बोबक
फ्योदर मिखाइलविच दस्तयेव्स्की
अनुवाद – आ. चारुमति रामदास
इस बार “एक व्यक्ति के नोट्स” दे रहा हूँ. ये मैं नहीं बल्कि कोई और इन्सान है.
मेरा खयाल है की किसी अन्य प्रस्तावना की ज़रूरत नहीं है.
एक
व्यक्ति के नोट्स
सिम्योन अर्दाल्योनविच ने तीसरे दिन मुझसे कहा:
“इवान
इवानविच, मेहेरबानी करके बताओ, कि क्या तुम कभी होश में रहोगे?”
अजीब माँग है. मैं बुरा नहीं मानता, मैं डरपोक किस्म का आदमी हूँ, मगर, फिर
भी उन्होंने मुझे पागल बना दिया. चित्रकार
ने संयोगवश मेरा चित्र बना दिया : “बोला, वैसे भी
तुम साहित्यकार हो” मैं मान गया. उसने प्रदर्शित कर दिया. मैंने पढ़ा, उसके नीचे
लिखा था : “आइये, इस बीमार, पागल जैसे चेहरे को देखिये.”
चलो, जाने दो, मगर सीधे
छपवा दिया? प्रेस में सब कुछ अच्छा ही जाना चाहिये, कुछ आदर्श होने चाहिये, मगर
यहाँ...
कम से कम घुमा-फ़िरा के कहो. कि तुम क्या कहना चाहते हो. नहीं, वह घुमा-फ़िरा के कहना ही नहीं चाहता. आजकल हास्य और
अच्छी शैली लुप्त होते जा रहे हैं, और व्यंग्य के स्थान पर गालियों का प्रयोग
होने लगा है. मैं बुरा नहीं मानता : ख़ुदा ही जानता है, कि कौन
साहित्यकार पागल हो जायेगा. लघु-उपन्यास लिखा – नहीं छापा. व्यंग्यात्मक लेख लिखा
– अस्वीकार कर दिया. इन व्यंग्यात्मक लेखों को मैं अनेक प्रकाशकों के पास ले गया, सबने इनकार कर दिया. बोले “ आप में वो बात नहीं है, नमक नहीं है.”
“कौनसा नामक चाहिए तुझे? एटिक वाला? (यहां
तीक्ष्ण व्यंग्य से तात्पर्य है – अनु.)
उसे
समझ में ही नहीं आता. अधिकांशतः मैं पुस्तक विक्रेताओं के लिए फ्रांसीसी से अनुवाद
करता हूँ. व्यापारियों के लिए इश्तेहार भी लिखता हूँ : “अजूबा! पेश है, लाल-लाल चाय अपने बागानों से....” स्वर्गीय
महामहिम प्योत्र मत्वेयेविच के स्तुतिगान के लिए अच्छी खासी रकम मिल गई. पुस्तकविक्रेता
के आदेश पर “महिलाओं को लुभाने की कला” लिख डाली.इस तरह की करीब छः पुस्तिकाएँ
अपने जीवन में लिख डालीं. वोल्टेयर के व्यंग्यों को संकलित करना चाहता हूँ, मगर डरता हूँ कि हमारे लोगों को फीके न नजर आएं. अब कहां का वाल्टेयर;
आजकल तो सभी ठस-दिमाग हैं न कि वाल्टेयर! एक-दूसरे के बचे-खुचे दांत तक निकाल दिए!
बस, इतना ही है मेरा साहित्यिक कार्यकलाप. प्रकाशन गृहों में
अक्सर मुफ्त में पत्र भेज दिया करता हूँ, अपने पूरे हस्ताक्षर के साथ. हर तरह के उपदेश और सलाह देता
हूँ, आलोचना करता हूँ और रास्ता दिखाता हूँ. एक प्रकाशन गृह में तो पिछले दो सालों
से पत्र भेज रहा हूँ,
पिछले हफ्ते उन्हें चालीसवां पत्र भेजा: सिर्फ डाक टिकटों पर चार रूबल्स खर्च कर
दिए. स्वभाव से मैं सनकी हूँ, और क्या.
मेरा
ख़याल है कि चित्रकार ने साहित्य की खातिर मेरा चित्र नहीं बनाया, अपितु मेरे
पर स्थित दो सममितीय तिलों की खातिर बनाया : जैसे कोई अद्भुत चीज़ हो. कल्पनाशक्ति
तो है नहीं, तो अब वे अद्भुत चीजों पर ध्यान देते हैं. और उसके चित्र में मेरे तिल
कैसे नजर आ रहे हैं – जैसे बिल्कुल ज़िंदा हों! वे इसे यथार्थवाद कहते हैं.
