लेखक का परिचय:
सिर्गेइ नोसोव आधुनिक
रूसी लेखक, नाटककार एवम् निबन्धकार हैं. उन्हें पीटरबुर्ग का प्रमुख आधुनिकोत्तर
(पोस्टमॉडर्न) लेखक कहा जाता है, उन्हें एक्ज़िस्टेन्शियलिस्ट (अस्तित्ववादी) भी
माना जाता है.
सेर्गेइ नोसोव का जन्म 19
फरवरी 1957 को पीटरबुर्ग में हुआ था. उन्होंने विमानन साधन इंस्टीट्यूट और गोर्की
साहित्य इंस्टीट्यूट में शिक्षा ग्रहण की. पहले कुछ साल विमानन साधन के क्षेत्र
में काम किया फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ गए. रेडिओ पर भी काम करते रहे.
साहित्य इंस्टीट्यूट में
पढ़ते हुए ही कुछ कविताएँ लिखीं थीं, जिन्हें उन्होंने जला दिया. सन् 1980 में
‘अव्रोरा’ नामक पत्रिका में उनकी कविताएँ छपीं. पहली पुस्तक “सितारों के नीचे” सन्
1990 में प्रकाशित हुई.
सेर्गेइ नोसोव ऐसे लेखक हैं
जिनका नाम अनेक बार “नेशनल बेस्टसेलर’ और ‘रूसी बुकर’ की अंतिम सूची में शामिल हुआ
था. एक अन्य पुरस्कार “बिग बुक” की अंतिम सूची में भी उन्हें शामिल किया गया था.
सन् 1998 में उन्हें पत्रकारिता का ‘ज़ोलोतोए पेरो’ (गोल्डन पेन) पुरस्कार से
सम्मानित किया गया.
उन्होंने अब तक छह उपन्यास
लिखे हैं: ‘फ्रांत्सुआज़ा या ग्लेशियर्स की यात्रा’, ‘मुझे एक बन्दर दो’, ‘पंछी उड़
गए’, ‘समाज का सदस्य या भूखा समय’, ‘डेढ़ ख़रगोश’ और ‘धनु कोष्ठक’.
उनकी पुस्तक “पीटरबुर्ग के
स्मारकों का रहस्यमय जीवन” भी काफ़ी प्रसिद्ध है.
सेर्गेइ नोसोव को युद्ध से
संबंधित कथाओं में, विस्थापितों के दर्द को दर्शाने में, ऐतिहासिक गाथाओं के
पुनर्मूल्यांकन में कोई दिलचस्पी नहीं है. नोसोव – ख़ामोश तबियत लेखक हैं. उन्हें दिलचस्पी
है ज़िन्दगी के छोटे-छोटे प्रसंगों में – एक प्राइवेट आदमी, अपनी सभी अटपटी आदतों -
बेकार के अपमान, दिलचस्प फ़ोबिया, और अटपटे निष्कर्षों की पोटली लादे – ये है उनका
नायक.
फ्रीज़र
लेखक: सिर्गेइ नोसव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
आख़िरकार रात के दो बजे केक आ ही गया. दो
टुकड़े खाने के बाद – एक अपने लिए और एक शौहर के लिए, - मार्गारीटा मकारोव्ना को
टी.वी. की तलब आई, अपने प्यारे कॉमेडी-कलाकारों को
देखने का जी चाहने लगा. वह हिम्मत करके डाइनिंग रूम से बाहर निकली और दूसरी मंज़िल
पर भी चढ़ गई, जहाँ क्रिसमस ट्री की ख़ुशबू फैली थी, मगर टी.वी. तक वह पहुँच ही नहीं पाई – निढ़ाल होकर उससे सात कदम की दूरी पर
आरामदेह कुर्सी में धंस गई, समझ गई, कि
अब उसमें उठने की और टी.वी. चालू करने की शक्ति नहीं है, उसने
गहरी सांस छोड़ी, पस्त हो गई और ऊँघने लगी.
जल्दी ही हॉल हल्की-हल्की
आवाज़ों से भर गया. हेल्थ-रिसॉर्ट के दर्जनों रहने वाले यहाँ आ पहुँचे,
जिससे कि एक दूसरे के मन में डर पैदा कर सकें, - उनका दिल ‘ख़ौफ़नाक घटनाएँ’ सुनना
चाह रहा था, ये है नये साल का अटपटापन. मार्गारीटा मकारोव्ना
सुन रही थी, मगर ग्रहण नहीं कर रही थी. सब लोग दबी ज़ुबान में
बात कर रहे थे, जिससे मार्गारीटा मकारोव्ना जाग न जाए,
मगर असल में, इस प्रोजेक्ट की तरफ़ दूसरे कोण
से देखा जाए, तो...ख़ौफ़नाक कहानियाँ हमेशा इसी तरह से तो
सुनाई जाती हैं.
वहाँ आए हुए लोगों में
ज़्यादातर महिलाएँ ही थीं, - धीमी, रहस्यमय आवाज़ों में रक्तपिपासु सांप्रदायिकों के बारे में, सीरियल किलिंग्स के बारे में, इन्सानों को खाने वाले
नकाबपोशों के बारे में बातें हो रही थीं. ऊँघ के बीच मार्गारीटा मकारोव्ना ने तीसरी
मंज़िल के स्पोर्ट्स-वीकली के संवाददाता कोस्त्या सलव्योव की मौजूदगी को महसूस
किया. छुट-पुट फिकरों की वजह से उसके अपने पति, मैमालोजिस्ट
रस्तिस्लाव बरीसोविच ने भी अपनी उपस्थिति का एहसास करवाया. लगता है, कोई और मर्द नहीं थे.
नहीं,
मार्गारीटा मकारोव्ना दहशतभरी बकवास को नहीं सुन रही थी, उसे तो खुमानियों के केक की याद आ रही थी, - वो सपना
भी, जिसमें वह लुढ़क गई थी, मीठा,
ख़ुशनुमा, खुमानी जैसा था.
(बस,
प्लीज़, मुझसे ये न पूछिए, कि मार्गारीटा मकारोव्ना को कैसा सपना आ रहा है इसके बारे में मुझे कैसे
मालूम है; मैं तो लेखक हूँ!...
बस,
ऐसा ही था.)
इस बीच कोस्त्या सलव्योव
ने, जहाँ तक टी.वी. के ऊपर रखी प्रकाश की एकमात्र
स्त्रोत मोमबत्ती इजाज़त दे रही थी, महिलाओं के जामों में
शैम्पेन डाल दी. बिजली, ज़ाहिर है, बंद
कर दी गई थी.
“डियर लेडीज़,”
बेख़याली से सलव्योव की उपस्थिति को अनदेखा करते हुए रस्तिस्लाव
बरीसोविच ने इस समूह को संबोधित करते हुए कहा, “जो कुछ भी आप
यहाँ कह रहे हैं, ख़तरनाक हद तक दिलचस्प है. मगर आप किसी और
के साथ हुई घटना के बारे में बात कर रही हैं, न कि आपबीती
सुना रही हैं. जब तक मेरी बीबी सो रही है, आपको एक अचरजभरी
घटना के बारे में सुनाता हूं, जो ख़ुद मेरे साथ हुई थी.
