डेढ़ खरगोश
लेखक: सिर्गेइ नोसव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मौसम नहीं, बल्कि
ये एक दहशत थी. ख़ासकर हवा.
बस स्टॉप से
लाइब्रेरी की दूरी करीब दो सौ मीटर्स थी, छत्री टूट ही जाती. रुदाकोव
ने सिर पे हुड खींच लिया, सीने से ठोड़ी चिपका ली. वादा की गई बारिश के बदले चेहरे पर बर्फ की मार पड़ रही थी – नुकीली,
काँच की धूल जैसी. गर्मियों के कपड़ों वाली दुकान के शो-केस में दो पुतले
मुश्किल से अपनी दुर्भावनापूर्ण हँसी रोक रहे थे – वहाँ, भीतर,
उनके यहाँ स्वर्ग था.
उसके सड़क पार
करने से पहले ही लोगों ने उसे देख लिया. माग्दा वसील्येव्ना उसका स्वागत करते हुए, सावधानीपूर्वक
खुले हुए दरवाज़े को पकड़े रही – वह बगैर कोट के, सिर्फ लाल
ड्रेस पर ऊनी शॉल बांधे बाहर आई थी. रुदाकोव ने अपनी चाल तेज़
की, फिर वह दौड़ने ही लगा.
“हमने सोचा, कि
आप नहीं आयेंगे.”
भीतर जाते हुए
जैसे उसे बेदर्द नज़र से नोंचा. मगर वह असभ्य नहीं दिखना चाहता था.
“क्या कोई आया भी
है?”
रुदाकोव भर्राया.
“ऐसा कैसे!”
और वाकई में
कॉन्फ्रेन्स हॉल में कुछ लोग बैठे थे, प्रवेश कक्ष से रुदाकोव उनकी
संख्या के बारे में सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था. वह अपना
जैकेट उतार रहा था – मतलब वहीं लटका रहा. परिस्थिति को देखते हुए, उसे अभी टी.वी. वालों से भी निपटना था.
उनकी उपस्थिति से
उसे सचमुच बहुत आश्चर्य हुआ. कैमेरा यहीं, प्रवेश द्वार के पास ही
लगाया गया था. स्थानीय चैनल, सोमवारीय सांस्कृतिक घटनाओं की
समीक्षा.
“ये बस, थोड़ी
देर का काम है,” माग्दा वसील्येव्ना ने रुदाकोव के चेहरे की
प्रसन्नता को न समझते हुए कहा.
“मैं टी.वी. नहीं
देखता,”
रुदाकोव ने उन दोनों से कहा.
“हम भी,” उनमें से एक ने माइक्रोफोन से उलझते हुए जवाब दिया.
वो ऑपरेटर था, दूसरा
– प्रश्नकर्ता (फ्रेम में उसे आना नहीं था, वह कैमरे के बाईं
ओर खड़ा था).
पहले ने कहा :
“शुरू करते हैं”,
दूसरे ने पूछा:
“ये तो बताइये, कि
आपको यह किताब लिखने के लिए किस बात ने प्रेरित किया?”
“किस बात ने
प्रेरित किया?”
रुदाकोव ने गला साफ़ करके सवाल दुहराया. “जो
लिखा, उसीने प्रेरित किया.” उसने इसी तरह के कुछ और वाक्य भी
कहे.
प्रश्नकर्ता ने
अपनी नाक के सामने हाथ से इशारा किया, कि रुदाकोव उसकी ओर देखे, न कि छत की ओर. रुदाकोव के हर वाक्य के साथ वह सहमतिदर्शक अंदाज़ में सिर
हिला देता था – शायद, उनके इन्स्टीट्यूट्स में ये सिखाया
जाता है.
“कृपया अपनी
किताब का शीर्षक समझाइए.”
“मतलब आपने उसे
नहीं पढ़ा है,”
रुदाकोव ने कनखियों से देखते हुए कहा.
“यहाँ ‘डेढ़’ किसलिए है?”
“नहीं पढ़ी,” रुदाकोव ने दुहराया.
“ईमानदारी से
कहूँ,
तो अभी तक नहीं. मगर ज़रूर पढूँगा.”