और जहाँ तक पागलपन का सवाल है, तो पिछले साल हमारे यहाँ अनेक लोगों
को पागल करार दे दिया गया. और कहा क्या : ऐसी, कहते हैं, मूल प्रतिभा के होते
हुए...मगर इसका आख़िरी अंजाम क्या हुआ...वैसे, इसे बहुत पहले समझ जाना चाहिए था...” ये बड़ी चालाकी की बात है; अतः शुद्ध कला की दृष्टी से उसकी
तारीफ़ भी करनी चाहिए. मगर वे और भी होशियार निकले. हमें तो पागल बनाने पर तुले हैं, मगर किसी को ज़्यादा अक्लमंद भी नहीं
बनाया.
मेरे खयाल से सबसे ज़्यादा अक्लमंद वह है जो एक महीने में
कम से कम एक बार खुद को पागल कहता है. – ये योग्यता आजकल सुनने में नहीं आती! पहले, पागल, साल में कम से कम एक बार तो अपने
बारे में जानता था कि वह पागल है, मगर अब – बिलकुल नहीं. और बातें इस हद तक उलझ
गईं कि बेवकूफ़ और अक्लमंद में फ़र्क ही नहीं कर सकते. ऐसा उन्होने जानबूझकर किया.
एक स्पैनिश व्यंग्य याद आता है, जब फ्रांसीसियों ने, ढाई
शताब्दी पहले अपने यहाँ पहले पागलखाने का निर्माण किया था: “उन्होंने अपने सभी
मूर्खों को एक विशेष घर में बंद कर दिया, यह यकीन दिलाने के लिए कि वे खुद अक्लमंद
इंसान हैं.” इसका सीधे-सीधे यही मतलब हुआ: कि दूसरे को पागलखाने में बंद करके अपनी
बुद्धिमत्ता साबित नहीं कर सकते. “ ‘क’ पागल हो गया, इसका मतलब ये हुआ कि अब हम बुद्धिमान हें”. नहीं अभी
इसका मतलब यह नहीं होता.
खैर, जहन्नुम में जाएँ....और यह,
कि मै अपने दिमाग से बिदा ले चुका हूँ : बडबडाता रहता हूँ, बडबडाता रहता हूँ,
बडबडाता रहता हूँ. यहाँ तक कि अपनी नौकरानी को भी बेज़ार कर दिया है. कल दोस्त आया
था: “कहता है,
तुम्हारी शैली बदल रही है, टूटी-फूटी हो रही है. तोड़ रहे हो, तोड़ रहे हो – प्रस्तावना का वाक्य,
प्रस्तावना-वाक्य के साथ एक और प्रस्तावना वाक्य, फिर कोष्ठकों में कुछ और रखते हो, और बाद
में फिर उसे तोड़ते हो,
तोड़ते हो...”
दोस्त
सही है. मेरे साथ कुछ अजीब बात हो रही है. और मेरा स्वभाव भी बदल रहा है, और सिर
दर्द करता है. मैं अजीब-अजीब चीज़ें देखने और सुनने लगता हूँ. मतलब आवाजे तो नहीं,
मगर ऐसे,
जैसे मेरे नज़दीक कोई कह रहा हो : “बोबक,बोबक, बोबक!” (“बोबक”
का अर्थ है धरती में पड़ा हुआ बीज, जो प्रस्फुटित भी हो सकता है और नष्ट भी हो सकता है.
इस शब्द को ऐसे ही रहने दिया गया है – अनु.)
कहां
का बोबक? दिल बहलाना चाहिए.
दिल
बहलाने के लिए निकल पड़ा, अंतिम यात्रा में पहुँच गया. दूर का रिश्तेदार. सरकारी
अफसर था छठी श्रेणी का. विधवा, पांच बेटियां, सभी कुंआरी. सिर्फ जूतों का खर्चा है, काम चल
जाएगा! मृतक ने खूब पैसे ऐंठे,
मगर अब – थोड़ी सी पेंशन. दुम दबाए घूमेंगी. मेरा हमेशा अप्रियता से स्वागत होता
था. इस समय भी मैं नहीं जाता अगर ऐसी आपातकालीन स्थिति न होती. औरों के साथ
कब्रिस्तान गया;
सबा मझसे दूर-दूर रहते हैं और बड़ा फख्र महसूस करते हैं. मेरा यूनिफार्म वाकई में
बहुत बुरी हालत में है. शायद,
मैं क़रीब पिछले पच्चीस साल से कब्रिस्तान नहीं गया हूँ; ये भी क्या जगह है!
