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बुधवार, 30 जनवरी 2019

किस्सा वापसी का



किस्सा वापसी का
लेखक : सिर्गेइ नोसव 
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास 

कमरा – पत्नी. – पति आता है.

पति: कितना बढ़िया मौसम है! हवा साफ़, आसमान साफ़, बारिश गुज़र गई और अब सितारे दिखाई दे रहे है...क्या तुम्हें याद है, कि शहर में कभी सितारे दिखाई दे रहे हों? दो-तीन नहीं, बल्कि हज़ारों, हज़ारों...
पत्नी : मगर तुम थे कहाँ?
पति (जोश से) : मैं रुदाकोपव के यहाँ था.
पत्नी : आह, हाँ, रुदाकोपव के यहाँ...(मेज़ सजाती है.)
पति : रुदाकोपव के घर गया, और उसका टेलिफोन बिगड़ा पड़ा है, मैं फोन न कर सका...पता है, रुदाकोपव आजकल मिर्द्याखिन पर काम कर रहा है, और हम विभिन्न प्रारूपों पर चर्चा कर रहे थे, बहुत काम की थी ये मुलाकात...
पत्नी : ग्रीशा, मुझे तुमसे कुछ कहना है.
पति : कोई गंभीर बात है?       
पत्नी : एकदम गंभीर.
पति : सुबह तक इंतज़ार कर सकते हैं?
पत्नी : नहीं, इस बातचीत को टाला नहीं जा सकता.
पति : और मुझे ऐसा लगता है, कि किसी भी न टाली जा सकने वाली बातचीत को सुबह तक टाला जा सकता है...मैं समझ रहा हूँ, मुझे देर हो गई, तुम परेशान हो गईं, मैंने फोन नहीं किया, मगर सुबह, तुम ख़ुद ही जानती हो, शाम से ज़्यादा समझदार होती है... हो सकता है, कि सुबह तुम्हारी ये बातचीत उतनी गंभीर नहीं लगेगी...जल्दबाज़ी नहीं मचाएँगे...ठीक है?
पत्नी : मुझे तुमसे एक बेहद ज़रूरी सवाल पूछना है.
पति : ठीक है, पूछो.
पत्नी : सिर्फ तुम टेन्शन मत लेना.
पति : नहीं, मैं टेन्शन ले भी नहीं रहा हूँ. ऐसा क्यों सोचा? मेरे पास छुपाने के लिए कुछ भी नहीं है. मैं ईमानदारी से जवाब दूँगा.
पत्नी : नहीं, मैं देख रही हूँ, कि तुम परेशान हो गए हो.
पति : ऐसा तुम्हें लगता है. पूछो.
पत्नी : सवाल ये है. हैरान मत होनाग्रीशा, तुम क्या कहते, अगर तुम्हें पता चलता...कि हमारी अलमारी में...एक नंगा आदमी छुपा हुआ है?
ख़ामोशी.
पति : ऐसा कैसे?
पत्नी : मतलब, पूरी तरह नंगा नहीं – शॉर्ट्स में है.
पति : शॉर्ट्स में? ख़ैर अगर शॉर्ट्स में...(प्रसन्नता से, राहत महसूस करते हुए.) सही में – शॉर्ट्स में?
पत्नी : हा, मान लो, कि शॉर्ट्स में. तब तुम क्या कहते?
पति: किससे छुप रहे हो?
पत्नी : फ़िलहाल, तुमसे.
पति : मुझसे? क्या ये कोई टेस्ट है?
पत्नी : हाँ. टेस्ट. मैगज़ीन से.
पति : हुम्...मैं क्या कहता?...मैं कहता : “तुम हार गईं, नास्तेन्का!...”
पत्नी : तो ऐसा है. फ़ौरन नास्तेन्का. (कडवाहट से.) बगैर नास्तेन्का के तो काम ही नहीं चलता, है ना?  नास्तेन्का का, हो सकता है, यहाँ कोई काम ही न हो, ये बात दिमाग़ में भी नहीं आती, हाँ? फ़ौरन शक?...
पति : माफ़ करो, मगर उसे अलमारी में छुपाया किसने? क्या तुमने नहीं?
पत्नी : कल्पना करो कि वह ख़ुद ही छुप गया!
पति : बहुत मुश्किल है कल्पना करना.
पत्नी : नहीं तो क्या, क्या मैं – मैं!- मैं छुपाऊँगी नंग़े आदमी को अलमारी में, क्या तुम कल्पना भी कर सकते हो!
पति : मैं कोई भी कल्पना नहीं कर रहा हूँ! तुम मुझ पर ज़बर्दस्ती कर रही हो! मैं तो कोई कल्पना ही नहीं करना चाहता!...मैं क्यों नंगे आदमी की कल्पना करूँ? वो भी अपनी अलमारी में!
पत्नी : ड्राइव करके आए हो. समोसे खाओगे? कह देती हूँ – ठण्डे हो गए हैं.
पति खाता है. बेदिली से.
पति : और मुझे क्या कहना चाहिए था?
पत्नी : कुछ नहीं.
पति प्लेट में काँटा चुभोता है.
पति : कोई बकवास मैगज़ीन पढ़ लेती हो, और कुसूर मेरा है.
पत्नी : तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है, तुम औरों के ही जैसे हो.
पति : और तुम तो किसी के भी जैसी नहीं हो.     
पत्नी : हाँ. ऐसा ही है.
ख़ामोशी.
पति : अगर मैं औरों की तरह होता, तो सीधे उसकी आँख में घूँसा जमाता. और तुम्हें फ्राय-पैन से मारता. (खामोशी. प्यार से.) तो क्या, मुझे क्या कहना चाहिए? “नास्तेन्का, देखो तो, यहाँ कोई है, मुझे नौजवान से मिलवाओ?”
पत्नी : वो नौजवान नहीं है. वो पकी उम्र का मर्द है.
पति : क्या मैं उसे जानता हूँ?
पत्नी : नहीं. तुम उसे नहीं जानते. तुमने “अब्लोम” नाम का उपन्यास नहीं ना पढ़ा है?
पति : मैंने “अब्लोमव” पढ़ा है.
पत्नी : झूठ बोल रहे हो, तुमने तो “अब्लोमव” भी नहीं पढ़ा है. सिर्फ फेंकते हो : मैंने पढ़ा, मैंने देखा, मैं जानती हूँ...आज तुम कहाँ थे?
पति : मैं रुदाकोपव के यहाँ था.
पत्नी : ध्यान से सुनो! बात मत काटो. कल्पना करो : पत्नी पति के घर लौटने की राह देख रही है, पति कहीं मटरगश्ती कर रहा है, रात के दो बजे हैं, दरवाज़े की घण्टी बजती है, शायद पति आया है, भीतर आने देती है, मगर ये कोई पति-वति नहीं, ये कोई और है, शॉर्ट्स में घुस आया और छुपने के लिए जगह माँग रहा है, उसके पीछे पुलिस पड़ी है...
पति : तुम मुझे क्या सुना रही हो? उपन्यास “अब्लोम”?
पत्नी : वैसा ही है ना?
पति : एकदम नहीं.
पत्नी : और मेरी राय में, काफ़ी मिलता-जुलता है. ये ज़िंदगी है, ग्रीशा.
पति : तो फिर वो शॉर्ट्स में क्यों है?
पत्नी : वह नशा-विमुक्ति केन्द्र से भागा है. उस पर अभी भी असर है. समझ रहे हो, - असर? वह होश में तो है, मगर कुछ समझ नहीं पा रहा है, इधर-उधर डोल रहा है, यहाँ-वहाँ कमरे में. अगर बीबी की जगह तुम होते तो क्या करते? सीढ़ियों पर धकेल देते? अधिकारियों के हवाले कर देते?