“हर इन्सान को, जिसने
मेरी किताब पढ़ी है, मैं समझता हूँ, कि
शीर्षक समझ में आ गया है. मगर, यदि ज़रूरी है, तो समझाता हूँ.”
वह समझाता है.
“आधुनिक साहित्य
के बारे में आपका क्या ख़याल है?”
रुदाकोव ने गहरी
साँस ली. कुछ देर ख़ामोश रहा. माथे पर बल डाले. अनिच्छा से समझाने लगा कि आधुनिक
साहित्य के बारे में वह क्या सोचता है. ख़ास, कुछ नहीं. मतलब जैसे कुछ भी
नहीं. मतलब यूँ ही. यूँ ही, बस.”
“बहुत-बहुत
धन्यवाद.”
माग्दा
वसील्येव्ना,
जो सौजन्यवश शूटिंग के दौरान गायब हो गई थी, फिर
से प्रवेश-कक्ष में प्रकट हुई. रुदाकोव के साथ कॉन्फ्रेन्स हॉल में आते हुए,
उसने उत्सुकता दर्शाई : “पसन्द नहीं है?” रुदाकोव
ने सवालिया नज़र से देखा. माग्दा वसील्येव्ना ने सवाल स्पष्ट किया : “वो, इंटरव्यू देना...” ख़यालों में ही जवाब देते हुए रुदाकोव चुप रहा. “शायद, नींद पूरी नहीं हुई”, उसने
अंदाज़ लगाया. एक साथ भीतर आए.
कॉन्फ्रेन्स हॉल
बड़ा नहीं था – सिर्फ कमरा था.
‘दस
से ज़्यादा’, रुदाकोव ने अंदाज़ लगाया किया.
दस से ज़्यादा
लोगों ने धीरे से रुदाकोव का स्वागत किया, और उसने उनका.
माग्दा
वसील्येव्ना के साथ मेज़ के पीछे बैठा.
पाठकों में सभी
महिलाएं. सिर्फ एक पुरुष.
माग्दा
वसील्येव्ना ने रुदाकोव का परिचय दिया. बोली:
“बुरे मौसम के
बावजूद हॉल करीब-करीब पूरा भरा है.
‘ग्यारह’,
रुदाकोव ने गिना.
खाली जगह वाकई
में नहीं थी – शायद, लोगों की संख्या के अनुमान से कुर्सियाँ लाई गई
थीं. बारहवाँ आयेगा – कुर्सी लाएँगे.
माग्दा
वसील्येव्ना ने रुदाकोव के और उसकी मशहूर किताब के बारे में बताया. वह तैयारी करके
आई थी.
रुदाकोव को ऐसा
लगा कि यहाँ आधे से ज़्यादा लाइब्रेरी के कर्मचारी हैं. मगर, बाहर
वाले लोग भी थे.
टी.वी. वाले भी
अंदर आए,
बेलिन्स्की की फोटो के नीचे उन्होंने अपना इंतज़ाम कर लिया. माग्दा
वसील्येव्ना की रुदाकोव के साथ फोटो ली, देखने और सुनने के
लिए आए हुए लोगों की भी फोटो ली. फिर – ख़ास तौर से रुदाकोव की किताब की, जिसे दर्शकों के सामने मेज़ पर रखा था. कवर दर्शकों के सामने था.
करीब दस मिनट बाद
अपने कैमेरे के साथ वे वहाँ से चले गए, और माग्दा वसील्येव्ना,
उनके जाने के बाद भी बोलती रही. उसने बहुत अच्छी तैयारी की थी.
रुदाकोव,
शायद, उसके भाषण को दुहरा नहीं सकता था.
यहाँ दो हफ़्तों
में एक बार लेखकों से मुलाकातों का आयोजन किया जाता है.
रुदाकोव ने अपनी
पहली किताब प्रकाशित की थी. बसन्त में ही. आखिरी बार यहाँ आया था – नवम्बर में –
हास्य लेखक उबोयनव.
अगर दूसरी तरफ़ से
देखा जाए,
तो लेखक के साथ मुलाकात, मतलब पाठकों के साथ
मुलाकात ही तो होती है; यहाँ रुदाकोव से तात्पर्य है.
पाठकों के चेहरे
से रुदाकोव समझ नहीं पा रहा था, कि उन्हें माग्दा वसील्येवा को
सुनते हुए उकताहट तो नहीं हो रही है.