ग्यारन्टी के साथ कहता हूँ, कि आपकी पीठ और पैरों में ठण्डक
दौड़ जाएगी.
महिलाओं में काफी उत्सुकता
दौड़ गई. रस्तिस्लाव बरीसोविच ने, शायद अनुमान लगा
लिया, कि सोती हुई बीबी का ज़िक्र करने से उसकी बात का गलत
मतलब लगाए जाने का ख़तरा है. उसने फ़ौरन स्पष्ट किया:
“नहीं,
नहीं. मार्गो को ये किस्सा बहुत अच्छी तरह से मालूम है. और वैसे भी,
मैं कई सारी बातों के लिए उसका शुक्रगुज़ार हूँ...आप अंदाज़ा नही लगा
सकते कि उसने कैसे उस समय मेरा साथ दिया. उस घटना के बाद मुझे भयानक
नर्वस-ब्रेकडाउन हो गया था. मगर उसने मुझे उससे बाहर निकाला, अपने पैरों पे खड़ा किया. ये लब्ज़ इस्तेमाल करने से मैं हिचकिचाऊँगा नहीं,
उसने मुझे बचाया.
उसने प्राकृतिक यूरोपियन
बालों से बना उसका ‘विग’ ठीक
किया जो एक किनारे को खिसक गया था.
“सोने दें थोडी देर,”
रस्तिस्लाव बरीसोविचने भावुकता से कहा. “कभी ये मेरे साथ क्लिनिक
में नर्स का काम करती थी.”
“छोडो,
छोडो,” उपस्थित लोगों ने रज़ामंदी दर्शाई. “आप
सुनाइये, रस्तिस्लाव बरीसोविच, ये इतना
दिलचस्प है.”
रस्तिस्लाव बरीसोविच ने
अपनी कहानी शुरू की:
“ये किस्सा मेरे साथ हुआ
था, पेर्वोमायस्क शहर में....”
तभी सलव्योव ने उसकी बात
काटते हुए पूछा:
“कौन से वाले पेर्वोमायस्क
में? कहीं वही
तो नहीं, जो आजकल स्तारोस्कुदेल्स्क कहलाता है?”
“देखिए,
जानता है आदमी,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने ख़ुशी
से कहा. “स्तारोकुदेल्स्क – ये शहर का प्राचीन ऐतिहासिक नाम है. बस, प्लीज़, सिर्फ ये न कहिये, कि
आप वहाँ जा चुके हैं.”
“जा चुका हूँ?
हाँ, मैं वहां प्रादेशिक अखबार में मशक्कत
करता था! पंद्रह साल पहले.”
“वाह!” रस्तिस्लाव
बरीसोविच ज़ोर से चहका, बीबी बस जागते-जागते रह गई.
“सुना आपने?! मैं भी...पंद्रह साल पहले...एक हादसे में फँस
गया था!...”
“क्या हम मिल चुके हैं?”
सलोव्येव ने आँखें सिकोड़ते हुए अपनी याददाश्त पर ज़ोर देते हुए पूछा.
“सवाल ही नहीं है. मैं पेर्वोमायस्क
में सिर्फ कुछ घंटे ही था. इकतीस दिसम्बर
को, इत्तेफ़ाक से! और सिर्फ दो लोगों को छोड़कर मैं
वहाँ किसी से भी नहीं मिला था. अच्छा बताइये तो सही, चूंकि
आप अख़बार में काम करते थे, तो शायद आपको पता होगा, कि पेर्वोमायस्क में लोग कहीं
बिना कोई निशान छोड़े गायब तो नहीं हुआ करते थे?”
“उस समय तो पूरे रूस में
लोग गायब हो जाया करते थे, ऐसे हालात थे,”
सलोव्येवने उड़ते-उड़ते जवाब दिया.
“नहीं,
बल्कि पेर्वोमायस्क में,
पेर्वोमायस्क में?” रस्तिस्लाव बरीसोविचने फिर से कोशिश की. “कहीं वहाँ कोई ‘सीरियल किलर’ या साफ़-साफ़ पूछूं तो, ‘सीरियल किलर्स’ तो नहीं थे?...”
सवाल से परेशान सलोव्येव
बुदबुदाया :
“वैसे तो,
मैंने वहाँ सिर्फ चार महीने ही काम किया था. नया साल आते-आते मैं
मॉस्को आ गया था.”
“तब,
ठीक है,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने कहा, “आपको पता नहीं चला होगा...”
महिलाएँ,
जिनकी उत्सुकता चरमसीमा तक पहुँच गई थी, एक
सुर में मांग करने लगीं, कि फ़ौरन कहानी शुरू की जाए.
“तो,
ये अजीब घटना मेरे साथ पेर्वोमायस्क में हुई,” रस्तिस्लाव बरीसोविचने
दुहराया, उसके बाद आराम से जाम की शैम्पेन ख़तम की और ग़ौर से
बीबी की तरफ देखा: मार्गारीटा मकारोव्ना कुर्सी में पूरी तरह समाकर, सुकून से सो रही थी,
और उसने कहानी आगे बढ़ाई.
और करीब बीस मिनट में पूरी
कर दी.
इन बीस मिनटों के दौरान
रस्तिस्लाव बरीसोविच हॉल का आकर्षण केंद्र बना रहा.