पति : स्वयम् की ऐसी परिस्थिति में कल्पना करना मेरे लिए मुश्किल है. मगर वह नशा विमुक्ति केन्द्र से भागा क्यों?
पत्नी : क्या तुम हमारे नशा विमुक्ति केन्द्रों को नहीं जानते? फिर भी पूछ रहे हो?
पति : फिर?...सुनो, हमने तय किया था, कि तुम मुझे कभी भी नशा विमुक्ति केन्द्र की याद नहीं दिलाओगी!...ये बहुत पहले हुआ था और सब झूठ था! ...असल में तो नशा विमुक्ति केन्द्र से भागने का ख़याल मेरे दिमाग़ में आया ही नहीं था...पैर पे नंबर लिख दिया, स्ट्रेचर पे डाल दिया...और बस. मैं सो भी गया.
पत्नी : वो तुम थे, और ये वो है. वह उपन्यासकार है. उपन्यास लिखता है! “मेरी मदद कीजिए, मैं – उपन्यास अब्लोम का लेखक हूँ!” ये दमन है, ग्रीशा! और, क्या तुम उसे घर से बाहर निकाल देते?
पति : अब्लोम...(सोच में पड़ गया.) तो फिर? आगे क्या?
पत्नी : आगे घण्टी. मैंने कहा : “पति”.
पति : तुमनेकहा?
पत्नी : हाँ, मैंने – पत्नी की जगह पर मेरी कल्पना करो! मैंने कहा – तुम्हारे बारे में : “ये पति है”. और “पति” शब्द सुनते ही वह ख़ौफ़ से छुप गया!...
पति : अलमारी में!
पत्नी : खैर, आख़िरकार...वहाँ पहुँच गया!
पति : रुको. तुम ये कहना चाहती हो कि इस समय अलमारी में कोई बैठा है?
पत्नी : हो सकता है, बैठा न हो, हो सकता है कि खड़ा हो...
पति : रुको, तुम ये कहना चाहती हो, कि अगर मैं अलमारी खोलूँगा , तो वहाँ कोई होगा?
पत्नी : उपन्यास “अब्लोम” का लेखक.
पति : शॉर्ट्स में?
पत्नी : लगता तो ऐसा ही है.
पति : क्या मैं खोल सकता हूँ?
पत्नी : खोल सकते हो, मगर सावधानी से. इन्सान को डराओ मत.
पति (अलमारी के पास जाता है): तो, खोल दूँ?
पत्नी : अगर तुम भीतर से इसके लिए तैयार हो, तो खोलो. सिर्फ शराफ़त से पेश आना. दादागिरी न करना.
पति : तो, खोल दूँ?
पत्नी : ग्रीशा, मैंने तुम्हें सब समझा दिया है.
पति : तो, वो वहाँ है?
पत्नी : वो वहाँ है.
पति : यहाँ कोई बात है, कोई बात तो है...मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि बात क्या है...तो, मैं खोल रहा हूँ...मगर किसलिए?
पत्नी : ग्रीशा, हमें मिलकर इस समस्या को सुलझाना होगा. तीनों को.
पति : जैसे कोई पहेली है.
अलमारी से दूर हटता है.
पत्नी : तुमने खोली क्यों नहीं?
पति : मैं शायद बेवकूफ़ हूँ, माफ़ करना, मुझे समझ में नहीं आ रहा है. और इसमें हँसने जैसी क्या बात है, क्या पूछ सकता हूँ?
पत्नी : ग्रीशा, वहाँ एक आदमी मौजूद है, जो नशा विमुक्ति केन्द्र से भागा है. वह तुमसे डर गया और छुप गया. मैं उसे रोक न सकी. उसे मदद की ज़रूरत है!
पति : ये मज़ाक की बात है?
पत्नी (चिड़चिड़ाते हुए) : ये मज़ाक की बात नहीं है. और हो सकता है, मज़ाक की बात भी हो. जिसे जैसा लगे. मुझे नहीं मालूम. उसे मज़ाक नहीं लगता, मगर मुझे मज़ाक लगता है. मुझे ये मज़ाक लग रहा है, कि तुम मुझ पर विश्वास नही कर रहे हो.
पति (अविश्वास से मुस्कुराता है) मज़ाक कर रही हो...ये क्या बात हुई : “उसे मदद की ज़रूरत है”? और मैं नहीं खोल रहा हूँ!...नहीं, नहीं, नहीं खोलूँगा...तुम इससे कुछ कहना चाहती हो...चाहती हो – तो कहो!...ये कहना चाहती हो, कि मैं रुदाकोपव के यहाँ नहीं था?
पत्नी : यहाँ रुदाकोपव कहाँ से आ गया? मुझे गुस्सा न दिलाओ.
पति : मगर मैं रुदाकोपव के यहाँ था. उसे फोन कर सकती हो. असल में, वह सो भी गया होगा, शायद.
पत्नी : और उसका फोन काम नहीं कर रहा है!...ग्रिगोरी, तुम मुझ पर विश्वास ही नहीं करते, कि अलमारी में उपन्यास का लेखक है?
पति : किसलिए? विश्वास करता हूँ.
पत्नी : नहीं, तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते!
पति : ये तुम ही मुझ पर विश्वास नहीं कर रही हो!
पत्नी : तुमने खा लिया? अगर खा चुके हो, तो प्लीज़ सोने के लिए जाओ. तुम अव्वल दर्जे के बेवकूफ़ हो.
पति : क्या वह यहाँ रुकेगा?
पत्नी : घबराओ नहीं, मैं उसे छोड़ दूँगी.
पति : शॉर्ट्स में?
पत्नी : मैं उसे तुम्हारी पतलून दूँगी. बाद में वापस कर देगा.
पति : तो तुमने उसे फ़ौरन ही मेरी पतलून क्यों नहीं दी.
पत्नी : नहीं दे पाई.
पति : समझ गया, तुम भी समझ लो, प्यारी, तुम्हें ये जानना ही चाहिए : नशा विमुक्ति केन्द्र से भागना नामुमकिन है!
पत्नी : बहादुरी शहर जीत लेती है!
पति : नहीं, प्यारी. जेल से भागना आसान है, बनिस्बत नशा विमुक्ति केन्द्र से!
पत्नी : इस बारे में मैं तुमसे और कोई बात नहीं करना चाहती.
पति : बेशक, वह मुझसे बात नहीं करना चाहती!...तुम मुझे हमेशा किसी न किसी बात से ताने देती हो. मगर मैं एहसानमन्द रहूँगा, अगर अपनी बात सीधे-सीधे कहो और बगैर कोई रूपक इस्तेमाल किए. रुदाकोपव...
पत्नी : ख़ामोश! मैं ये नाम भी नहीं सुनना चाहती!
दरवाज़े की घंटी बजती है.
पति : वाह!...इस वक्त कौन हो सकता है... (पुलिस वाले को अंदर आने देता है.)
पुलिस ऑफिसर : सीनियर लेफ्टिनेन्ट ज़्द्रावामीस्लव. आराम से खाना खाइये. ऐसे घुस आने के लिए मुझे माफ़ करें. उम्मीद है, मैंने किसी की नींद तो नहीं ख़राब की? नमस्ते, मैडम. (पति से.) मानव जाति के आधे बेहतरीन हिस्से के प्रतिनिधि को मैं आम तौर से “मैडम” कहकर संबोधित करता हूँ, अगर हालात प्राइवेट हों तो. आप, शायद, मुझसे बहस नहीं करेंगे, जहाँ तक शिष्टाचार का संबंध है, हमारी भाषा उतनी बढ़िया नहीं होती.