उसके लिए तालियाँ
बजाई गईं.
बारहवाँ नहीं
आया.
रुदाकोव ने अपनी
लघु-रचनाएँ पढ़ना शुरू किया. उसने उन्हें परी-कथाओं का नाम दिया था. आलोचक
रुज़ोव्स्की की राय में, जिसने गर्मियों के आरंभ में रुदाकोव की किताब
की आलोचना प्रकाशित की थी, रुदाकोव की शैली में एक ख़ास लय है,
संक्षिप्तता उसकी विशेषता है.
उसे उत्साहपूर्वक
सुनते रहे,
कभी कभी हँस भी देते.
रुदाकोव की
रचनाओं में सबसे संक्षिप्त कहानी का शीर्षक था “व्वा”.
व्वा
भटकता जंगल में, छूता न किसी को.
अचानक:
“भागा दूर मैं दादी से, दादा से,
हिरन से, भेड़िए से, और तुझसे भी, ऐ रीछ, भाग ही जाऊँगा!”
झाड़ियों में कुछ लुढ़का.
व्वा, सोचता हूँ.
लकड़ी की क्यों है? ज़िंदा को बूढ़े ने
काट दिया...
मैं उसकी ओर : चर्र, चर्र. देखा,
मेरा पंजा उबल रहा बर्तन में,
रोंएँ बिखरे हैं – मतलब,
बुढ़िया ने नोच लिया. छुप गई
भट्टी पे, सोचती
है, मुझे पता
नहीं चलेगा, और
बुढ़ऊ घुस गया टब के नीचे.
खा डाला मैंने उन्हें.
ऐह, सोचता हूँ.
“बस, इतना
ही?”
“इतना ही,” रुदाकोव ने कहा.
उसके लिए तालियाँ
बजाई गईं.
“इस पाठ की
विशेषता है – उसकी लम्बाई, बहत्तर शब्द.” रुदाकोव ने कहा.
“मेरी तीन कहानियाँ बहत्तर शब्दों की हैं. डिट्टो.”
“कितना दिलचस्प
है,”
माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
सवाल पूछने लगे.
रुदाकोव से पूछा
कि उसे लेखक बनने की प्रेरणा कैसे मिली. और किताब के शीर्षक का क्या अर्थ है. यहाँ
खरगोश किसलिए?
और आधुनिक साहित्य के बारे में वह क्या सोचता है.
पूछा, कि
उसकी लिखने की मेज़ पर अभी कौन सी किताब है. और एक निर्जन टापू पर वह कौन सी तीन
किताबें ले जाना चाहेगा.
उबासी रोकने में
वह कामयाब हो गया. उसने फ़ैसला किया : लाइब्रेरी की हर कर्मचारी को कम से कम एक
सवाल पूछने पर मजबूर किया गया, वर्ना तो इतने सवाल हो ही नहीं
सकते थे. मगर, जल्दी ही उसे यकीन हो गया : बात इसके विपरीत
है. यहाँ सवाल मजबूरी में नहीं, बल्कि किन्हीं अस्पष्ट
कारणों से पूछे जा रहे हैं. शायद, इसलिए, कि बाहर नहीं निकलना चाहते, रुदाकोव ने सोचा. वह ख़ुद
भी नहीं चाहता था.
कोट-पैन्ट पहनी
एक भारी-भरकम महिला ने रुदाकोव से आधुनिक इन्सान के रहस्य के बारे में पूछा. उसने
कहा:
“मेरा ख़याल है कि
आधुनिक इन्सान के पास कोई रहस्य नहीं है. इसलिए उसके बारे में लिखना या पढ़ना
दिलचस्प नहीं है. आपका क्या ख़याल है?”
रुदाकोव का कुछ
और ख़याल था. ‘इन्सान ख़ुद ही एक रहस्य है. मगर रहस्य क्या है?’ रुदाकोव
सोच रहा था. और ‘इन्सान क्या है?’ सबको
सोचने के लिए कहा.
रुदाकोव से पूछा
: हाँ,
इन्सान क्या है?
और आधुनिक इन्सान
सामान्य रूप से इन्सान से किस तरह भिन्न है?