सुननेवालियाँ,
जैसा कि बाद में उन्होंने स्वीकार किया, काफ़ी
चकित थीं, और कई तो परेशान भी थीं, रस्तिस्लाव
बरीसोविच के अजीब से, भरोसा दिलाते, करीब-करीब
स्वीकारोक्ति जैसे अंदाज़ ने (कम से कम, सभी पर, एक साथ, गहरा असर डाला था) – वैसे भी “डरावना”
किस्सा सुनाने वाले से किसी ने भी असली उत्तेजना की उम्मीद रखने की जुर्रत नहीं
की. बाद में, जब इस सनसनीखेज़ किस्से को सेनिटोरियम की सभी
मंज़िलों पर बार-बार सुनाया जाएगा, और पार्क के बर्फ साफ किये
गए गलियारों में एक साथ या दो-दो के गुटों में टहलते हुए रस्तिस्लाव बरीसोविच की
अजीब किस्मत पर चर्चा होगी, वे सभी, जिन्होंने
इस किस्से को ख़ुद उसीके मुँह से सुना था, रस्तिस्लाव
बरीसोविच के बयान करने के अंदाज़ को, उसकी ख़ासियत को याद करने
का और उस पर गौर करने का एक भी मौका नहीं छोडेंगे: जोश, विश्वसनीयता,
स्वीकारोक्ति. ये सही है, कि ऐसे शक्की लोग भी
मिल जाएँगे (ख़ासकर, उनमें जिन्हें किस्से
को घिसे पिटे तरीके से बार-बार दुहराए जाने के परिणामस्वरूप मोटे तौर पर इसका
सारांश पता चला है) जो कहेंगे : वो, जिसे तुम जोश, विश्वसनीयता, स्वीकारोक्ति समझ रहे हो – शायद सिर्फ
एक आम, भलीभांति आत्मसात् की गई ट्रिक है, जो महिलाओं की सभा में तुरंत सफलता के लिए अपनाई जाती है. मगर इस बात पर
बहस कौन करेगा, कि रस्तिस्लाव बरीसोविच, किस्सा शुरू करते समय, अच्छी तरह समझ रहा था,
कि वह किसके सामने और क्यों अपनी कहानी सुना रहा है; अगर उसने स्वयम् को इस छोटे से नाटक का रचयिता समझ लिया, तो फिर क्यों नहीं? – वह एक अच्छा एक्टर भी बन सकता
था. ज़्यादा महत्वपूर्ण बात ये है, कि किस्सा सुनाते हुए,
वो, सभी की राय में, ख़ुद
ही कुछेक बातें समझना चाह रहा था, - ये सबको याद रहेगा. मतलब,
रस्तिस्लाव बरीसोविच का किस्सा, एक स्थानीय
लोक-कथा बन जायेगा और न केवल इस शिफ्ट के, बल्कि आने वाली
शिफ्टों के – अप्रैल तक के, और शायद मई के भी टूरिस्ट्स के
बीच चलता रहेगा. कोस्त्या सलव्योव, प्रादेशिक अख़बार में अपने
‘मशक्कत’ के अनुभव को याद करके,
इस किस्से को एक साहित्यिक रचना के रूप में प्रस्तुत कर देगा,
मगर, अफ़सोस, उसके हाथ
रचनात्मक असफ़लता ही आयेगी. पहली बात, वो, पेर्वोमायस्क के जीवन से भली
भांति परिचित होने के कारण, अपने लेखकीय ‘स्व’ को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करेगा, और दूसरी बात, परिणामस्वरूप – पेश करने के अंदाज़ में
मात खा जायेगा. वाकई में, रस्तिस्लाव बरीसोविच के मौखिक
स्वगत-कथन को लिखित रूप में प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल है. साहित्यिक परिष्करण के
बिना काम नहीं चलेगा. अगर काबिल व्यक्तियों में से कोई रस्तिस्लाव बरीसोविच के
अत्यंत भावावेशपूर्ण स्वगत-कथन को उचित दिशा में हल्के से सुधार कर (जैसे, ‘प्यारी महिलाओं’ के प्रति अत्यधिक आग्रहों को घटा कर
और भावनाओं के अतिरेक को कम करके), अपने शब्दों में सुनाने
का निर्णय करे, तो वो कुछ इस तरह का हो सकता है.
इस तरह का.
“तुलना के
लिए माफ़ करें, मेरे दोस्तों, मगर मैं
था कौन?... मैं था, परवाने जैसा,
जो शमा की ओर लपकता है. परवाने जैसा!...
सोचिये,
उसका नाम था फ़इना. इसके बाद मैं कभी भी किसी फ़इना से नहीं मिला.
शुरुआत कुछ पहले ही हुई
थी...नये साल से करीब तीन महीने पहले.
मैं ये नहीं बताऊंगा कि
हमारी मुलाकात किन परिस्थितियों में हुई, मगर क्यों
नहीं? – ये हुआ था ग्लीन्स्का में,
रेल्वे स्टेशन पर, मुझे मॉस्को जाना था, उसे, बाद में पता चला, पेर्वोमायस्क,
मतलब, आज के स्तारोस्कुदेल्स्क. हम अलग-अलग
टिकिट-खिडकियों के सामने खड़े थे, मेरा नंबर बस आ ही गया था,
मगर उसे अभी काफ़ी देर तक कतार में खड़ा रहना था. वो कोई किताब पढ़ रही
थी. उसने मुझे नहीं देखा था, हालाँकि अब मुझे शक है, कि पहले किसने किसको देखा था, आज मुझे इस बात का भी
यकीन नहीं है, कि वो वाकई में ख़ूबसूरत थी, जैसा मुझे तब प्रतीत हुआ था. हो सकता है, कि मुझे
पहले चुना गया था, भीड़ से अलग करके, - हो
सकता है, कि मैं किसी मानसिक धोखे का शिकार बन गया था,
जैसे जिप्सी लोग करते हैं. वैसे, उसमें कुछ
जिप्सियों जैसी बात तो थी, और, सबसे
पहले, बेशक, उसकी आँखें – काली,
जैसे, पता नहीं क्या...जैसे बेपनाह गहरे दो
छेद. मगर आँखें मैंने थोड़ी देर बाद देखीं – जब हम करीब आये. मतलब, मैं उसकी ओर एकटक देखने लगा, जो, स्वीकार करना पड़ेगा, कि अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं
करता हूं – भीड में किसी औरत की ओर एकटक देखना, मगर मैं किसी
पागल की तरह उसकी ओर आँखें गडाए था, और ऊपर से मैं कतार की
दिशा के विपरीत मुड गया, - देखा और इस बात से हैरान हो गया, कि दूसरे लोग उसकी
तरफ़ क्यों नहीं देख रहे हैं? सही में, कोई
भी नहीं देख रहा था. सिर्फ मैं अकेला ही देख रहा था. क्या इसका कोई ख़ास मतलब है?...तो, बात इसीके बारे में है.
आगे का घटनाक्रम इस प्रकार
है. वो किताब में देख रही है, और मैं उसे देख
रहा हूं; अचानक वह पढ़ना रोक देती है, जैसे
महसूस कर रही हो, कि लोग उसकी ओर देख रहे हैं, और अचूकता से, बिना किसी सहायता के मुझ पर नज़र गड़ा
देती है. और, मैं क्या करता हूँ? मैं
हाथ के इशारे से उसे बताता हूँ, कि यहाँ खड़ी हो सकती है,
मेरे आगे, - प्लीज़, मैं
आपको जाने दूँगा. और वो, मुझे ऐसा लगा, कि थोड़ा सा हिचकिचाकर, आँख़ों से मुझे धन्यवाद देते
हुए हमारी कतार में आ जाती है और मेरे आगे खड़ी हो जाती है, और
मैं, उसकी आँखों में झांकते हुए, यूँ
ही किसी से कह देता हूँ ‘हम एक साथ हैं’ और आँखें हटाकर देखता हूँ, कि वह किताब को पर्स में
रख रही है, और वहाँ, पता है, कवर के ऊपर कोई विकृत व्यक्ति था और शीर्षक कुछ इस तरह का ‘विध्वंसक आएगा सोमवार को’. पूछता हूँ: “दिलचस्प है?’
– “अरे नहीं, क्या कह रहे हैं,” वो जवाब देती है, “फालतू बकवास है!” – “तो फिर क्यों
पढ़ रही हैं?” और पता है, उसने क्या
जवाब दिया? उसने जवाब दिया : “मज़ेदार है.”
उसका पेर्वोमायस्क का टिकट
बनाने में काफी देर लग रही थी, तब ग्लीन्स्का
में रेल्वे काउन्टर्स पर कम्प्यूटर नहीं थे, मालूम नहीं है,
कि अब हैं या नहीं; कैशियर लगातार कहीं फोन
किये जा रही थी, खाली बर्थ्स के बारे में सूचना मांग रही थी,
और मैं उसके पीछे खड़ा था...अरे, नहीं, कैशियर के नहीं, ख़ैर,
बेवकूफ़ीभरे सवाल क्यों पूछ रहे हैं?...उसके पीछे खड़ा था और
मुश्किल से अपने आप पर काबू कर रहा था, जिससे उसे अपनी
बांहों में न भर लूँ, जिससे उसके गालों को होठों से न छू
लूं.