ख़ामोशी.
आपको फ़ौरन आगाह करता हूँ कि मेरा यहाँ आना पूरी तरह गैर-सरकारीहै, और आप हमारी बातचीत को किसी भी पल रोक सकते हैं. इस समय मैं अपनी व्यक्तिगत हैसियत से आया हूँ, मगर फिर भी मैं आपसे समझदारी और समर्थन की उम्मीद करता हूँ.
ख़ामोशी.
 ऐसा मत सोचिये, कि आप पर कोई इल्ज़ाम लगा रहा हूँ, अपने दिल में कोई अपमान या दुर्भावना छुपाए हूँ. बिल्कुल नहीं! बल्कि, इन्सान होने के नाते मुझे आपकी परिस्थिति का अंदाज़ है, मगर जिस टीम का मैं प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ, उसमें ख़ुद को रख कर देखिए.
ख़ामोशी.
पति : ये और कौन सी टीम है?
पुलिस ऑफिसर : नशा विमुक्ति केन्द्र नं. 2 के कर्मचारियों की टीम.
ख़ामोशी.
पत्नी : नहीं, नहीं, ये कोई ग़लतफ़हमी हुई है!
पुलिस ऑफ़िसर : सिर्फ मुझसे तलाशी का वारन्ट न पूछिये, मैडम! कोई ऑर्डर नहीं, कोई गवाह नहीं! मैं आपके आपके पास इस तरह आया हूँ, जैसे एक इन्सान दूसरे इन्सान के पास आता है. और ये कोई मुहावरा नहीं है!
पति : इसे क्या चाहिए?
पत्नी : समझ नहीं पा रही हूँ!
पुलिस ऑफिसर : अफ़सोस है, कि आप समझ रही हैं, मैडम, आपको निराश करूँगा, मगर आपको मेरी परेशानी की वजह के बारे में काफ़ी जानकारी है, और मैं आपसे समझदारी से काम लेने की विनती करता हूँ! आपको मालूम है, कि मैं किस बारे में कह रहा हूँ, और आप भी.
पति : वो किस बारे में बात कर रहा है? किस बारे में?
पत्नी : आप गलत क्वार्टर में आ गए हैं!
पुलिस ऑफ़िसर : बिल्कुल नहीं! हमारी सारी सूचनाओं के अनुसार वह यहीं छुपा है. नहीं, नहीं, ये कोई तरीका नहीं है – आपने एक कथित पीड़ित व्यक्ति को आश्रय दिया है! मगर बात ये है, कि ख़तरा – काल्पनिक है, चाहे जैसे देखिए, सभी पहलुओं से. और मैं इसलिए यहाँ हूँ, कि आप काल्पनिकता में विश्वास करें!
पति : किस व्यक्ति को?
पत्नी : उसकी बात मत सुनो!
पति : उसने कहा, कि तुमने आश्रय दिया है – किसे?
पुलिस ऑफिसर : येव्गेनी देनीसविच हुंग्लिंगेर को, जो हमारे नशा विमुक्ति केन्द्र के अस्पताल से भागा है.
पत्नी : बकवास!...पागलपन!...मैं किसी हुंग्लिंगेर को नहीं जानती!
पति (संदेह से). ये वही तो नहीं, जिसने “अब्लोम” उपन्यास लिखा है?
पुलिस ऑफिसर : आहा! मतलब, जानते हैं!
पत्नी : ग्रीशा, चुप रहो!...तुम अपनी जानकारी से क्या गड़बड़ कर रहे हो! क्या तुमने “अब्लोम” पढ़ा है? नहीं पढ़ा! जब नहीं पढ़ा, तो चुप हो जाओ!...
पुलिस ऑफिसर: अगर आप ये सोच रहे हैं, कि येव्गेनी देनीसविच के ऊपर बल प्रयोग किया गया है, तो ये गलत है. मैं छुपाऊँगा नहीं, हमारे यहाँ गरम दिमाग वाले लोग होते हैं. मगर इस मामले में वह किसी के भी उकसाए बगैर भाग गया, हमारे विश्वास को तोड़ा है, वो भी उस समय, जब लोगों के प्रवेश कक्ष का दरवाज़ा एक अन्य क्लाएन्ट को भीतर लाने के लिए खुला था. मेरी बात समझिए, ये आपात स्थिति है. ऐसा कभी नहीं हुआ था! उसके कागज़ात, कपड़े, अपूर्ण उपन्यास की पाण्डुलिपि वाला बैग, उसकी घड़ी – ये सब हमारे पास रह गया. अगर मैं येव्गेनी देनीसविच को हमारे नशा विमुक्ति केन्द्र में वापस नहीं लौटाऊँगा, तो कल मेरी गर्दन मरोड़ दी जाएगी. हम सभी के सिरों पर पड़ेगी. (चिल्लाता है.) येव्गेनी देनीसविच! मुझे मालूम है, कि आप यहाँ हैं! मैं पूरी जवाबदेही से सूचित करता हूँ, कि आपको कोई ख़तरा नहीं है! फ़ौरन बाहर आ जाइए!
ख़ामोशी.
पत्नी : देखा, कोई भी नहीं है.
पुलिस ऑफिसर : मुझे यकीन है, कि वो यहीं है. (चिल्लाता है.) येव्गेनी देनीसविच! येव्गेनी देनीसविच!
ख़ामोशी. सब ख़ामोशी में गौर से सुनते हैं.
पति (अचानक): कहीं आप ये तो नहीं कहना चाहते, कि आपकाक्या नाम है...येव्गेनी देनीसविच मेरी अलमारी में छुपा है?
पत्नी : ग्रिगोरी! गड़बड़ मत करो!
पुलिस ऑफ़िसर : मगर अलमारी में क्यों? मेरा ख़याल है, कि मोटे तौर पर उसे दूसरे कमरे में होना चाहिए. हद से हद सबसे आख़िरी कमरे में परदे के पीछे खड़ा होगा – पलंग के नीचे छुपा होगा. मगर अलमारी में ही क्यों? हर चीज़ को अजीब नहीं बनाना चाहिए.
पति (पत्नी से) : मतलब, अलमारी में कोई नहीं है?
पत्नी : अरे, ये क्या अलमारी, अलमारी की रट लगा रखी है! वाकई में, नहीं है! अलमारी में भला कौन हो सकता है? (पुलिस वाले से) मेरे पति को कुछ भी मालूम नहीं है, वो अभी-अभी आया है, वह घर पे नहीं था. ग्रीशा, जाओ, अपनी टाँग न अड़ाओ.
पुलिस ऑफिसर : आप घर पे नहीं थे? आप अभी-अभी आये हैं? तो आप कुछ नहीं जानते?
पति: मैं रुदाकोपव के यहाँ था. वैसे, आपके सामने मुझे सफ़ाई देने की कोई ज़रूरत नहीं है. और वैसे भी, आपके डॉक्यूमेन्ट्स, कॉम्रेड!
पुलिस ऑफिसर : प्लीज़...(पत्नी से मुख़ातिब होते हुए पति को देता है.) माफ़ कीजिए, मैडम, भीतर आते ही मुझे फ़ौरन डॉक्यूमेन्ट्स दिखाने चाहिए थे. (पति से). मतलब, आप रुदाकोपव के यहाँ थे?
पत्नी : ग्रीशा, डॉक्यूमेन्ट्स लौटा दो. जाओ, मैं ख़ुद ही देख लूँगी.