पहली
बात, माहौल.
करीब पंद्रह मृतक पहुंचे थे. अलग-अलग कीमत के ताबूतो के ढक्कन; दो खुली
ताबूत-गाड़ियां भी थीं: एक किसी जनरल की और दूसरी किसी महिला की. कई मातमी चेहरे थे, और कई
बनावटी मातम का मुखौटा ओढ़े,
और कई सारे तो खुल्लम-खुल्ला खुश नज़र आ रहे थे. चर्च के कर्मचारियों की तो पूछो ही
मत : अच्छी खासी आय हो जाती है. मगर माहौल, माहौल. मैं कभी भी यहाँ का पादरी नहीं बनना चाहता.
अपनी
संवेदनशीलता पर भरोसा न करते हुए मृतकों के चेहरे देखने लगा. उन पर सौम्य भाव हैं, अप्रिय भी
हैं. आम तौर से मुस्कानें अच्छी नहीं हैं, किसी किसी की तो बेहद अप्रिय हैं. मुझे अच्छा नहीं
लगता;
सपनों में आते हैं.
प्रेयर के समय चर्च से बाहर खुली हवा में निकल गया; दिन भूरा, बोझिल, मगर सूखा था. और ठंडा भी; ठीक तो है, अक्टूबर आ गया है. कब्रों के चक्कर लगाने लगा. अलग-अलग श्रेणियाँ हैं.
तीसरी श्रेणी तीस रुबल्स में, ठीक-ठाक है और उतनी महंगी भी नहीं है. पहली दो श्रेणियाँ चर्च के भीतर और पोर्च में हैं; ये चुभती हैं. इस बार तीसरी श्रेणी में करीब छः आदमियों को दफनाया गया, जिनमें जनरल और महिला भी.थे.
कब्रों में झाँककर देखा – भयानक: उनमें पानी ही पानी था, और वो भी कैसा
पानी! एकदम हरा! और...चलो. ठीक है! कब्र खोदने वाला हर मिनट उसे तसले से बाहर उलीच
रहा था. जब तक सर्विस चल रही थी, गेट के बाहर घूमने निकल
गया. यहाँ भंडारघर है, और कुछ आगे एक रेस्टारेंट. रेस्टारेंट ठीक-ठाक
ही था: थोडा सा खा लो, और बस. बिदा देने वालों में से भी बहुत सारे
लोग वहां भरे थे. काफी हार्दिक प्रसन्नता और जिंदादिली नज़र आई. मैंने थोड़ा सा खाया
और पिया.
इसके बाद खुद भी ताबूत को कंधा देकर कब्र तक ले जाने में सहायता की. ये
मुर्दे ताबूत में इतने भारी क्यों हो जाते हैं? कहते हैं कि किसी निष्क्रियता के कारण, कि शरीर का खुद पर नियंत्रण नहीं
रहता...या इसी तरह की बकवास; जो यांत्रिकी और सामान्य
ज्ञान के विपरीत है. मुझे अच्छा नहीं लगता कि एक सामान्य शिक्षा के होते हुए हमारे
यहाँ कई-कई विशेषताएं बन जाती हैं; खासकर हमारे यहाँ तो बेहद ज़्यादा बन जाती हैं.
सिविल सर्विस वाले लोग फ़ौजी और यहाँ तक कि फ़ील्डमार्शल के मामलों पर बहस
करने लगते हैं, और इन्जीनियरिंग की शिक्षा पाए हुए लोग ज्यादातर
दर्शनशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में बहस करते हैं.
फ्यूनरल सर्विस में नहीं गया. मैं स्वाभिमानी हूँ, और अगर मेरा सिर्फ मजबूरी में स्वागत किया जाता है, तो उनके डिनर पर भी क्यों जाना, चाहे वह फ्यूनरल-डिनर ही
क्यों न हो? बस, यही समझ में नहीं आ रहा है कि मैं
कब्रिस्तान में क्यों रुक गया; एक स्मारक पर बैठ गया और
इसी तरह का कुछ सोचने लगा.