देखिये,
आपके सामने मैं अपना दिल खोलकर रख रहा हूँ. वर्ना तो कहानी बनेगी ही
नहीं.
तो ऐसी बात है. मैं उसके
साथ प्लेटफॉर्म पर आया, हम स्टेशन के पास वाले छोटे
से बगीचे में गए, वहां बीयर के स्टाल्स हैं, सिमेन्ट का घण्टे के आकार के फूल का फव्वारा है, मतलब
- भूतपूर्व, मैपल्स के पेड हैं, वो
मुझसे कहती है : “आप उदास क्यों हैं, उदास नहीं होना चाहिए”.
मैं जोश से कहता हूं: “ ये आपसे किसने कह दिया, कि मैं उदास
हूं?” वो कहती है : “साफ दिखाई दे रहा है”. और उस समय मैं कई
असफ़लताओं से जूझ रहा था, मुझे पूरी दुनिया से नफ़रत हो गई थी,
जीने की ख़्वाहिश ही नहीं रह गई थी. अपने मरीज़ों से नफ़रत हो गई थी,
स्तनों की बीमारियाँ, मेरी प्रैक्टिस भी उन
दिनों बेहद बुरी चल रही थी...”उदास न हों, देखिए, कितना अच्छा है”. और वाकई में बहुत अच्छा था: पतझड का मौसम, गिरते हुए पत्ते (अगर,बेशक, गंदे
प्लेटफॉर्म से कल्पना की जाए तो). और तब मैं अचानक उसके सामने खुल गया, अपने बारे में बताने लगा. मुझ पर ये कैसा भूत सवार हो गया था? फिर मैं कल्पना की दुनिया में खो गया : सुख, भाग्य,
मगर क्या-क्या कह डाला, याद नहीं – शायद लचर
बातें थीं. मगर वो बड़े ग़ौर से मेरी बातें सुन रही थी, मैं भी
इसीलिए कहे जा रहा था, क्योंकि मैं देख रहा था, कि वह कैसे मेरी बातें सुन रही है. पता नहीं, मुझमें
ऐसी क्या ख़ासियत थी, मगर, एक आम बात को
भी उसने अनदेखा नहीं किया, उस प्यारी लड़की ने. वो, प्यारी महिलाओं, आपको अच्छी तरह मालूम है: हमारे भाई
को पटाना बेहद आसान है, अगर उससे उसकी विशेषता का ज़िक्र कर
दो. हद से हद, जब आह, प्यारे, और किसी के भी साथ इतना अच्छा नहीं लगा था, जितना
तुम्हारे साथ”, पर हमारी छोटी-मोटी खूबियाँ भी, जब उनकी तारीफ़ की जाती है, तो बदले में प्यार जताने
के लिए प्रेरित करती हैं. मैं पूरा का पूरा पिघल गया, जब उसे
मेरे बयान करने का तरीका, कैसे कहूँ, ‘ख़ास’
प्रतीत हुआ. मतलब, उसे मुझमें कोई योग्यता नज़र
आई, जैसे कुशाग्र बुद्धि, विरोधाभास.
जैसे, इस तरह की बात कभी किसी से सुनी नहीं हो. जैसे कि
मैंने उसके सामने मानव-स्वभाव को खोलकर रख दिया हो. इस बात के लिए धन्यवाद
देते-देते रह गई, कि मैं दुनिया में हूँ. इस पर मैं कहता तो
क्या कहता? कुछ नहीं. मगर मैंने उसके दिल को जैसे छू लिया था,
ऐसा लगा. किसी तरह.
याद नहीं,
कि कैसे हमने एक दूसरे के फोन नंबर लिये, और
क्या ये हुआ था? – जैसे नहीं हुआ था, मगर
मेरा पर्स जिसमें उसका पता और टेलिफोन नंबर था, मॉस्को में
किसी ने पार कर लिया, मगर उसके पास मेरा नंबर, मतलब, रह गया.
हाँ,
हमारी बातचीत करीब चालीस मिनट चली, चलो घंटे
भर. उसकी ट्रेन आई, मैंने उसे कम्पार्टमेन्ट तक छोड़ा. बिदा
लेते हुए उसने मुझे चूमा, जैसे किसी अपने को चूम रही हो. अगर
बुलाती, तो मैं वैसे ही उसके पीछे-पीछे पेर्वोमायस्क चला
जाता. ताज्जुब की बात है, कि नहीं गया, - मॉस्को में उस समय मेरे पास कोई ख़ास काम नहीं था.
शायद,
मैं किसी और मुलाकात के लिए अपने आप को तैयार कर चुका था.
उसने मुझ पर सम्मोहन कर
दिया था, मैं आपसे कहूँगा. मगर, प्यार मैं कर नहीं सकता था, नहीं कर सकता था. ये
मेरा अंदाज़ नहीं है. मैं अपने आप को अच्छी तरह जानता हूँ.
इस बीच मेरे साथ ऐसा हुआ!
मॉस्को वापस लौटता हूं –
जैसे पूरी तरह बदल गया हूँ – अपने आप में नहीं हूँ, दूसरा ही
इन्सान बन गया हूँ. औरत के रूप में औरतों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई – किसी भी
औरत में नहीं, सिर्फ एक को छोड़कर, इस
पेर्वोमायस्कवाली को छोड़कर. और ऊपर से, माफ़ कीजिए, ‘सेक्स’ की इतनी चाहत पैदा हो गई, या अगन?...कि उसके बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है,
वर्ना अश्लील प्रतीत होगा. आप तो ख़ुद ही जानती हैं, कि डॉक्टर सनकी होते हैं, और मैं भी अपवाद नहीं हूँ,
मगर यहाँ तो, जैसे कोई जुनून पैदा हो गया
था!... ओह, अपनी कल्पना को मैं कैसे हवा दे रहा था! जैसे मैं
कोई मुँहासे भरा स्कूली बच्चा हूँ, न कि पैंतीस साल का
मेडिकल सायन्स का विशेषज्ञ! तो, मेहेरबानी करके मुझे बताइये,
इसके बाद क्या मैं उसे शैतान नहीं समझूँगा?
जल्दी ही,
सही में, ये सब रुक गया.
मगर कुछ ही वक्त के लिए.
दिसम्बर की बीस वाली
तारीखों में टेलिफोन की घंटी बजती है. कानों पर भरोसा नहीं करता: फइना! अपने छोटे
भाई के साथ नया साल मनाने के लिए पेर्वोमायस्क आने की दावत दे रही है. बस ऐसे ही
दावत दे रही है. जैसे मैं बगल वाली सड़क पर रहता हूँ.