और : इन्सानियत
कितने समय तक रहेगी, रुदाकोव से पूछा.
और क्या ख़ुदा है, रुदाकोव
से पूछा.
उससे पूछा, कि
क्या “कुछ नहीं” का अस्तित्व है – अंशतः वहाँ, जहाँ “कुछ
नहीं” होता, और, अगर ‘कुछ नहीं” का फिर भी अस्तित्व है, तो उसे “कुछ नहीं”
कहना और इसीसे उसे कोई अर्थ प्रदान करते हुए, क्या हम “कुछ
नहीं” को “कुछ” में परिवर्तित करते हैं?
“आप बड़ों के लिए
लिखते हैं,
मगर भाषा पर काफ़ी नियंत्रण रखते हैं. आपकी किताब में अश्लील शब्द
क्यों नहीं हैं?”
इस बात में एक
अधेड़ उम्र की महिला को दिलचस्पी थी, जिसने बेमौसम काला चष्मा पहना था.
“क्या होने चाहिए?” रुदाकोव ने पूछा.
“नहीं, मैं
इस बात पर ज़ोर नहीं दे रही हूँ, कि आपकी किताब में कदम-कदम
पर गालियाँ हों, मगर पूरी तरह से उनकी अनुपस्थिति आँखों में
खटकती है...या आपको ये स्वाभाविक लगता है?”
“मैंने इस बारे
में नहीं सोचा,”
रुदाकोव हौले से बुदबुदाया.
अश्लील शब्दों पर
बहस बीच-बीच में हॉल को उत्तेजित कर जाती थी; रुदाकोव अडियलपन से ख़ामोश
रहा.
“देख रहे हैं, आपका
लेखन कैसी बहस पैदा करता है.” माग्दा वसील्येव्ना फुसफुसाई.
‘निरर्थकता’ के बारे में बात चल पड़ी. ‘निरर्थकता’ के बारे में रुदाकोव क्या सोचता है? इस बारे में
दिलचस्पी थी एक चौखाने वाले जैकेट के मालिक को, जो, अगर रुदाकोव को छोड़ दें, तो उस कमरे में अकेला मर्द
था. उसने महान निरर्थकतावादियों के नाम गिनाए, जो दुनिया भर
में मशहूर हैं. क्या इस संदर्भ में रुदाकोव अपना स्थान महसूस करता है?
“नहीं, मतलब
हाँ, मतलब नहीं” रुदाकोव ने अचानक तैश से कहा. “ ’निरर्थकता’ को मैं किसी और तरह से समझता हूँ. मानता
हूँ, कि मेरे पास काल्पनिक योजनाएँ हैं, कृत्रिम वाक्य रचनाएँ हैं, दिमागी खेल हैं, मगर ये ‘निरर्थकता’ नहीं है...’निरर्थकता’ – ये वास्तविकता है, वास्तविकता, जिसे किसी ख़ास दृष्टिकोण से देखा गया
हो. वो यहाँ है. वो हर जगह है. हर चीज़ दृष्टिकोण पर निर्भर
करती है – आप उसकी ओर कैसे देखते हैं. कोई भी घटना निरर्थक प्रतीत हो सकती
है...जैसे, मिसाल के तौर पर, आज की शाम
– सब कुछ सुनियोजित है, सही है...मगर आप किस तरह देखते
हैं...कल्पना कीजिए, कि हमारी मुलाकात के बारे में कोई कहानी
लिखता है, और वो बिल्कुल निरर्थक प्रतीत होगी.
“ज़ाहिर है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा. “अगर सब कुछ तोड़ा-मरोड़ा जाए. कुछ छुपाया जाए,
कुछ उघाड़ा जाए. व्यंग्य चित्र बनाया जाए.”
“ओह, नहीं,
मैं कुछ और कह रहा हूँ...मैं घातकता के बारे में... कैसे कहूँ...अस्पष्ट
विसंगतियों के बारे में. कल्पना कीजिए, कि हममें से कोई यहाँ
नहीं, बल्कि किसी और जगह हो सकता था – बाथ-हाउस में, या शादी में, या, हो सकता है,
मुर्दाघर में...मैं बकवास की तरह इसकी कल्पना कर सकता
हूँ...निरर्थकता की ठण्ड़क को महसूस कर रहे हैं?”