मॉस्को-एक्ज़िबीशन के बारे में सोचने लगा, और आश्चर्य के बारे में ख़त्म किया, जैसे किसी विषय के बारे में हो. “आश्चर्य” के बारे में मैंने यह निष्कर्ष
निकाला:
“हर बात पर आश्चर्य करना, बेशक बेवकूफी है, और किसी भी बात पर आश्चर्य न करना काफी अच्छा है और न जाने क्यों इसे
अच्छी आदत मान लेता हूँ. मगर वास्तव में मुश्किल से ही ऐसा होता है. मेरे ख़याल में
किसी भी बात से आश्चर्यचकित न होना ज़्यादा बड़ी बेवकूफी है, बनिस्बत हर चीज़ से आश्चर्यचकित होने के. और इसके अलावा, किसी भी बात पर आश्चर्य न करना करीब-करीब वैसा ही है, जैसे किसी भी चीज़ की इज्ज़त न करना. और बेवकूफ आदमी इज्ज़त नहीं भी कर
सकता.”
“हाँ, सबसे पहले, मैं इज्ज़त करना चाहता हूँ.
मैं इज्ज़त करने के लिए लालायित हो रहा हूँ” मुझसे एक बार किसी परिचित ने कहा था.
वह इज्ज़त करने के लिए लालायित है! ओह खुदा, मैंने सोचा, अगर मैं इसे प्रकाशित करने की गुस्ताखी कर दूं
तो तुम्हारा क्या होगा!
और मैं ख्यालों में खो गया. कब्र के ऊपर खुदे हुए शिलालेख पढ़ना मुझे अच्छा
नहीं लगता, ‘चिर-स्मृति’ भी. मेरी बगल में एक पत्थर
पर आधा खाया हुआ सैण्डविच पड़ा था: निहायत बेवकूफी और इस जगह के लिए अजीब. मैंने
उसे धरती पर फेंक दिया, क्योंकि यह ब्रेड नहीं बल्कि सिर्फ सैण्डविच है. वैसे धरती
पर ब्रेड के टुकड़े फेंकना, शायद गुनाह नहीं है; फर्श पर फेंकना गुनाह है. सुवोरिन के कैलेण्डर में देखना पड़ेगा.
शायद मैं काफ़ी देर बैठ गया, बहुत ही ज़्यादा; मतलब, संगमरमर की कब्र जैसे लम्बे पत्थर पर लेट भी
गया. और, ऐसा कैसे हुआ कि मैं अचानक विभिन्न चीज़ें
सुनने लगा? पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया और इस बात पर
संदेह करने लगा. मगर, बातचीत चलती रही/ सुन रहा हूँ – घुटी-घुटी
आवाजें, जैसे मुँह तकियों से बंद किये गए हों; मगर फिर भी वे स्पष्ट और काफी निकट थीं. जाग गया, उठकर बैठा और ध्यान से
सुनाने लगा.
“महामहिम, ये किसी भी तरह संभव नहीं है. आपने पान का
पत्ता डिक्लेयर किया था, मैं ह्विस्ट (ताश का खेल
– कोटपीस – अनु.) खेल रहा हूँ, और अचानक आपके पास – ईंट की सत्ती. आपको पहले
ही ईंट के बारे में बताना चाहिए था.”
“ये क्या, मतलब. मुँह-जुबानी खेलना? उसमें क्या मज़ा है?”
“नामुमकिन, महामहिम, बिना ग्यारंटी के बिलकुल नामुमकिन है. किसी बदमाशा के साथ खेलना ज़रूरी है, और वो भी सिर्फ ‘ब्लैक’.
“खैर, बदमाशा को तो यहाँ नहीं ढूँढ सकते.”
मगर, कितने मग़रूर लब्ज़ हैं! वो भी अजीब और
अप्रत्याशित. एक भारी, खनखनाती आवाज़ है, दूसरी मुलायम, मीठी; अगर खुद न सुनता तो यकीन नहीं करता. प्रेयर
मीटिंग में मैं, शायद, गया नहीं था. और, आखिर, ‘प्रेफेरेंस’ के बारे में यहाँ कैसे बात हो
रही है, और ये जनरल कौन है? इसमें कोई शक नहीं था कि ये आवाजें कब्रों के नीचे से आ रही हैं. मैंने
झुककर स्मारक पर लिखी इबारत को पढ़ा:
“यहाँ घुड़सवार दस्ते के, फलां-फलां मेडल्स से सम्मानित मेजर-जनरल
पेर्वायेदव का पार्थिव शरीर विश्रान्ति ले रहा है.” हुम्. मृत्यु इस साल अगस्त में
हुई...सत्तावन साल...लेता रह विश्रान्ति प्यारे पार्थिव, खुशनुमा सुबह होने तक!:
हुम्, शैतान ले जाए, वाकई में जनरल! दूसरी कब्र
पर, जहाँ से चापलूसी भरी आवाज़ आ रही थी, अभी तक स्मारक नहीं था; सिर्फ टाइल थी; शायद कोइ नया हो. आवाज़ से कोर्ट का कौंसिलर लगता है.