अब मैं आपसे पूछता हूँ: इस
हरकत का क्या मतलब है? ज़ाहिर है, कि इसका मतलब सिर्फ निमंत्रण ही नहीं, बल्कि कुछ और
भी है. मुझे अच्छी तरह याद है, कि कैसा आश्चर्य हुआ था –
मानना पडेगा, बहुत अच्छा लगा था – मेरे ही फैसले पर, क्योंकि मैंने एक भी मिनट के लिए नहीं सोचा था, कि
जाना चाहिए या नहीं. और वैसे, ऐसा लग रहा था, कि पहल मैंने की है, न कि उसने. उसने क्या कहा था?
“हम,” बोली थी वो, “मेरे
छोटे भाई के साथ मिलकर नया साल क्यों नहीं मना सकते?” समझ
रहे हैं ना, ये सवाल था, सिर्फ एक
सवाल. और मैं फ़ौरन बोला: “ओह,” कहता हूँ, “कितना ग़ज़ब का ख़याल है!” – “तो फिर, आ जाइये, आपसे मिलकर हमें ख़ुशी होगी.”
और मैं चल पड़ा. इकतीस
दिसम्बर को. चल क्या पड़ा – चल नहीं पड़ा – लपका! और अगर उस समय कोई मुझसे कहता,
कि मुझ पर किसीने जादू कर दिया है, तो मैं उस
बेवकूफ़ के मुँह पर थूकता, इतनी स्वाभाविक मुझे प्रतीत हो रही
थी मेरी ललक.
नहीं,
झूठ बोल रहा हूँ. जब पेर्वोमायस्क नज़दीक आ रहा था, मन में संदेह थे. सब कुछ इतनी आसानी से हो गया था. हो सकता है, कि मैंने बाद में ऐसी कल्पना की, मगर, मेरे ख़याल से, नहीं, - एक
उत्तेजित करने वाला ख़याल था – चिढ़ाता सा, अपने आप को चिढ़ाता
हुआ: जैसे, अभी प्लेटफॉर्म पे उतरोगे, और
काली आँखों वाली सुंदरी के बदले खड़ी मिलेगी पोपले मुँह, लम्बी
नाक वाली बुढ़िया: “क्या, प्यारे, पहुँच
गए?”
और पता है,
अगर उस समय वाकई में मेरे दिमाग़ में ये बकवास ख़याल आ सकता था,
तो अपने गुज़रे हुए अनुभव को देखते हुए, स्वीकार
करना पड़ेगा, कि वो बेवजह नहीं आया था...मगर, चलिए, सब कुछ सिलसिलेवार बताता हूं!
मेरा स्वागत किया गया था.
मैं प्लेटफॉर्म पर उतरा और मैंने उसे देखा, और वो
मुझे और भी ज़्यादा आकर्षक लगी, उससे भी ज़्यादा, जितनी ग्लीन्स्का में लगी थी. उसने बड़ी बड़ी बटनों की दो कतारों वाली, लम्बी काली ड्रेस पहनी थी, सिर पर कुछ नहीं था,
और वो घिनौनी चीज़, जो आसमान से गिर रही थी,
और जो बिल्कुल बर्फ जैसी नहीं थी, बड़े
आश्चर्यजनक तरीके से उसके घने काले बालों में आकर्षक, चमकदार, पन्ने जैसी ओस की बूंदों में बदल रही थी. और सर्दियाँ बिल्कुल सर्दियों जैसी
नहीं थीं, कुछ बेहूदा सी चीज़ थी. नया साल और बाहर का तापमान +4
डिग्री!
“मिलो,
ये है मेरा भाई , गोशा”. – मतलब, वह मेरे साथ ‘तुम’ पर उतर आई
थी, बिना किसी हिचकिचाहट के. मैंने भी सोचा : बढ़िया है!
महाप्रलय पूर्व की ‘पहले’ मॉडेल की ‘वोल्गा’
से, जो तब भी प्राचीन एवम् दुर्लभ वस्तुओं में
शुमार किये जाने लायक थी, मैं शाम के पेर्वोमायस्क का नज़ारा
देख रहा था. करीब छह बज रहे थे, अंधेरा हो गया था. गोशा कार
चला रहा था. उसे फिसलन भरे कीचड़ से होकर गाड़ी चलाना पड़ रहा था, बर्फ लगातार पिघल रही थी और बह रही थी. वह मज़ेदार तरीके से कार से बातें
कर रहा था, कभी उसे नाम से संबोधित करता, प्यार से – ब्रोन्का, ब्रोनेच्का, ब्रोन्याशा. “ब्रोनेविक” (बख्तरबन्द गाडी) इस शब्द से,” - फइना ने कहा.
उनके साथ मुझे हल्का लग
रहा था.
वे मुझे शहर के अंतिम छोर
तक ले गए. वे लकड़ी के दुमंज़िले मकान में रहते थे, जो उन्हें
माता-पिता से मिला था. उसमें अनगिनत कमरे थे, छह से कम तो थे
ही नहीं. फइना मुझे घर दिखाने ले गई. ये है स्वर्गीय माता-पिता का कमरा, वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है, ये है गोशा का कमरा,
ये रहा गोशा का फोटोस्टूडिओ, बहुत बडे
फोटो-एनलार्जर के साथ, जो पुरानी एक्सरे मशीन की याद दिलाता
था...ग़ौर कीजिए, मैं गोशा की फोटोग्राफी के नमूने देख ही
नहीं पाया (कल्पना कर सकता हूँ कि वहाँ कैसे-कैसे फोटोग्राफ्स होंगे!).
नहीं,
कुल मिलाकर गोशा मुझे तब अच्छा लगा था, मगर अब
मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ, कि वो किसी सनकी जैसा था,
बहन से भी ज़्यादा. पहली बात, मेरे बारे में
अपनी राय का वह ज़रा ज़्यादा ही खुलकर प्रदर्शन कर रहा था. दूसरी, उसका बर्ताव भी काफ़ी भेद भरा लग रहा था, जैसे उसे
कुछ मालूम है, जिसे वो छुपा रहा है. तीसरी बात, वह बहुत भेंगा था, हालाँकि इससे उसे कार चलाने में
ज़रा भी मुश्किल नहीं हो रही थी, मगर जिसके कारण मैं उससे बात
नहीं कर पा रहा था, - मैं समझ नहीं पा रहा था, कि उससे बात करते समय मुझे किस आँख की तरफ़ देखना है; अंदाज़ से उस वाली की तरफ़ जो तुम्हें देख रही है, मगर
दोनों ही कहीं और ही देख रही थीं.
सच कहूँ,
तो मैंने गोशा से बहुत बातें नहीं कीं; वह
मुझे फइना के साथ अकेले छोड़ने की कोशिश कर रहा था. उस समय मुझे महसूस हो रहा था,
कि मेरी फइना के साथ आश्चर्यजनक रूप से अच्छी जम रही थी, दोनों तरफ़ किसी किस्म का दबाव नहीं था. जैसे इससे पहले हमने एक दूसरे के साथ
सिर्फ एक घंटा नहीं, बल्कि आधी ज़िंदगी बिताई हो. बेशक,
बिना हिप्नोसिस के ये हो नहीं सकता था. हालाँकि मैं ‘मैमालोजिस्ट’ हूँ, पर
मनोविज्ञान की भी मुझे थोड़ी बहुत समझ है. इस घटना के बारे में मेरा एक अपना
सिद्धांत भी है, मगर उसे यहाँ नहीं बताऊँगा. मुझे उनके घर
में अटपटापन महसूस नहीं हो रहा था. और वो भी मेरे आने से अचकचा नहीं रही थी. जैसे लंबी
जुदाई के बाद पति पत्नी के पास आया हो. ऊपर से, काफ़ी इंतज़ार
के बाद. इस घर में जैसे मैं अपनापन महसूस कर रहा था, चाहे घर
की हर चीज़ पहली बार ही क्यों न देखी हो.