पति (ग़ौर से डॉक्यूमेंट्स देखते हुए). : नहीं...यहाँ सब कुछ ठीक नहीं है. मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ, कुछ ठीक नहीं है. अलमारी, अलमारी...
पुलिस ऑफ़िसर (लेते हुए) : और जहाँ तक अलमारी का ताल्लुक है, ये बेहद मासूम तरीका है. वहाँ से ध्यान हटाइए, आदरणीय महोदय. और क्या मैं आपके डॉक्यूमेंट्स देख सकता हूँ?
पति : ठेंगे से! मैं अपने घर में हूँ!
पुलिस ऑफिसर : बढ़िया. मैं ज़ोर नहीं दूँगा. आप – घर में हैं. आपकी पतलून बहुत छोटी है, यही बात गड़बड़ है. देखिए, मैडम.
पति : ये क्या कहना चाहता है! क्या तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है?
पुलिस ऑफिसर : आपकी पतलून आपके लिए छोटी है, इससे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ, आपकी पतलून आपकी नहीं है.
पति (जल्दी से) : तो फिर किसकी है?
पुलिस ऑफिसर : मैडम?
पत्नी : ये मेरे पति की पतलून है.
पुलिस ऑफिसर : यही तो मैं सुनना चाहता था! आपने मैडम के पति की पतलून पहनी है!
पति : मैडम का पति – मैं हूँ!
पुलिस ऑफिसर : मज़ाक मत कीजिए.
ख़ामोशी. पति-पत्नी की जैसे बोलती बंद हो गई – वे चौंक गए हैं. पुलिस ऑफिसर कमरे में चक्कर लगा रहा है.
वाकया सचमुच में असाधारण है. मगर मैंने हर बात पर विचार कर लिया है. अपने धीमेपन के समर्थन में, मैडम, मुझे आपको बताना पड़ेगा, कि आम धारणा के विपरीत, कानून प्रवर्तन विभाग के कई लोग चेहरों को अच्छी तरह याद नहीं रख सकते. अफ़सोस की बात है, कि मैं उनमें से एक हूँ. बड़े-बड़े डिपार्टमेन्टल स्टोर्स के विक्रेताओं में भी ऐसी ही बात देखी जाती है. चेहरों के निरंतर प्रवाह के कारण, जो आँखों के सामने से गुज़रते हैं, मस्तिष्क के आवरण के कुछ हिस्सों पर दबाव पड़ता है, जो स्मरण शक्ति से संबंधित होते हैं. कुछ और भी बताऊँगा, हमारे पेशे के आधिकारिक प्रतिनिधियों के लिए आदमी का चेहरा – सबसे महत्वपूर्ण नहीं होता. ख़ैर, आप कपड़े उतारिये, शॉर्ट्स तक, और मुझे एक पल के लिए भी शक नहीं होगा. ये आप हैं या आप नहीं हैं. आप! आप रुदाकोपव के यहाँ नहीं थे!
पति : तो फिर मैं कहाँ था!
पुलिस ऑफिसर : आप नशा विमुक्ति केंद्र में थे. हमारे!
पति : फ़ौरन यहाँ से दफ़ा हो जाइए!
पुलिस ऑफिसर ( समर्थन की आशा में) : मैडम?
पत्नी : नहीं, ये, सचमुच में ग़लतफ़हमी हुई है...
पुलिस ऑफिसर (तिरस्कार से सिर हिलाते हुए) : मैडम...क्या मैंने आप पर कोई आरोप लगाया है? आपने इन्सानियत से काम लिया है.
पति : वह पागल है!
पुलिस ऑफ़िसर : आप, ना कि मैं, ये आप हैं, येव्गेनी देनीसविच, आपने ऐसा बर्ताव किया, जैसे पागल हों! कहीं किसी ने आपको धमकी तो नहीं दी? कहीं आपने ये तो नहीं सोच लिया कि आपको मारेंगे?...हम, काफ़ी हद तक, कानून पसंद देश में रहते हैं!... चलिए, शांति से, शांति से, सब पीछे छूट गया है...दोस्त बनेंगे...चलिए, चलिए...हमारा इंतज़ार हो रहा है...
पति : नहीं जाऊँगा!...कहीं नहीं जाऊँगा!...
पुलिस ऑफिसर : मैं विनती करता हूँ...मैं विनती करता हूँ आपकी, जैसे एक पाठक, अगर आप चाहें तो, लेखक की करता है...प्लीज़...आप कुछ देर वहाँ रहेंगे, और फिर हम आपको छोड़ देंगे. आपको कुछ देर के लिए वहाँ रहना होगा. वर्ना – अजीब बात हो जाएगी.
पति : नास्त्या, नास्त्या...
पत्नी : ग्रीशा, एक तरह से वह ठीक ही है...शायद, जाना तुम्हारे लिए बेहतर होगा, तुम्हारा क्या ख़याल है?...
पति : कहाँ?
पत्नी : अरे, वहाँ...कहाँ, ये महत्वपूर्ण नहीं है...ग्रीशा, मैं तुम्हारी मदद करूँगी, तुम डरो नहीं, जाओ. तुम मुझ पर विश्वास करते हो? या नहीं करते?
पति : मुझे कहीं जाने की ज़रूरत क्या है?
पत्नी : अरे, तुम समझ क्यों नहीं रहे हो, कि क्यों जाना चाहिए? या तो तुम, या तुम नहीं...चलो, स्वार्थी मत बनो. जाओ भी. ये ज़रूरी है.
पति : मैं तुम्हारा पति हूँ. नास्त्या! मैं होशो-हवास में हूँ!
पत्नी : ये तो और भी अच्छा है, तुम्हें किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं है.
पुलिस ऑफिसर : मैडम, वादा करता हूँ, आपके पति के कपड़े हम आपको लौटा देंगे.
पत्नी : मुझ पर यकीन करो, मेरे प्यारे, और हमारी अंतरात्मा साफ़ रहेगी...(पति को चूमती है.)
पुलिस ऑफिसर : कसम खाता हूँ, मैडम, येव्गेनी देनीसविच का एक बाल भी बांका नहीं होगा!
पति : मैं येव्गेनी देनीसविच नहीं हूँ! मैंने “अब्लोम” उपन्यास नहीं लिखा है!
पुलिस ऑफ़िसर (व्यंग्य से) : हाँ, बेशक, आप रुदाकोपव के यहाँ थे.
पति : मगर, मैं अलमारी में तो नहीं हूँ! नास्त्या, आखिर मैं अलमारी में नहीं हूँ ना?!
पुलिस ऑफिसर : चलिए, चलिए, वहाँ फैसला कर लेंग़े.
ले जाता है.
पत्नी अलमारी के पास भागती है. दरवाज़ा छूती है            
पत्नी : येव्गेनी देनीसविच...येव्गेनी देनीसविच! ...आप बच गए!

अंत का एक और विकल्प
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पुलिस ऑफिसर : वैसे आपकी पतलून आपके लिए छोटी है, यही परेशानी की बात है. देखिए, मैडम.
पति : ये क्या बकवास कर रहा है! तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है?
पुलिस ऑफिसर : आपकी पतलून आपके लिए छोटी है, इससे मैं ये निष्कर्ष निकालता हूँ, कि आपकी पतलून आपकी नहीं है.
पति (फ़ौरन): तो फिर किसकी है?
पुलिस वाला : मैडम?
पत्नी : रुको, प्यारे, मगर ये पतलून, वाकई में तुम्हारी नहीं है!
पति : क्या वाकई में?
पत्नी : ये रुदाकोपव की पतलून है!