“ओह-हो-हो-हो!” एकदम नई आवाज़ सुनाई दी, जनरल वाली जगह से दस मीटर दूर और बिलकुल ताज़ी कब्र के नीचे से. – पुरुष की
आवाज़ और सामान्य आदमी की मगर भले-प्यारे अंदाज़ में, नर्म-नाज़ुक.
“ओह-हो-हो-हो!”
“आह, वह फिर से हिचकियाँ ले रहा है!” अचानक. नकचढ़े
अंदाज़ में, जैसे उच्च समाज की महिला की कर्कश और चिडचिडी आवाज़ आई. “कैसी सज़ा है
मेरे लिय इस दुकानदार की बगल में रहना!”
“कोई हिचकी-विचकी नहीं ली मैंने, और कुछ खाया भी नहीं है, यह मेरी आदत ही है. मगर आप, मैडम अपने यहाँ के नखरों से
बाज़ नहीं आ सकतीं.”
“तो आप यहाँ लेटे ही क्यों थे?”
“मैं खुद नहीं लेटा था, लिटा दिया मुझे, लिटा दिया बीबी और छोटे बच्चों ने. मृत्यु का संस्कार! आपकी बगल में तो
मैं किसी कीमत पर नहीं लेटता, सोने की मुहरों के बदले भी नहीं, अपने पैसे देकर लेटा हूँ, अगर कीमत की तरफ ध्यान दें तो. क्योंकि अपनी
कब्र को तीसरी श्रेणी में रखना हमारे लिए संभव है.”
“जमा करता रहा; लोगों को ठगता रहा?”
“आपको कैसे ठग सकता हूँ, अगर जनवरी से आपकी तरफ से कोई भुगतान ही नहीं हुआ
है. दूकान में आपके नाम का खाता है.”
“आहा, ये तो सरासर बेवकूफी है; मेरे ख़याल में, यहाँ, उधारी वसूल करना बहुत बड़ी बेवकूफी है! ऊपर जाओ.
भतीजी से पूछो, वह वारिस है.”
“अब कहाँ पूछना और कहाँ जाना. दोनों सीमा तक पहुँच चुके हैं और खुदा के
इन्साफ के सामने बराबर के गुनाहगार हैं.”
“बराबर के गुनाहगार!” मृतक महिला ने तिरस्कार से उसे चिढ़ाया. “मुझसे बात
करने की ज़रा भी हिम्मत न करना!”
“ओह-हो-हो-हो-हो!”
“मगर, दुकानदार तो महिला की बात सुनता है, महामहिम.”
“आखिर क्यों नहीं सुनेगा?”
“हाँ, जाहिर है, महामहिम, क्योंकि यहां नई व्यवस्था है.”
“ये कैसी नई व्यवस्था है?”
“आखिर, सच कहें तो, हम मर चुके हैं, महामहिम.”
“आह, हाँ! मगर फिर भी व्यवस्था तो है...”
“हाँ, उधार दिया; कहने की कोई बात ही नहीं है, धीरज बंधाया! अगर यहाँ भी
बात इस हद तक पहुँची है, तो ऊपर वाली मंजिल के बारे
में कहना ही क्या है? आखिर, कैसी-कैसी बातें हैं! मगर, सुनता रहा, चाहे बेहद नाराजगी से ही सही.”
“नहीं, मै कुछ और ज़िंदा रहता! नहीं...मैं, पता है...मैं और ज़िंदा रहता!...” अचानक जनरल और चिडचिड़ी महिला के बीच की
खाली जगह से किसी की नई आवाज़ सुनाई दी.
“सुन रहे हैं, महामहिम, हमारा वाला फिर वही कहे जा रहा है.
तीन दिन खामोश रहता है, और अचानक, “मैं और ज़िंदा रहा जाता, नहीं मैं और ज़िंदा रहा
जाता!” और देखिये, ऐसी शिद्दत से, ही-ही!”
“और छिछोरेपन से.”
