टमेंट में वापस लौट आती और एकांत में अपने बारे में और बेचारे लेवच्का के बारे में रो लेती.
 “डॉक्टरों ने मुझे उसके पास जाने दिया,” सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने लिखा, “जब वह मुश्किल से साँस ले पा रहा था; निश्चल पड़ा था; उसकी आँखें बन्द थीं. मैंने हौले से उसके कानों में कहा, मुझे लग रहा था कि वह अभी भी सुन सकता है, कि मैं उसके पास ही हूँ, अस्तापोवो में, अंत तक उससे प्यार करती रही...याद नहीं कि और क्या क्या कहा मैंने, मगर बड़ी मुश्किल से ली गई दो गहरी-गहरी साँसों ने मेरी बात का जवाब दिया, और फिर सब कुछ शांत हो गया.”
शायद उन्हें अपने अंत का आभास हो गया था.  यह निश्चित रूप से कहा जा सकता हि कि जिस मृत्यु को वह इतने सालों से बुला रहा था और जिसकी गरिमा के इतने गुण गाता रहता था, वह इस बार उसे भयानक और अप्रिय प्रतीत हुई. वे मरना नहीं चाहते थे. मगर सब कुछ बड़े साधारण तरीक़े से हो गया; उसकी कल्पना से भी अधिक सहजता से.
कई वर्षों बाद सोफ्या अन्द्रेयेव्ना ने छोटी बेटी को क्षमा कर दिया.
पति के बारे में बात करते समय वह कहती, “हाँ, 48 साल लेव निकोलायेविच के साथ संसार करती रही, मगर मैं समझ ही नहीं पाई कि वह किस तरह का आदमी है..” 20

संदर्भ

  • यह लेख तिखोन पोल्नेर (1864-1935) की पुस्तक ‘इस्तोरिया अद्नोय ल्युब्वी’ (एक प्रेम की गाथा) के आधार पर लिखा गया है. उद्धरण इसी पुस्तक में उल्लेखित टॉल्स्टॉय की डायरियों से लिए गए हैं.
1.       पोल्नेर तिखोन, इस्तोरिया अद्नोय ल्युब्वी, रोमान गज़ेता, नं. 16, 2004, मॉस्को, पृ. 15

2.       वहीं, पृ. 18

3.       वहीं, पृ. 20

4.       वहीं,, पृ. 24

5.       वहीं, पृ. 29

6.       वहीं,, पृ, 41

7.       वहीं,, पृ. 47

8.       वहीं, पृ. 48-50

9.       वहीं, पृ. 50-51

10.   वहीं, पृ. 51

11.   वहीं, पृ. 51

12.   वहीं, पृ. 51
13.   वहीं, पृ. 52

14.   वहीं, पृ. 73

15.   वहीं, पृ. 73

16.   वहीं, पृ. 73

17.   वहीं, पृ. 74

18.   वहीं, पृ. 77-78

19.   वहीं, पृ. 79

20. वहीं, पृ.79.        
    

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