जब वो मुझे मेरे वाले कमरे
में ले जा रही थी, तब गोशा किचन में बर्तनों की
खड़खड़ाहट कर रहा था. हर चीज़ मेरे लिए सजाई गई थी, सब कुछ
साफ़-सुथरा था. थोड़ी शरम आई थी मुझे, याद है, लाल कम्बल देखकर: क्या लाल रंग का कोई ख़ास मतलब था? – मगर, मानता हूँ, कि उस समय तो
मुझे पलंग की चौड़ाई ने आकर्षित किया था, क्योंकि चौड़ाई के इस
आयाम से मेज़बान के इरादों का अप्रत्यक्ष रूप से आभास हो रहा था. और पलंग – सिंगल
बेड नहीं था...मुझे लगा, कि फइना मेरे ख़याल पढ़ रही है,
तभी मैंने फ़ौरन – उसकी ओर देखा! – और मुझे लगा: जैसे होठों पर पतंगे
की परछाईं है... वह कुछ कहते-कहते रह गई. और उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे कॉरीडोर
में ले आई. और मेरे कान में फुसफुसाई: “पता है, मैं बहुत ख़ुश
हूँ, कि तुम आए हो”. वह कॉरीडोर में जा रही थी, और मैं उसके पीछे था, और तब मैंने फ़ौरन वो कर डाला,
जो तब, रेल्वेस्टेशन की टिकिट खिडकी के पास नहीं
कर पाया था: मैंने उसे रोक कर अपनी बाहों में ले लिया. ऐसे, पेट
पकड़कर. उसने हौले से, बिना मुड़े, अपने
आप को मेरे आलिंगन से ये कहते हुए आज़ाद किया: “मेज़ पर जाना चाहिए”, मतलब ये कहना था, “डाइनिंग टेबल सजाना है”, -
और आगे चल पडी, अबूझे, शैतानी
आकर्षण क्षेत्र से मुझे अपने पीछे-पीछे घसीटते हुए.
हम तीनों ने मिलकर मेज़ सजा
दी, मैं, सच कहूँ, तो बस इधर-उधर डोलता रहा, क्योंकि फ्रीज से ओलिविएर
सलाद और ड्रेस्ड हैरिंग निकालने में तो कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. उन्होंने काफ़ी
सारी चीज़ें बनाई थीं. वो साल, अगर आपको याद हो, हमारे देश के लिए भरपेट अनाज वाला नहीं था. मगर नए साल की मेज़ – एक पवित्र
बात है. ये सभी के यहाँ होता है. मैं भी साथ में कुछ लाया था, - याद है, कैवियर का डिब्बा, वोद्का,
शैम्पेन. क्रिसमस-ट्री के नीचे चुपके से दो डिब्बे रख दिए – उनके
लिए गिफ़्ट्स. मगर गोशा ने देख लिया: “देखो तो, सान्ता क्लॉज़
आया था, साथ में कुछ तो लाया था”. इस पर वो सवालिया जवाब
देती है: “और सान्ता क्लॉज़ वाला हमारा ‘सरप्राइज़’ क्या है? शायद, अभी? या बाद में?” – “चल, अभी”,
- गोशा कहता है.
वो मुझे कमरे से कहीं भी न
जाने के लिए कहते हैं और सरप्राइज़ के लिए निकल जाते हैं. मुझे,
छुपाऊँगा नहीं, अच्छा लग रहा था. मैं इंतज़ार
करता हूँ, उनके आपसी संबंधों पर ख़ुश होता हूँ.
अच्छे संबंध हैं. बहुत ही
प्यार से, मिलजुलकर रहते हैं. आधे शब्द से ही
एक दूसरे को समझ लेते हैं. वैसे, सच में, अजीब तरह से बातें करते हैं – एक दूसरे की ओर करीब-करीब देखे बिना,
कम से कम, मेरी मौजूदगी में, - ये, जैसे गलती ढूँढ़ने पर ही उतर आओ तो...तब मैंने इस
बात को कोई महत्व नहीं दिया था, मगर अब सोचता हूँ: ऐसा कहीं
इसलिए तो नहीं था, कि वो अपनी आपसी समझ को मुझसे पूरी तरह
छुपाना चाहते थे, वर्ना, संभव है कि
मैं षडयंत्र को ताड जाऊँगा?
मगर उस समय मेरे मन में ये
ख़याल भी नहीं था. मैं सुखी था, जितना दुनिया में
कोई और नहीं हो सकता. और मुझे ऐसा लग रहा था, कि मेरे साथ
कोई अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक घटना हो रही है, जैसे मैं
ख़ुद कोई दूसरा इन्सान बन जाऊँगा, कि मैं फिर कभी भी, कभी भी पहले की तरह जी नहीं पाऊँगा. एक ख़ामोश खुशी ने मेरे अस्तित्व को
सराबोर कर दिया था. और इन क्षणों में पूरी दुनिया मुझे साफ़-सुथरी, सुंदर नज़र आ रही थी, - जैसे किसी नर्म ब्रश से उसकी
धूल झटक दी गई हो.
हालांकि विचित्रता के
हल्के से एहसास ने, मानना पड़ेगा, मुझे छोड़ा नहीं था. बेशक. सब कुछ बड़ी आसानी से, हौले
से हो गया था, मेरी ज़रा सी भी कोशिश के बगैर.
सुन रहा हूँ: ऊपर चल रहे
हैं, कोई चीज़ सरका रहे हैं, ‘सरप्राइज़’ निकाल रहे हैं.
तभी मुझे याद आया कि मैंने
वोद्का फ्रीज़र में नहीं रखी थी.
बोतल लेता हूँ,
फ्रिज के पास जाता हूँ, फ्रिज का दरवाज़ा खोलता
हूँ...(मैंने शाम को फ्रिज में कई बार झांका था, मगर फ्रीज़र
एक भी बार नहीं खोला था)...मतलब, मैंने फ्रीज़र खोला.
तो.
और,
करीब पूरे पंद्रह साल हो गए, जब मैंने फ्रीज़र
खोला था. अगर बिल्कुल सही-सही कहूँ तो पंद्रह साल और चार घंटे, दस मिनट कम-ज़्यादा.
तबसे कितना पानी बह गया है,
कितनी सारी घटनाएँ हो चुकी हैं!...जैसे, मैंने
शादी कर ली...हाँ...मार्गारीटा मकारोव्ना से...
नर्व्हस ब्रेकडाउन...अगर
वो नहीं होती...