“ये ख्वाहिशा उसे खाए जाती है, महामहिम, और, जानते हैं, वह सो जाता है, बिलकुल सो जाता है, अप्रैल से यहाँ है, और अचानक: “मैं और ज़िंदा रह
जाता!”
“मगर, फिर भी , उबाऊ है,” महामहिम ने टिप्पणी की.
“उबाऊ है, महामहिम, क्या अव्दोत्या इग्नात्येवा को फिर
से सताया जाए, ही-ही?”
“नहीं, मेहेरबानी से जाने दो. इस बदहवास चुड़ैल को
बरदाश्त नहीं कर सकता.”
“बल्कि, इसके विपरीत, मैं आप दोनों को बरदाश्त नहीं कर सकती,” चुड़ैल तैश से चीखी. “आप दोनों परले दर्जे के उबाऊ हैं और कोइ भी अच्छी
बात नहीं कह सकते. मैं, आपके बारे में, महामहिम, - कृपया अकड़ मत दिखाइये, - आपके बारे में एक किस्सा जानती हूँ कि कैसे दरबान ने सुहागरात वाले पलंग
के नीचे से आपको सुबह झाडू से बाहर निकाला था.”
“खतरनाक औरत!” जनरल ने दांत पीसे. “अम्मा. अव्दोत्या इग्नात्येव्ना,” दुकानदार फिर से बिसूरने लगा, “ मालकिन मेरी, कडवाहट को
याद रखे बिना, मुझे बताओ कि मैं ये तकलीफा क्यों झेल रहा
हूँ, या कुछ और हो रहा है?”
“आह, ये फिर से शुरू हो गया, मुझे अंदाजा तो था, क्योंकि उससे बू आ रही है, बू, और ये लोट-पोट कर रहा है!”
“मैं लोटपोट नहीं कर रहा हूँ, अम्मा, और मुझसे ऐसी कोइ ख़ास बू भी नहीं आ रही है, क्योंकि जब पूरे जिस्म में था, मैंने अपने आप को संभाल कर रखा था, मगर आप, मैडम
इतनी परेशान हो गईं, क्योंकि बू वाकई में
बर्दाश्त से बाहर है, इस जगह पर भी. सिर्फ शराफत के मारे खामोश
हूँ.”
“आह, ज़लील करने वाले शैतान! तुझसे ही बू आ रही है, और वह मुझ पर इलज़ाम लगा रहा है...”
“ओह-हो-हो-हो! कम से कम हमारे चालीसे वाले ही जल्दी आ जाते: आंसुओं से
लबालब उनकी आवाजें अपने ऊपर सुनूँगा, बीबी का विलाप और बच्चों का खामोश रोना!...”
“लो, किसलिए रोएंगे : खायेंगे, पियेंगे और चले जायेंगे. आह, कम से कम कोई तो जाग जाता!”
“अव्दोत्या इग्नात्येव्ना,” चापलूस अफसर बोला. “ज़रा देर रुक जाईयें, नए लोग
बोलने लगेंगे.”
“क्या उनके बीच जवान लोग हैं?”
“जवान भी हैं, अव्दोत्या इग्नात्येव्ना. नौजवान भी है.”
“आह, कितनी अच्छी बात है!”
“क्या हुआ, क्या अभी शुरू नहीं किया?” महामहिम ने पूछा.
“तीसरे दिन वाले भी अभी नहीं जागे हैं, महामहिम, आप गौर फरमाइए, कभी-कभी एक हफ्ता भी खामोश रहते हैं. ये तो अच्छा है कि उन्हें कल, तीसरे दिन और आज एक साथ अचानक ले आये. वरना तो हमारे चारों और पच्चीस मीटर
के घेरे में पिछले साल वाले ही हैं.”
“हाँ, बात तो दिलचस्प है.”
“महामहिम. आज सेवारत प्रिवी कौंसिलर तरासेविच को दफनाया गया. मैंने आवाजों
से पहचाना. उसका भतीजा मेरा परिचित है, अभी ताबूत को दफनाया.”
“यहाँ पर कहाँ है वो?”
“ये रहा, आपसे करीब पाँच कदम दूर, महामहिम, बाईं और. करीब-करीब आपके पैरों के पास...आपको मुलाक़ात कर लेना
चाहिए.”
“हुम्, नहीं...मैं ही क्यों पहल करूँ...”
”वहा खुद ही शुरुआत करेगा, महामहिम. वह चापलूसी भी
करेगा, यह काम मुझ पर सौंपिए , महामहिम, और मैं...”
“आह, आह...आह, ये मुझे क्या हो रहा है?” अचानक एक नई, घबराई हुई आवाज़ फूटी.