कोई भी महसूस
नहीं कर रहा था.
“ठीक है. चलिए
बकवास की तर्ज़ पर, कुछ इसी तरह की रचना करें...अभी यहीं. माग्दा वसील्येव्ना, आपके बारे में चाहती हैं?”
“मेरे बारे में?”
“वैसे, व्यक्तिगत
रूप से आपके बारे में नहीं, बल्कि किसी इन्सान के बारे में
जो आप जैसा हो. ख़ुदा बचाए, कि वो आप हों. वो आप नहीं हैं. ये
मैं स्पष्टता के लिए कह रहा हूँ.”
“आपके बारे में
ज़्यादा बेहतर होगा.”
“अच्छा. चलिए ये
मैं ही हूँ. मैं ख़ुद नहीं, बल्कि कोई लेखक, मेरे जैसा, जो आपसे...मतलब पाठकों से मिलने आया है,
जो आप जैसे हैं...हमारे लिए परिस्थिति महत्वपूर्ण है.”
“हॉल में
उत्सुकता है,”
माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
रुदाकोव ने आगे
कहा:
“किताब के लेखक
की कल्पना कीजिए – आज सुबह. वह, या जैसा आपको सुविधाजनक लगे,
चलिए, मैं हो जाता हूँ, आम
तौर से इस पात्र ने रात अनिद्रा में गुज़ारी है. बोझिल विचार और ऐसा ही बहुत कुछ.
सुबह होती है, ठण्डी, उदास...तो...”
रुदाकोव ने हाथ के इशारे से सबको रचना कार्य में शामिल होने की दावत दी. – हमारा
पात्र, ज़ाहिर है फैसला करता है...”
“नींद की गोली
लेने का,”
पहली पंक्ति में बैठी अधेड़ उम्र की महिला ने ज़ोर से कहा और वह हँसने
लगी.
“फाँसी लगा लेने
का,”
रुदाकोव ने कहा और वह भी हँसने लगा.
वह पूरी तरह सजग हो
गया. उसकी आँखें चमकने लगीं.
“ये है लेखक की
रचनात्मक रसोई,”
माग्दा वसील्येव्ना ने घोषणा की. “ इस तरह उत्पन्न होते हैं कथानक.
और, ये बड़ा दिलचस्प है, कि उसने फाँसी
लगाने का फैसला क्यों किया? ज़रा समझाइये, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?”
“फैसला कर लिया, तो
कर लिया. ज़िंदगी सही पटरी पर नहीं बैठी...कुछ भी हो सकता है...क्या फ़रक पड़ता
है...संक्षेप में, उसने एक रस्सी ली, फ़न्दा
बनाया, उस पर साबुन लगाया...”
“आजकल साबुन नहीं
लगाते,”
चौखाने वाली जैकेट वाले ने कहा, “ जूट वाली को
साबुन लगाते थी, मगर सिंथेटिक की वैसे भी बढ़िया फिसलती है.”
“जब
तक ज़िंदा हो, सीखते रहो,” थोड़ा-सा
हतप्रभ होकर रुदाकोव बड़बड़ाया.
वही पहली पंक्ति
वाली बोली:
“स्टूल पर खड़ा हो
गया.”
“झुम्बर से बांधा,” रुदाकोव उसकी ओर मुख़ातिब हुआ, मानो समर्थन के लिए
धन्यवाद दे रहा हो. “सिर को फन्दे में घुसाया. खड़ा है. गहरी साँस लेता है. और
तभी...
“टेलिफोन बजता है...”