पति : ये हो ही नहीं सकता!...मुझे पता नहीं, ऐसा कैसे हो सकता था...
पत्नी : तो तुम रुदाकोपव के यहाँ थे?
पति : हाँ...मगर...
पत्नी : क्या तुम सचमुच में रुदाकोपव के यहाँ थे???
पति : नास्तेन्का...मैं...था रुदाकोपव के यहाँ...मगर इसका ज़रा भी वो मतलब नहीं है, जो तुम सोच रही हो...
पुलिस ऑफ़िसर : ये हमारे नशा विमुक्ति केंद्र में थे!
पत्नी : मुझे कहानियाँ न सुनाइये! मुझे मालूम है, कि वह कहाँ था!
पति : (अनमनेपन से). असल में...मैं नशा विमुक्ति केंद्र में था...
पुलिस ऑफिसर : मैंने क्या कहा था!...चलिए, येव्गेनी देनीसविच!
पत्नी : ये कहाँ से येव्गेनी देनीसविच हो गया?
पति : नास्तेन्का...ये सही है...मैं सचमुच में नशा विमुक्ति केंद्र में था...और तुम, नास्तेन्का, कहाँ का रुदाकोपव?... मैं मज़ाक कर रहा था... मैं रुदाकोपव के यहाँ नहीं था...
पत्नी : थे! थे! थे!
पुलिस ऑफिसर : मैडम, कसम खाता हूँ, मैडम, येव्गेनी देनीसविच हमारे नशा विमुक्ति केन्द्र में थे. परेशान न हों, मैडम, हम आपके पति के कपड़े आपको लौटा देंगे. चलिए, चलिए...
पति (फ़ौरन) : हाँ, बेशक...चलिए, चलें...
दोनों चले जाते है.
पत्नी अलमारी की ओर लपकती है.
पत्नी (रोते हुए) : येव्गेनी देनीसविच...येव्गेनी देनीसविच...आप बच गए!

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बुधवार, 16 जनवरी 2019

डेढ़ खरगोश




डेढ़ खरगोश
लेखक: सिर्गेइ नोसव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


मौसम नहीं, बल्कि ये एक दहशत थी. ख़ासकर हवा.
बस स्टॉप से लाइब्रेरी की दूरी करीब दो सौ मीटर्स थी, छत्री टूट ही जाती. रुदाकोव ने सिर पे हुड खींच लिया, सीने से ठोड़ी चिपका ली. वादा की गई बारिश के बदले चेहरे पर बर्फ की मार पड़ रही थी – नुकीली, काँच की धूल जैसी. गर्मियों के कपड़ों वाली दुकान के शो-केस में दो पुतले मुश्किल से अपनी दुर्भावनापूर्ण हँसी रोक रहे थे – वहाँ, भीतर, उनके यहाँ स्वर्ग था.
उसके सड़क पार करने से पहले ही लोगों ने उसे देख लिया. माग्दा वसील्येव्ना उसका स्वागत करते हुए, सावधानीपूर्वक खुले हुए दरवाज़े को पकड़े रही – वह बगैर कोट के, सिर्फ लाल ड्रेस पर ऊनी शॉल बांधे बाहर आई थी. रुदाकोव ने अपनी चाल तेज़ की, फिर वह दौड़ने ही लगा.
“हमने सोचा, कि आप नहीं आयेंगे.”
भीतर जाते हुए जैसे उसे बेदर्द नज़र से नोंचा. मगर वह असभ्य नहीं दिखना चाहता था.
“क्या कोई आया भी है?” रुदाकोव भर्राया.
“ऐसा कैसे!”
और वाकई में कॉन्फ्रेन्स हॉल में कुछ लोग बैठे थे, प्रवेश कक्ष से रुदाकोव उनकी संख्या के बारे में सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था. वह अपना जैकेट उतार रहा था – मतलब वहीं लटका रहा. परिस्थिति को देखते हुए, उसे अभी टी.वी. वालों से भी निपटना था.               
उनकी उपस्थिति से उसे सचमुच बहुत आश्चर्य हुआ. कैमेरा यहीं, प्रवेश द्वार के पास ही लगाया गया था. स्थानीय चैनल, सोमवारीय सांस्कृतिक घटनाओं की समीक्षा.
“ये बस, थोड़ी देर का काम है,” माग्दा वसील्येव्ना ने रुदाकोव के चेहरे की प्रसन्नता को न समझते हुए कहा.
“मैं टी.वी. नहीं देखता,” रुदाकोव ने उन दोनों से कहा.
“हम भी,” उनमें से एक ने माइक्रोफोन से उलझते हुए जवाब दिया.
वो ऑपरेटर था, दूसरा – प्रश्नकर्ता (फ्रेम में उसे आना नहीं था, वह कैमरे के बाईं ओर खड़ा था).
पहले ने कहा : “शुरू करते हैं”, दूसरे ने पूछा:
“ये तो बताइये, कि आपको यह किताब लिखने के लिए किस बात ने प्रेरित किया?”
“किस बात ने प्रेरित किया?” रुदाकोव ने गला साफ़ करके सवाल दुहराया. “जो लिखा, उसीने प्रेरित किया.” उसने इसी तरह के कुछ और वाक्य भी कहे.
प्रश्नकर्ता ने अपनी नाक के सामने हाथ से इशारा किया, कि रुदाकोव उसकी ओर देखे, न कि छत की ओर. रुदाकोव के हर वाक्य के साथ वह सहमतिदर्शक अंदाज़ में सिर हिला देता था – शायद, उनके इन्स्टीट्यूट्स में ये सिखाया जाता है.
“कृपया अपनी किताब का शीर्षक समझाइए.”
“मतलब आपने उसे नहीं पढ़ा है,” रुदाकोव ने कनखियों से देखते हुए कहा.
“यहाँ डेढ़ किसलिए है?”
“नहीं पढ़ी,” रुदाकोव ने दुहराया.  
“ईमानदारी से कहूँ, तो अभी तक नहीं. मगर ज़रूर पढूँगा.”
“हर इन्सान को, जिसने मेरी किताब पढ़ी है, मैं समझता हूँ, कि शीर्षक समझ में आ गया है. मगर, यदि ज़रूरी है, तो समझाता हूँ.”
वह समझाता है.
“आधुनिक साहित्य के बारे में आपका क्या ख़याल है?”
रुदाकोव ने गहरी साँस ली. कुछ देर ख़ामोश रहा. माथे पर बल डाले. अनिच्छा से समझाने लगा कि आधुनिक साहित्य के बारे में वह क्या सोचता है. ख़ास, कुछ नहीं. मतलब जैसे कुछ भी नहीं. मतलब यूँ ही. यूँ ही, बस.”
“बहुत-बहुत धन्यवाद.”
माग्दा वसील्येव्ना, जो सौजन्यवश शूटिंग के दौरान गायब हो गई थी, फिर से प्रवेश-कक्ष में प्रकट हुई. रुदाकोव के साथ कॉन्फ्रेन्स हॉल में आते हुए, उसने उत्सुकता दर्शाई : “पसन्द नहीं है?” रुदाकोव ने सवालिया नज़र से देखा. माग्दा वसील्येव्ना ने सवाल स्पष्ट किया : “वो, इंटरव्यू देना...” ख़यालों में ही जवाब देते हुए रुदाकोव चुप रहा. “शायद, नींद पूरी नहीं हुई”, उसने अंदाज़ लगाया. एक साथ भीतर आए.
कॉन्फ्रेन्स हॉल बड़ा नहीं था – सिर्फ कमरा था.