“नई, महामहिम, नई, खुदा का शुक्र है, और कितनी जल्दी! कभी-कभी तो एक-एक हफ्ता चुप रहते हैं.”
“आह, लगता है, जवान आदमी है,” अव्दोत्या इग्नात्येव्ना चीखी.
“मैं...मैं...मैं किसी जटिलता के कारण और इतने अकस्मात्!” जवान आदमी फिर से
बडबड़ाया. “मुझसे शुल्ट्स ने शाम को ही कहा था : आपका ‘केस’, बोला, उलझ गया है, और मैं अचानक सुबह मर भी
गया. आह! आह!”
“कुछ भी नहीं किया जा सकता, नौजवान,” प्यार से और स्पष्ट रूप से नवागन्तुक पर खुश होते हुए टिप्पणी की ,“ अपने
आप को धीरज देना होगा! हमारी इस, क्या कहते हैं, जोसेफात घाटी में आपका स्वागत है. हम भले आदमी हैं, जानोगे और सराहना करोगे. आपकी खिदमत में हाज़िर हूँ , मैं मेजर-जनरल वसीली
वसील्येव पेर्वायेदव.”
“आह, नहीं! नहीं, नहीं, ऐसा मैं किसी हालत में नहीं कर सकता! मैं
शुल्ट्स के पास जाता हूँ ; मेरा ‘केस’, पता है, उलझ गया है, पहले सीने में जकड़न और खाँसी, और
फिर ज़ुकाम हो गया: बलगम और फ़्लू... और फिर अकस्मात् ...ख़ास बात, एकदम अकस्मात्.”
“आप कह रहे हैं, पहले सीना,” अफसर हौले से बातचीत में शामिल हो गया, जैसे नवागंतुक का हौसला बढ़ा रहा
हो.
“हां, सीना और बलगम, और फिर अचानक बलगम गायब हो गया और सीना, और सांस नहीं ले पा रहा हूँ ...और
जानते हैं...”
“जानता हूँ, जानता हूँ . मगर यदि सीने की तकलीफ है, तो एको के पास जाना चाहिए, न कि शुल्ट्स के पास.”
“और मैं, पता है, बोत्किन के पास जाने वाला था...और अचानक...”
“मगर बोत्किन चुभता है,” जनरल ने टिप्पणी की.
“आह, नहीं, नहीं वहा बिलकुल नहीं चुभता; मैंने सूना है कि वह इतना
ध्यान देता है और सब कुछ पहले ही बता देता है.”
“महानुभाव का इशारा उसकी फ़ीस की तरफ़ था,” अफसर ने उसे सुधारा.
“आह, ये आप क्या कह रहे हैं, सिर्फ तीन रुबल्स, और वह इतनी अच्छी तरह जांच करता है, और नुस्खा ...और मैं बिलकुल यही चाहता था, क्योंकि लोगों ने मुझसे कहा था...आपका क्या खयाल है, महाशयों, मुझे क्या करना चाहिए, एको के पास जाऊँ या बोत्किन के पास?”
“क्या? कहाँ,” प्यारा-सा ठहाका लगाते हुए जनरल की लाश झूमने लगी. अफसर ने भी जोर से
हँसते हुए उसकी नक़ल की.
“प्यारे बच्चे, प्यारे, खुशगवार बच्चे , मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ!” अव्दोत्या
इग्नात्येव्ना जोश से चिल्लाई. “अगर बगल में ऐसे किसीको लिटाया जाए तो!”
नहीं, मैं इसकी इजाज़त नहीं दे सकता! और ये मॉडर्न
मुर्दा है! खैर, आगे सुनना चाहिए और जल्दी में कोइ निष्कर्ष नहीं
निकालना चाहिए. ये बच्चा नया है – मैं उसे अभी-अभी ताबूत में देखकर आया हूँ, याद है - घबराए हुए चूजे का भाव, दुनिया में सबसे घिनौना! खैर, सुनें, आगे क्या हो रहा है.