“टेलिफोन बेहद
मामूली बात है. तभी उसकी नज़र अलार्म घड़ी पर पड़ती है. वह घड़ी की ओर देखता है, और
उसे फ़ौरन याद आता है, कि शाम को सात बजे लाइब्रेरी में उसका
भाषण- है. और इतना दुख होता है, बुरा लगता है...उसे, बेशक, इसके बिना भी दुख हो ही रहा है, मगर अब – बस नफ़रत होने लगती है. खिड़की के बाहर कोई बकवास है, हवा, आप तो समझते हैं...मगर ऐसे मौसम में पाठक आएँगे,
उसका इंतज़ार करेंगे, उसे फोन करेंगे, उसे बुरा-भला कहेंगे...राह देखेंगे-देखेंगे और अविश्वास से चले जाएँगे. और
भी बेहतर : सात बजते-बजते सबको पता चल जाएगा, उस दृश्य की
कल्पना कीजिए – आप लेखक से मिलने आए हैं, बैठ गए हैं,
बैठे हैं, राह देख रहे हैं, माग्दा वसील्येव्ना प्रकट होती है और कहती है : “शाम का प्रोग्राम कैन्सल
किया जाता है, लेखक ने ख़ुद को फाँसी लगा ली है”. जंगलीपन! चाहे
जैसे देखो, जंगलीपन ही है. उसने फ़ैसला किया, फंदे में गर्दन रखे-रखे : जाना चाहिए. शाम को जाऊँगा, और फिर लटक जाऊँगा. वर्ना ये तो ठीक नहीं है, अच्छी
बात नहीं है. जो काम शुरू किया है उसे पूरा करना चाहिए.”
“दिलचस्प है,”
माग्दा वसील्येव्ना ने कहा.
“और आगे – सब
वैसा ही, जैसा यहाँ हुआ. आया, और यहाँ टी.वी.कैमेरा – पूछते
हैं, जैसा आप पूछ रहे हैं, इस लेखक से
: अपनी किताब के माध्यम से आप क्या कहना चाहते हैं?...ऐसा
शीर्षक क्यों दिया?...यहाँ ख़रगोश किसलिए?...डेढ़ क्यों?...भविष्य के लिए आपकी योजनाएँ?...क्या आधुनिक इन्सान के पास कोई रहस्य है?...वह,
मेरे जैसा, अधिकारपूर्वक विचार व्यक्त करने का
नाटक करता है...परिस्थिति की निरर्थकता को सिर्फ वही देख रहा है. और वो भी,
जो इस कहानी को समझ रहा है – पात्रों की तुलना में ये समझने वाला
प्राणी कहीं ऊँचे स्तर पर है. कहानी बुरी नहीं बनेगी, शायद...अगर
धरती पर उतर आएँ...”
“लिखेंगे?”
मैलाकाइट के बड़े ब्रोच वाली महिला ने पूछा.
“नहीं, किसी
और को लिखने दो.”
“एक समस्या है,” माग्दा वसील्येव्ना ने कहा. “इस पात्र को ज़्यादा सुलझे हुए तरीके से काम
करना चाहिए था. अगर ऐसी मजबूरी थी तो उसे ये करना चाहिए था. वह लाइब्रेरी में फोन
कर लेता, वो तो दस बजे खुल जाती है, और
कह देता, कि बीमार हो गया है. हम शाम का प्रोग्राम कैन्सल कर
देते, और तब वो सुकूनभरे दिल से लटक सकता था.
“वैसे, ये
सही है,” कोट-पैंट वाली भरी-पूरी महिला ने कहा, “ उसने फोन क्यों नहीं किया?”
रुदाकोव ने कंधे
उचका दिये – मालूम नहीं था कि क्या जवाब देना है.
“क्योंकि निरर्थक
है,”
बूढ़ी औरत ने कहा, जिसका सुनने का यंत्र हल्की-सी
सीटी बजा रहा था.
माग्दा
वसील्येव्ना उठी.
“इसी आशावादी सुर
से आज की शाम को समाप्त करने की इजाज़त दें. इस उल्लेखित ‘निरर्थकता’
का अनादर करते हुए, मुझे अपने मेहमान को
खूब-खूब धन्यवाद देने की इजाज़त दें और उन्हें, ज़ाहिर है,
एक ‘सार्थक’ भेंट देने
की इजाज़त दें...जो बिल्कुल निरर्थक नहीं है...बेलिन्स्की की, उस व्यक्ति की अर्ध-प्रतिमा, जिसके नाम से हमारी
लाइब्रेरी जानी जाती है.”
तालियों के बीच
रुदाकोव ने भेंट स्वीकार की. बेलिन्स्की की अर्ध-प्रतिमा एक गिलास से ज़्यादा बड़ी
नहीं थी. फिर रुदाकोव ने ऑटोग्राफ्स दिए.