दस से ज़्यादा’, रुदाकोव ने अंदाज़ लगाया किया.
दस से ज़्यादा लोगों ने धीरे से रुदाकोव का स्वागत किया, और उसने उनका.
माग्दा वसील्येव्ना के साथ मेज़ के पीछे बैठा.
पाठकों में सभी महिलाएं. सिर्फ एक पुरुष.
माग्दा वसील्येव्ना ने रुदाकोव का परिचय दिया. बोली:
“बुरे मौसम के बावजूद हॉल करीब-करीब पूरा भरा है.
ग्यारह’, रुदाकोव ने गिना.
खाली जगह वाकई में नहीं थी – शायद, लोगों की संख्या के अनुमान से कुर्सियाँ लाई गई थीं. बारहवाँ आयेगा – कुर्सी लाएँगे.
माग्दा वसील्येव्ना ने रुदाकोव के और उसकी मशहूर किताब के बारे में बताया. वह तैयारी करके आई थी.
रुदाकोव को ऐसा लगा कि यहाँ आधे से ज़्यादा लाइब्रेरी के कर्मचारी हैं. मगर, बाहर वाले लोग भी थे.
टी.वी. वाले भी अंदर आए, बेलिन्स्की की फोटो के नीचे उन्होंने अपना इंतज़ाम कर लिया. माग्दा वसील्येव्ना की रुदाकोव के साथ फोटो ली, देखने और सुनने के लिए आए हुए लोगों की भी फोटो ली. फिर – ख़ास तौर से रुदाकोव की किताब की, जिसे दर्शकों के सामने मेज़ पर रखा था. कवर दर्शकों के सामने था.
करीब दस मिनट बाद अपने कैमेरे के साथ वे वहाँ से चले गए, और माग्दा वसील्येव्ना, उनके जाने के बाद भी बोलती रही. उसने बहुत अच्छी तैयारी की थी.
रुदाकोव, शायद, उसके भाषण को दुहरा नहीं सकता था.
यहाँ दो हफ़्तों में एक बार लेखकों से मुलाकातों का आयोजन किया जाता है.
रुदाकोव ने अपनी पहली किताब प्रकाशित की थी. बसन्त में ही. आखिरी बार यहाँ आया था – नवम्बर में – हास्य लेखक उबोयनव.
अगर दूसरी तरफ़ से देखा जाए, तो लेखक के साथ मुलाकात, मतलब पाठकों के साथ मुलाकात ही तो होती है; यहाँ रुदाकोव से तात्पर्य है.
पाठकों के चेहरे से रुदाकोव समझ नहीं पा रहा था, कि उन्हें माग्दा वसील्येवा को सुनते हुए उकताहट तो नहीं हो रही है.
उसके लिए तालियाँ बजाई गईं.
बारहवाँ नहीं आया.
रुदाकोव ने अपनी लघु-रचनाएँ पढ़ना शुरू किया. उसने उन्हें परी-कथाओं का नाम दिया था. आलोचक रुज़ोव्स्की की राय में, जिसने गर्मियों के आरंभ में रुदाकोव की किताब की आलोचना प्रकाशित की थी, रुदाकोव की शैली में एक ख़ास लय है, संक्षिप्तता उसकी विशेषता है.
उसे उत्साहपूर्वक सुनते रहे, कभी कभी हँस भी देते.
रुदाकोव की रचनाओं में सबसे संक्षिप्त कहानी का शीर्षक था “व्वा”.
व्वा
भटकता जंगल में, छूता न किसी को. अचानक:
“भागा दूर मैं दादी से, दादा से, हिरन से, भेड़िए से, और तुझसे भी, ऐ रीछ, भाग ही जाऊँगा!”
झाड़ियों में कुछ लुढ़का.
व्वा, सोचता हूँ.
लकड़ी की क्यों है? ज़िंदा को बूढ़े ने काट दिया...
मैं उसकी ओर : चर्र, चर्र. देखा, मेरा पंजा उबल रहा बर्तन में, रोंएँ बिखरे हैं – मतलब, बुढ़िया ने नोच लिया. छुप गई भट्टी पे, सोचती है, मुझे पता नहीं चलेगा, और बुढ़ऊ घुस गया टब के नीचे.
खा डाला मैंने उन्हें.
ऐह, सोचता हूँ.
“बस, इतना ही?”
“इतना ही,” रुदाकोव ने कहा.
उसके लिए तालियाँ बजाई गईं.
“इस पाठ की विशेषता है – उसकी लम्बाई, बहत्तर शब्द.” रुदाकोव ने कहा. “मेरी तीन कहानियाँ बहत्तर शब्दों की हैं. डिट्टो.”
“कितना दिलचस्प है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
सवाल पूछने लगे.
रुदाकोव से पूछा कि उसे लेखक बनने की प्रेरणा कैसे मिली. और किताब के शीर्षक का क्या अर्थ है. यहाँ खरगोश किसलिए? और आधुनिक साहित्य के बारे में वह क्या सोचता है.
पूछा, कि उसकी लिखने की मेज़ पर अभी कौन सी किताब है. और एक निर्जन टापू पर वह कौन सी तीन किताबें ले जाना चाहेगा.
उबासी रोकने में वह कामयाब हो गया. उसने फ़ैसला किया : लाइब्रेरी की हर कर्मचारी को कम से कम एक सवाल पूछने पर मजबूर किया गया, वर्ना तो इतने सवाल हो ही नहीं सकते थे. मगर, जल्दी ही उसे यकीन हो गया : बात इसके विपरीत है. यहाँ सवाल मजबूरी में नहीं, बल्कि किन्हीं अस्पष्ट कारणों से पूछे जा रहे हैं. शायद, इसलिए, कि बाहर नहीं निकलना चाहते, रुदाकोव ने सोचा. वह ख़ुद भी नहीं चाहता था.
कोट-पैन्ट पहनी एक भारी-भरकम महिला ने रुदाकोव से आधुनिक इन्सान के रहस्य के बारे में पूछा. उसने कहा:
“मेरा ख़याल है कि आधुनिक इन्सान के पास कोई रहस्य नहीं है. इसलिए उसके बारे में लिखना या पढ़ना दिलचस्प नहीं है. आपका क्या ख़याल है?”
रुदाकोव का कुछ और ख़याल था. इन्सान ख़ुद ही एक रहस्य है. मगर रहस्य क्या है?’ रुदाकोव सोच रहा था. और इन्सान क्या है?’ सबको सोचने के लिए कहा.
रुदाकोव से पूछा : हाँ, इन्सान क्या है?
और आधुनिक इन्सान सामान्य रूप से इन्सान से किस तरह भिन्न है?
और : इन्सानियत कितने समय तक रहेगी, रुदाकोव से पूछा.
और क्या ख़ुदा है, रुदाकोव से पूछा.
उससे पूछा, कि क्या “कुछ नहीं” का अस्तित्व है – अंशतः वहाँ, जहाँ “कुछ नहीं” होता, और, अगर कुछ नहीं” का फिर भी अस्तित्व है, तो उसे “कुछ नहीं” कहना और इसीसे उसे कोई अर्थ प्रदान करते हुए, क्या हम “कुछ नहीं” को “कुछ” में परिवर्तित करते हैं?
“आप बड़ों के लिए लिखते हैं, मगर भाषा पर काफ़ी नियंत्रण रखते हैं. आपकी किताब में अश्लील शब्द क्यों नहीं हैं?”
इस बात में एक अधेड़ उम्र की महिला को दिलचस्पी थी, जिसने बेमौसम काला चष्मा पहना था.