अच्छा. माफ़ कीजिए...मैं
कुछ अंदाज़ तो लगा सकता हूँ, कि फ्रीज़र के
बारे में आप क्या सोच रहे होंगे, और किसी हद तक वो सही भी
होगा, मगर सिर्फ कुछ हद तक. मैं कोई भी शर्त लगाने के लिए
तैयार हूँ, कि आप कल्पना भी नहीं कर पाएँगे कि फ्रीज़र में
क्या था.
तो! उसमें थे दो जूते! दो
बिल्कुल नये, काले जूते! बर्फ से ढँके हुए!
क्या माजरा है?
मैंने बोतल रखे बिना
फ्रीज़र बंद कर दिया, कुर्सी पर बैठ गया और सोचने
लगा. दिमाग पूरा सुन्न हो गया था! एक भी विचार नहीं. एक भी कैफ़ियत नहीं!
सैद्धांतिक रूप से ये माना
जा सकता था, कि एक जूता फ्रीज़र में रखा जा सकता
था किसी बेहद भुलक्कडपन के कारण...मगर सिर्फ एक!...मगर यहाँ तो दोनों हैं!
हो सकता है,
मज़ाक हो? तो इसमें हँसने वाली बात क्या है?
मेरा सिर फटने को हो रहा
था. मुझे लग रहा था, कि पागल हो जाऊँगा. मैंने सोच
लिया कि ये मेरा भ्रम था. अपने आप पर यकीन नहीं हो रहा था.
तब मैंने फिर से फ्रीज़र
खोला...जूते! मैंने गौर से देखा और मुझे जूतों से मुश्किल से झाँकती जुराबें नज़र
आईं. मैंने एक जूता उठाया और मुझे महसूस हुआ कि वो खाली नहीं है,
उसमें कुछ है!... मैंने उसे फ्रीज़र से बाहर निकाला, मैंने जूते के भीतर झांक कर देखा और मैंने बर्फीली चिकनी सतह देखी,
किनारे तक आती हुई...समझ रहे हैं?...कोई कटी
हुई चीज़, बर्फ बन चुकी कटी हुई चीज़!...एक अमानवीय भय ने मुझे
दबोच लिया, मेरे होश बस खो ही गए थे!...
और मुझे पल भर में ही कुछ
और भी याद आ गया – उसकी किताब किसी हत्यारे के बारे में,
और खून जैसा लाल कंबल, और दो हाथों वाली आरी,
जिसे संयोगवश प्रवेश द्वार के पास देखा था...और उनकी बातें भी याद
आईं: “क्रिसमस-ट्री तिरछी खड़ी है”. – क्योंकि उसे तिरछा काटा गया है”. – “किसका
कुसूर है?” – “मिलकर ही तो काटा था!” – “तू बड़ा आरी चलाने
में माहिर है”. – “और तू?”
और भी बहुत कुछ याद आया.
और उनके कदम नज़दीक आ रहे
थे. वे दरवाज़े के पास खड़े थे – अपना मनहूस ‘सरप्राइज़’ लिए! मैं सुन रहा था, कि वे कैसे फुसफुसा रहे हैं,
जैसे दरवाज़े के पीछे किसी बात पर चर्चा कर रहे हों...
और फिर,
जैसे मेरी आँखों से परदा हट गया!
जैसे मुझसे किसी ने कहा: “अपने
आप को बचा, बेवकूफ़!”
और मैं खिड़की की ओर लपका -
वो बंद थी! और पूरी ताकत से अपने आपको चौखट पे दे मारा,
दोहरी चौखट पे, और दोनों चौखट साथ लिए उड चला,
बाग में!...कैसे छिटका था, दिमाग़ समझ नहीं
पाया!...
फेन्सिंग फांदी,
और पूरे पेर्वोमायस्क के नये साल के उस चिपचिपे कीचड़ से होकर भागा
रेल्वे स्टेशन की ओर! ये तो अच्छा था, कि पैसे पतलून की जेब
में थे, और जैकेट भी था, मगर वो वहीं
रह गया!
मेरी किस्मत अच्छी थी:
पौने बारा बजे एक ट्रेन वहाँ से गुज़रने वाली थी. मुझे पहले कम्पार्टमेन्ट की टिकट
दी गई, और वहाँ कण्डक्टर्स नया साल मना रहे हैं. कोई
और नहीं था, मैं अकेला ही पैसेन्जर था! पूरी ट्रेन में – मैं
इकलौता पैसेन्जर!...उन्होंने मेरे लिए गिलास में वोद्का डाली, ठण्डी. मेरे हाथ काँप रहे थे. मैंने आपबीती सुनाई. कण्डक्टर्स को बहुत
अचरज हो रहा था, बोले, कि मैं
किस्मतवाला हूँ. ऐसा था किस्सा.”
तो ऐसा किस्सा – शायद,
कुछ अलग लब्ज़ों में – अपने बारे में सुनाया रस्तिस्लाव बरीसोविच ने.
रस्तिस्लाव बरीसोविच की
कहानी से स्तब्ध होकर सभी श्रोता एक मिनट चुप रहे. मोमबत्ती की लौ किसी चुम्बक के
समान नज़रों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. कुछ देर इंतज़ार किया,
कि कहीं रस्तिस्लाव बरीसोविच कुछ और तो नहीं जोड़ने वाला है. उसने
आगे कुछ नहीं कहा. बस, ख़ामोशी... सोई हुई मार्गारीटा
मकारोव्ना की नाक सूँ-सूँ कर रही थी.
ख़ामोशी को तोड़ा दूसरी
बिल्डिंग की एलेना ग्रिगोरेव्ना ने, जो फर्स्ट रैंक
की टैक्स इन्स्पेक्टर थी. उसने सावधानीपूर्वक कहा, कि
रस्तिस्लाव बरीसोविच ने चालाकी से लोगों को हैरान कर दिया था, आसान शब्दों में – वह लोगों की भावनाओं से खेल रहा था – उसकी कहानी एकदम
अविश्वसनीय है.
विरोध के सुर सुनाई दिए. ये
घोषित किया गया, कि रस्तिस्लाव बरीसोविच की कहानी
में कई सारे ऐसे विवरण थे, जो कपोल कल्पित नहीं थी. जैसे,
वो ही जूते फ्रीज़र में...अगर उसे फ्रीज़र में जूते नहीं, बल्कि कोई और पारंपरिक चीज़ दिखाई देती, तो तब कहानी
की विश्वसनीयता पर संदेह किया जा सकता था...मगर जूते! जूते क्यों? किसलिए? ऐसी चीज़ की कल्पना नहीं की जा सकती.
रस्तिस्लाव बरीसोविच से
जूतों का रहस्य जानने की कोशिश की गई, मगर उसने अपनी
कहानी की व्याख्या करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके पास
इस संबंध में कोई ढंग का स्पष्टीकरण था ही नहीं.
और वो ‘सरप्राइज़’…क्या सरप्राइज़ था? किसलिए?
“यहाँ काफी कुछ ऐसा है,
जो तर्कहीन है,” रस्तिस्लाव बरीसोविच ने कहा.
“मैं अक्सर दिमाग़ से सोचता हूँ, मगर यहाँ कुछ न सोचना ही
बेहतर है.”