फिर लाइब्रेरी के
कर्मचारियों के छोटे-से समूह में उसने बिस्कुटों के साथ चाय पी. सम्माननीय
मेहमानों को पेश की जाने वाली कोन्याक भी मौजूद थी, बातचीत काफ़ी आत्मीय थी.
लाइब्रेरियन्स के
साथ,
जो उसे छोड़ने मेट्रो तक आई थीं, दुनिया की
पॉलिटिक्स के बारे में बातचीत के बीच उसे पता नहीं चला कि हवा थम चुकी थी. मगर
फिसलन हो गई थी. कोट-पैंट वाली भारी-भरकम महिला ने बड़ी देर तक उसे अकेले नहीं छोड़ा.
घुमौने दरवाज़े ने
भी उसे बड़ी देर तक भीतर नहीं जाने दिया. ड्यूटी-ऑफिसर को सहायता करनी पड़ी.
निरर्थकता हमेशा
विनाशक नहीं होती. वह कभी-कभी रचनात्मक भी होती है, कभी-कभी मनुष्य के लिए बचाव
का कारण भी बन जाती है. इस मौलिक विचार से रुदाकोव का ध्यान एक उद्घोषणा ने हटाया
: एस्केलेटर पर मौजूद सभी व्यक्तियों को सलाह दी जा रही थी कि किन्हीं लावारिस
वस्तुओं को हाथ न लगाएँ और प्लेटफॉर्म के बिल्कुल किनारे पर न जाएँ.
रेलिंग़ को पकड़े
हुए,
उसने अपनी कम्पार्टमेन्ट वाली आदत के मुताबिक जोश से पढ़ने वालों और
सुनने वालों की संख्या के अनुपात की गिनती कर डाली – परिणाम पहले वालों के पक्ष
में नहीं था, सही-सही कहें तो, शून्य
के बराबर – क्योंकि, निराशाजनक ढंग से, आज कम्पार्टमेन्ट में कुछ न कुछ पढ़ने वाले अनुपस्थित थे; अगर, बेशक, क्रॉसवर्ड्स हल
करने वालों को न गिना जाए तो.
कम्पाऊण्ड में हैच
से भाप आ रही थी. भाप – अभी तक. वह सुबह भी आ रही थी.
दूसरी और तीसरी
मंज़िल के बीच रुदाकोव को एक बेघर इन्सान को पार करके जाना पड़ता था, जो
बैटरी के पास गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ा रहता था. रुदाकोव को ये पसंद नहीं था, मगर जब बात ऐसी ही थी, तो वह सदा इससे समझौता करने
के लिए तत्पर रहता था.
कल भीड़-भाड़ वाली
सड़क पर उसे एक दाढ़ीवाला मिल गया, जो अपने कंधों पर – बिल्कुल ऐसा
ही! कचरे वाला बोरा रखकर ले जा रहा था. उसने रुदाकोव से सौ
रूबल्स मांगे, ताकि “यहाँ से जा सके”. रुदाकोव ने नहीं दिए.
तब उसने रुदाकोव से कहा : “तुम दुष्ट हो, भाई”.
कोई लिफ्ट में
ऊपर जा रहा था. मतलब, काम कर रही है. रुदाकोव सोच रहा था, कि बंद पड़ी है. “चलो, ठीक है”, रुदाकोव ने पाँचवीं मंज़िल पर चढ़ते हुए अपने आप से कहा.
किसी सुअर के
बच्चे ने घंटी पर च्युइंग गम लगा दिया था. ये तो अच्छा था, कि
रुदाकोव को घंटी बजाने की ज़रूरत नहीं थी – उसने चाभी से दरवाज़ा खोला.
साबुन की गंध आई.
रुदाकोव प्रवेश
कक्ष से गुज़रा,
लिनोलियम पर पैरों के निशान छोड़ते हुए – साबुन का डबरा कब का सूख
चुका था.
वह किचन की ओर
जाने वाले दरवाज़े की तरफ़ पीठ किए था, जिससे कि रस्सी न देखे. कल निकाल
देगा, कल सब कुछ हटा देगा.
बिना कपड़े उतारे दीवान
पर गिर पड़ा,
जैसे गढ़े में गिर पड़ा हो.
कल, सब कल.
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