“क्या होने चाहिए?” रुदाकोव ने पूछा.
“नहीं, मैं इस बात पर ज़ोर नहीं दे रही हूँ, कि आपकी किताब में कदम-कदम पर गालियाँ हों, मगर पूरी तरह से उनकी अनुपस्थिति आँखों में खटकती है...या आपको ये स्वाभाविक लगता है?”
“मैंने इस बारे में नहीं सोचा,” रुदाकोव हौले से बुदबुदाया.
अश्लील शब्दों पर बहस बीच-बीच में हॉल को उत्तेजित कर जाती थी; रुदाकोव अडियलपन से ख़ामोश रहा.
“देख रहे हैं, आपका लेखन कैसी बहस पैदा करता है.” माग्दा वसील्येव्ना फुसफुसाई.
निरर्थकता के बारे में बात चल पड़ी. निरर्थकता के बारे में रुदाकोव क्या सोचता है? इस बारे में दिलचस्पी थी एक चौखाने वाले जैकेट के मालिक को, जो, अगर रुदाकोव को छोड़ दें, तो उस कमरे में अकेला मर्द था. उसने महान निरर्थकतावादियों के नाम गिनाए, जो दुनिया भर में मशहूर हैं. क्या इस संदर्भ में रुदाकोव अपना स्थान महसूस करता है?
“नहीं, मतलब हाँ, मतलब नहीं” रुदाकोव ने अचानक तैश से कहा. “ निरर्थकता को मैं किसी और तरह से समझता हूँ. मानता हूँ, कि मेरे पास काल्पनिक योजनाएँ हैं, कृत्रिम वाक्य रचनाएँ हैं, दिमागी खेल हैं, मगर ये निरर्थकतानहीं है...निरर्थकता – ये वास्तविकता है, वास्तविकता, जिसे किसी ख़ास दृष्टिकोण से देखा गया हो. वो यहाँ है. वो हर जगह है. हर चीज़ दृष्टिकोण पर निर्भर करती है – आप उसकी ओर कैसे देखते हैं. कोई भी घटना निरर्थक प्रतीत हो सकती है...जैसे, मिसाल के तौर पर, आज की शाम – सब कुछ सुनियोजित है, सही है...मगर आप किस तरह देखते हैं...कल्पना कीजिए, कि हमारी मुलाकात के बारे में कोई कहानी लिखता है, और वो बिल्कुल निरर्थक प्रतीत होगी.   
“ज़ाहिर है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा. “अगर सब कुछ तोड़ा-मरोड़ा जाए. कुछ छुपाया जाए, कुछ उघाड़ा जाए. व्यंग्य चित्र बनाया जाए.”
“ओह, नहीं, मैं कुछ और कह रहा हूँ...मैं घातकता के बारे में... कैसे कहूँ...अस्पष्ट विसंगतियों के बारे में. कल्पना कीजिए, कि हममें से कोई यहाँ नहीं, बल्कि किसी और जगह हो सकता था – बाथ-हाउस में, या शादी में, या, हो सकता है, मुर्दाघर में...मैं बकवास की तरह इसकी कल्पना कर सकता हूँ...निरर्थकता की ठण्ड़क को महसूस कर रहे हैं?”
कोई भी महसूस नहीं कर रहा था.
“ठीक है. चलिए बकवास की तर्ज़ पर, कुछ इसी तरह की रचना करें...अभी यहीं. माग्दा वसील्येव्ना, आपके बारे में चाहती हैं?”
“मेरे बारे में?”
“वैसे, व्यक्तिगत रूप से आपके बारे में नहीं, बल्कि किसी इन्सान के बारे में जो आप जैसा हो. ख़ुदा बचाए, कि वो आप हों. वो आप नहीं हैं. ये मैं स्पष्टता के लिए कह रहा हूँ.”
“आपके बारे में ज़्यादा बेहतर होगा.”
“अच्छा. चलिए ये मैं ही हूँ. मैं ख़ुद नहीं, बल्कि कोई लेखक, मेरे जैसा, जो आपसे...मतलब पाठकों से मिलने आया है, जो आप जैसे हैं...हमारे लिए परिस्थिति महत्वपूर्ण है.”
“हॉल में उत्सुकता है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
रुदाकोव ने आगे कहा:
“किताब के लेखक की कल्पना कीजिए – आज सुबह. वह, या जैसा आपको सुविधाजनक लगे, चलिए, मैं हो जाता हूँ, आम तौर से इस पात्र ने रात अनिद्रा में गुज़ारी है. बोझिल विचार और ऐसा ही बहुत कुछ. सुबह होती है, ठण्डी, उदास...तो...” रुदाकोव ने हाथ के इशारे से सबको रचना कार्य में शामिल होने की दावत दी. – हमारा पात्र, ज़ाहिर है फैसला करता है...”
“नींद की गोली लेने का,” पहली पंक्ति में बैठी अधेड़ उम्र की महिला ने ज़ोर से कहा और वह हँसने लगी.
“फाँसी लगा लेने का,” रुदाकोव ने कहा और वह भी हँसने लगा.
वह पूरी तरह सजग हो गया. उसकी आँखें चमकने लगीं.
“ये है लेखक की रचनात्मक रसोई,” माग्दा वसील्येव्ना ने घोषणा की. “ इस तरह उत्पन्न होते हैं कथानक. और, ये बड़ा दिलचस्प है, कि उसने फाँसी लगाने का फैसला क्यों किया? ज़रा समझाइये, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?”
“फैसला कर लिया, तो कर लिया. ज़िंदगी सही पटरी पर नहीं बैठी...कुछ भी हो सकता है...क्या फ़रक पड़ता है...संक्षेप में, उसने एक रस्सी ली, फ़न्दा बनाया, उस पर साबुन लगाया...”
“आजकल साबुन नहीं लगाते,” चौखाने वाली जैकेट वाले ने कहा, “ जूट वाली को साबुन लगाते थी, मगर सिंथेटिक की वैसे भी बढ़िया फिसलती है.”
जब तक ज़िंदा हो, सीखते रहो,” थोड़ा-सा हतप्रभ होकर रुदाकोव बड़बड़ाया.
वही पहली पंक्ति वाली बोली:
“स्टूल पर खड़ा हो गया.”
“झुम्बर से बांधा,” रुदाकोव उसकी ओर मुख़ातिब हुआ, मानो समर्थन के लिए धन्यवाद दे रहा हो. “सिर को फन्दे में घुसाया. खड़ा है. गहरी साँस लेता है. और तभी...
“टेलिफोन बजता है...”
“टेलिफोन बेहद मामूली बात है. तभी उसकी नज़र अलार्म घड़ी पर पड़ती है. वह घड़ी की ओर देखता है, और उसे फ़ौरन याद आता है, कि शाम को सात बजे लाइब्रेरी में उसका भाषण- है. और इतना दुख होता है, बुरा लगता है...उसे, बेशक, इसके बिना भी दुख हो ही रहा है, मगर अब – बस नफ़रत होने लगती है. खिड़की के बाहर कोई बकवास है, हवा, आप तो समझते हैं...मगर ऐसे मौसम में पाठक आएँगे, उसका इंतज़ार करेंगे, उसे फोन करेंगे, उसे बुरा-भला कहेंगे...राह देखेंगे-देखेंगे और अविश्वास से चले जाएँगे. और भी बेहतर : सात बजते-बजते सबको पता चल जाएगा, उस दृश्य की कल्पना कीजिए – आप लेखक से मिलने आए हैं, बैठ गए हैं, बैठे हैं, राह देख रहे हैं, माग्दा वसील्येव्ना प्रकट होती है और कहती है : “शाम का प्रोग्राम कैन्सल किया जाता है, लेखक ने ख़ुद को फाँसी लगा ली है”. जंगलीपन! चाहे जैसे देखो, जंगलीपन ही है. उसने फ़ैसला किया, फंदे में गर्दन रखे-रखे : जाना चाहिए. शाम को जाऊँगा, और फिर लटक जाऊँगा. वर्ना ये तो ठीक नहीं है, अच्छी बात नहीं है. जो काम शुरू किया है उसे पूरा करना चाहिए.”