पूछने लगे: उसने पुलिस में
रिपोर्ट दी थी या नहीं?
“नहीं. पता नहीं क्यों,
मगर कोई चीज़ मुझे ऐसा करने से रोक रही थी.
लोग उसका धिक्कार करने
लगे. गुस्सा भी करने लगे.
और तब सलव्योव उठा,
जो अब तक चुप बैठा था. वो हॉल के बीचोंबीच आया. मोमबत्ती उसकी पीठ
के पीछे जल रही थी, उसका चेहरा छाया में था, मगर उसके लगभग अदृश्य चेहरे से भी साफ़ ज़ाहिर हो रहा था, कि सलव्योव बेहद परेशान है.
“रस्तिस्लाव बरीसोविच,
आपने बिल्कुल सही किया, कि कहीं भी रिपोर्ट
नहीं की!”
एकत्रित समूह अविश्वास से
चीख़ा. शोर होने लगा.
“आप सबसे ज़्यादा मैं चौंक
गया हूँ!...” स्पोर्ट्स-जर्नलिस्ट सलव्योव सबको एक साथ संबोधित करते हुए चहका,
उसने कहा, “अविश्वसनीय संयोग!...एक शानदार
सिलसिला!...पता है, इस सबमें कुसूरवार कौन है?...मैं!...मैं अकेला और सिर्फ मैं!...चाहे तो मेरे टुकडे कर दो!...आप मेरी
तरफ इस तरह क्यों देख रहे हैं?...अब, जैसे
आपके हाथों से मछली की गंध आ रही है, मिसाल के तौर
पे!...क्या करेंगे?...नींबू निचोड़ देंगे!...और जब प्याज़
काटते हैं, तो आप कुछ भी चबा रहे नहीं होते?...बस, इसीलिए रोते हैं!...कुछ चबाना चाहिए!...पेचकश के
बिना बोतल?...आँ?...ये सब मेरा ही किया
धरा है!...सब मेरा!...कैसे खोलें!...मैं यही सब करता था!...”
सभी स्तब्ध होकर सलव्योव
की ओर देख रहे थे – कोई भय से, कोई ख़ौफ़ से : ये,
वाकई में, बहुत अजीब है, जब इन्सान आपकी नज़रों के सामने पागल हो जाता है. मगर तभी सलव्योव फिर से
रस्तिस्लाव बरीसोविच से मुख़ातिब हुआ:
“वो,
जिसे आप जुराबें समझ रहे थे, जो जूतों से बाहर
झांक रहे थे, असल में पॉलिथीन की थैलियाँ थीं, यकीन कीजिए, ये सचमुच में ऐसा ही था!...समझाता
हूँ!...सब लोग सुनिए!...जब मैं अख़बार में काम करता था, मैं
उसमें एक कॉलम लिखता था :घर के लिए उपयोगी सलाह”!...सारे अख़बारों में ऐसे कॉलम
होते थे!...याद है?...ख़ैर, मैं आपको
समझाता हूँ...कुर्सियाँ...कुर्सियों से फर्श पर खरोंचें पड़ती हैं!...क्या किया जाए?
उनकी टांगों में वाइन की बोतलों के प्लैस्टिक के ढक्कन पहना
दीजिए!...या फिर: आपको जूते पॉलिश करने हैं...बढ़िया! पुराने स्टॉकिंग्ज़ इस्तेमाल
कीजिए और कोई समस्या ही नहीं!...और अगर जूते?...अगर जूते तंग
हों तो?...क्या करें जब जूते तंग हों तो?...तो ऐसे मतलब, मुझे याद आया, कि
जब मैं स्कूल में था, तभी हमारे फ्लोर वाले पडोसी ने मुझे
सिखाया था, कि जूतों को चौड़ा कैसे करना चाहिए...और मैंने
अख़बार में छाप दिया!...बेहद आसान है: जूतों में पॉलिथीन की थैली रखना चाहिए,
उसे पानी से भरकर जूतों को अपने फ्रिज के फ्रीज़र में रख देना चाहिए!...पानी
जमते हुए आयतन में फैलता है...”
“ये असंभव है!” रस्तिस्लाव
बरीसोविच ज़ोर से बोला और झटके से उठ गया.
“आपको यकीन दिलाता हूँ,
ये भौतिक शास्त्र का नियम है!...बर्फ फैलती है, जूता चौड़ा हो जाता है!... इकतालीस नंबर का जूता था, बयालीस
का बन गया!...हाँ, हमारे इस प्रकाशन पर इतनी प्रतिक्रियाएँ
आई थीं, आप क्या कह रहे हैं!...कई लोगों को विश्वास नहीं हुआ,
कहते थे, ऐसा हो नहीं सकता, बर्फ को फैलने दो, मगर चमड़े को तो सिकुड़ना चाहिए,
है कि नहीं?!...नहीं, ऐसी
कोई बात नहीं है!...अपने आप पर प्रयोग किया था!...आपको और क्या चाहिए? उस समय पेर्वोमायस्क में सिर्फ इकतालीस नंबर के जूते आये थे. मुझे याद है.
और अगर आपको बयालीस नंबर की ज़रूरत हो तो? और तैंतालीस?...हाँ, हमारे पेर्वोमायस्क में मेरे इस प्रकाशन के बाद
हर दसवें आदमी के जूते फ्रीज़र में रखे जाते थे!...और आप कह रहे हैं!...”
ये अंतिम शब्द सलव्योव ने
रस्तिस्लाव बरीसोविच की अनुपस्थिती में ही कहे.
रस्तिस्लाव बरीसोविच मुँह
से एक भी शब्द निकाले बिना हॉल से बाहर निकल गया था. सलव्योव के स्वगत भाषण में सब
इतने मगन थे, कि किसी का भी इस ओर ध्यान नहीं
गया.
लाइट जलाई गई.
तभी मार्गारीटा मकारोव्ना
जागी.
“मैं जैसे ही शैम्पेन पीती
हूँ, मेरी आँख लग जाती है.” उसके
होठों पर मुस्कान थी: “बाग का सपना आया था...अफ्रीका, शायद?...पूरे नींबू के पेड...”
एलेना ग्रिगोरेव्ना ने,
जो टैक्स इन्स्पेक्टर थी, सलव्योव के पास से
गुज़रते हुए एक फ़ब्ती कसी:
“आपने बेकार ही में ये
किया. वह अपने रहस्य को अपने भीतर समेटे रहता तो
बेहतर था.”
“और मेरा शौहर कहाँ है?
फिर ग़ायब हो गया?” मार्गारीटा मकारोव्ना ने
अनचाही उबासी को हथेली से रोका. “क्या बॉक्स के लिए गया है?”
अब तक रस्तिस्लाव बरीसोविच
को सभी मंज़िलों पर ढूँढ़ा जा रहा था. वह कहीं भी नहीं था.
मार्गारीटा मकारोव्ना भारी
बदन से कुर्सी से उठी और धीरे-धीरे टेलिविजन की तरफ़ जाने लगी.
स्क्रीन भड़क उठा. हास्य
कलाकारों का अगला प्रोग्राम चल रहा था.
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