“दिलचस्प है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
“और आगे – सब वैसा ही, जैसा यहाँ हुआ. आया, और यहाँ टी.वी.कैमेरा – पूछते हैं, जैसा आप पूछ रहे हैं, इस लेखक से : अपनी किताब के माध्यम से आप क्या कहना चाहते हैं?...ऐसा शीर्षक क्यों दिया?...यहाँ ख़रगोश किसलिए?...डेढ़ क्यों?...भविष्य के लिए आपकी योजनाएँ?...क्या आधुनिक इन्सान के पास कोई रहस्य है?...वह, मेरे जैसा, अधिकारपूर्वक विचार व्यक्त करने का नाटक करता है...परिस्थिति की निरर्थकता को सिर्फ वही देख रहा है. और वो भी, जो इस कहानी को समझ रहा है – पात्रों की तुलना में ये समझने वाला प्राणी कहीं ऊँचे स्तर पर है. कहानी बुरी नहीं बनेगी, शायद...अगर धरती पर उतर आएँ...”
लिखेंगे?” मैलाकाइट के बड़े ब्रोच वाली महिला ने पूछा.
“नहीं, किसी और को लिखने दो.”
“एक समस्या है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा. “इस पात्र को ज़्यादा सुलझे हुए तरीके से काम करना चाहिए था. अगर ऐसी मजबूरी थी तो उसे ये करना चाहिए था. वह लाइब्रेरी में फोन कर लेता, वो तो दस बजे खुल जाती है, और कह देता, कि बीमार हो गया है. हम शाम का प्रोग्राम कैन्सल कर देते, और तब वो सुकूनभरे दिल से लटक सकता था.
“वैसे, ये सही है,” कोट-पैंट वाली भरी-पूरी महिला ने कहा, “ उसने फोन क्यों नहीं किया?”
रुदाकोव ने कंधे उचका दिये – मालूम नहीं था कि क्या जवाब देना है.
“क्योंकि निरर्थक है,” बूढ़ी औरत ने कहा, जिसका सुनने का यंत्र हल्की-सी सीटी बजा रहा था.
माग्दा वसील्येव्ना उठी.
“इसी आशावादी सुर से आज की शाम को समाप्त करने की इजाज़त दें. इस उल्लेखित निरर्थकताका अनादर करते हुए, मुझे अपने मेहमान को खूब-खूब धन्यवाद देने की इजाज़त दें और उन्हें, ज़ाहिर है, एक सार्थक भेंट देने की इजाज़त दें...जो बिल्कुल निरर्थक नहीं है...बेलिन्स्की की, उस व्यक्ति की अर्ध-प्रतिमा, जिसके नाम से हमारी लाइब्रेरी जानी जाती है.”
तालियों के बीच रुदाकोव ने भेंट स्वीकार की. बेलिन्स्की की अर्ध-प्रतिमा एक गिलास से ज़्यादा बड़ी नहीं थी. फिर रुदाकोव ने ऑटोग्राफ्स दिए.
फिर लाइब्रेरी के कर्मचारियों के छोटे-से समूह में उसने बिस्कुटों के साथ चाय पी. सम्माननीय मेहमानों को पेश की जाने वाली कोन्याक भी मौजूद थी, बातचीत काफ़ी आत्मीय थी.
लाइब्रेरियन्स के साथ, जो उसे छोड़ने मेट्रो तक आई थीं, दुनिया की पॉलिटिक्स के बारे में बातचीत के बीच उसे पता नहीं चला कि हवा थम चुकी थी. मगर फिसलन हो गई थी. कोट-पैंट वाली भारी-भरकम महिला ने बड़ी देर तक उसे अकेले नहीं छोड़ा.
घुमौने दरवाज़े ने भी उसे बड़ी देर तक भीतर नहीं जाने दिया. ड्यूटी-ऑफिसर को सहायता करनी पड़ी.
निरर्थकता हमेशा विनाशक नहीं होती. वह कभी-कभी रचनात्मक भी होती है, कभी-कभी मनुष्य के लिए बचाव का कारण भी बन जाती है. इस मौलिक विचार से रुदाकोव का ध्यान एक उद्घोषणा ने हटाया : एस्केलेटर पर मौजूद सभी व्यक्तियों को सलाह दी जा रही थी कि किन्हीं लावारिस वस्तुओं को हाथ न लगाएँ और प्लेटफॉर्म के बिल्कुल किनारे पर न जाएँ.
रेलिंग़ को पकड़े हुए, उसने अपनी कम्पार्टमेन्ट वाली आदत के मुताबिक जोश से पढ़ने वालों और सुनने वालों की संख्या के अनुपात की गिनती कर डाली – परिणाम पहले वालों के पक्ष में नहीं था, सही-सही कहें तो, शून्य के बराबर – क्योंकि, निराशाजनक ढंग से, आज कम्पार्टमेन्ट में कुछ न कुछ पढ़ने वाले अनुपस्थित थे; अगर, बेशक, क्रॉसवर्ड्स हल करने वालों को न गिना जाए तो.
कम्पाऊण्ड में हैच से भाप आ रही थी. भाप – अभी तक. वह सुबह भी आ रही थी.
दूसरी और तीसरी मंज़िल के बीच रुदाकोव को एक बेघर इन्सान को पार करके जाना पड़ता था, जो बैटरी के पास गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ा रहता था. रुदाकोव को ये पसंद नहीं था, मगर जब बात ऐसी ही थी, तो वह सदा इससे समझौता करने के लिए तत्पर रहता था.
कल भीड़-भाड़ वाली सड़क पर उसे एक दाढ़ीवाला मिल गया, जो अपने कंधों पर – बिल्कुल ऐसा ही! कचरे वाला बोरा रखकर ले जा रहा था. उसने रुदाकोव से सौ रूबल्स मांगे, ताकि “यहाँ से जा सके”. रुदाकोव ने नहीं दिए. तब उसने रुदाकोव से कहा : “तुम दुष्ट हो, भाई”.
कोई लिफ्ट में ऊपर जा रहा था. मतलब, काम कर रही है. रुदाकोव सोच रहा था, कि बंद पड़ी है. “चलो, ठीक है”, रुदाकोव ने पाँचवीं मंज़िल पर चढ़ते हुए अपने आप से कहा.
किसी सुअर के बच्चे ने घंटी पर च्युइंग गम लगा दिया था. ये तो अच्छा था, कि रुदाकोव को घंटी बजाने की ज़रूरत नहीं थी – उसने चाभी से दरवाज़ा खोला.
साबुन की गंध आई.
रुदाकोव प्रवेश कक्ष से गुज़रा, लिनोलियम पर पैरों के निशान छोड़ते हुए – साबुन का डबरा कब का सूख चुका था.
वह किचन की ओर जाने वाले दरवाज़े की तरफ़ पीठ किए था, जिससे कि रस्सी न देखे. कल निकाल देगा, कल सब कुछ हटा देगा.
बिना कपड़े उतारे दीवान पर गिर पड़ा, जैसे गढ़े में गिर पड़ा हो.
 कल, सब कल.
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