मगर आगे तो इतना हंगामा हुआ कि मैं हर बात याद न रख सका, क्योंकि बहुत सारे मुर्दे एकदम जाग गए: अफसर जाग गया, जो शासकीय सलाहकार
था, और फ़ौरन जनरल से मिनिस्ट्री की नई सब-कमिटी के प्रोजेक्ट के बारे में, वहां
के मामलात के बारे में और सब- कमिटी से संबंधित अफसरों के तबादलों के बारे में शुरू
हो गया, जिसने जनरल को अधिकाधिक आकर्षित कर लिया. स्वीकार करता हूँ कि मुझे काफी नई
बातें मालूम हुईं, कि कैसे-कैसे तरीकों से इस राजधानी में
प्रशासकीय समाचार मालूम किये जाते हैं. इसके बाद एक इंजीनियर आधा जागा, मगर बड़ी देर
तक निरर्थक बडबडाता रहा, जिससे हमारे लोगों में से
किसीने उसे परेशान नहीं किया, और फिलहाल उसे पड़े रहने दिया. अंत में कब्र के
उत्साह के लक्षण उस कुलीन महिला में भी प्रकट हुए जिसे सुबह खुली ताबूत-गाडी में
दफनाया गया था. लेबेज्यात्निकव (जनरल पेर्वायेदव की बगल में दफ़न चापलूस और घिनौने
कोर्ट-कौंसिलर का यही नाम था), बहुत परेशान और हैरान था कि इस बार सब कितनी जल्दी
जाग रहे हैं. मानता हूँ कि मैं भी हैरान था; वैसे, जागे हुए कुछ लोग तीन दिन पहले दफनाये गए थे, जैसे, मिसाल के तौर पर एक बेहद जवान, सिर्फ सोलह साल की लड़की, जो हमेशा खिलखिलाया करती थी – गंदी और घिनौनी
खिलखिलाहट थी उसकी.
“महामहिम, प्रिवी-कौंसिलर तरासेविच जाग रहे हैं,” अचानक बड़ी जल्दबाजी से लेबेज्यात्निकव ने सूचना दी.
“आँ? क्या?” जाग चुका प्रिवी-कौंसिलर अचानक नकचढी और
तोतली आवाज़ में बुदबुदाया. उसकी आवाज़ कुछ सनकी, हुकूमतभरी थी. मैं उत्सुकता से सुनने लगा, क्योंकि पिछले कुछा दिनों में मैंने इस तरासेविच के बारे में कुछ सुना था
- परले दर्जे का लुभावना और परेशान करने वाला.
“ये मैं हूँ , महामहिम, अभी तक तो सिर्फ मैं.”
“क्या कह रहे हो और तुम्हें क्या चाहिए?”
“सिर्फ आपकी सेहत के बारे में जानना चाहता था, महामहिम; आदत न होने की वजह से शुरू में काफी घुटन
महसूस होती है...जनरल पेर्वायेदव आपसे परिचय करने का सम्मान प्राप्त करना चाहते
हैं, महामहिम...और उम्मीद करते हैं...”
“नहीं सुना.”
“मेहेरबानी फरमाइए, महामहिम. जनरल पेर्वायेदव, वसीली वसील्येविच...”
“क्या आप जनरल पेर्वायेदव हैं?”
“नहीं, महामहिम, मैं तो सिर्फ कोर्ट-कौंसिलर लेबेज्यात्निकव हूँ , आपकी खिदमत में हाज़िर, और जनरल पेर्वायेदव...”
“बकवास! और आप से विनती करता हूँ कि मुझे अकेला छोड़ दीजिये.”
“छोड़ दो,” आखिरकार जनरल पेर्वायेदव ने अत्यंत गरिमा से अपने
कब्र के मुवक्किल की घिनौनी तत्परता को रोका.
“अभी जागे नहीं हैं, महामहिम, इसा बात का ध्यान
रखना होगा, आदत न होने की वजह से वो ऐसा कह रहे हैं: जाग
जायेंगे तो दूसरी तरह से...”
“छोड़ो,” जनरल ने दुहराया.
“वसीली वसील्येविचा! ओहो. ये आप हैं, महामहिम!” अचानक जोर से और जोश से अव्दोत्या इग्नात्येव्ना की ठीक बगल से
एक बिलकुल नई आवाज़ चिल्लाई – घमण्डी और धृष्ठ आवाज़, फैशन के अनुरूप थकी हुई फटकार और गुस्ताखी भरी – मैं दो घंटे से आप सबको
देख रहा हूँ ; मैं तीन दिनों से पड़ा हूँ; आपको मेरी याद है, वसीली वसील्येविच? क्लिनेविच, वलाकोन्स्की के यहाँ मिले थे, जहाँ न जाने क्यों आपको भी
आने दिया गया था.”
“क्या, काऊंट प्योत्र पित्रोविच...कहीं ये आप ही तो
नहीं...और इतनी कम उम्र में...बेहद अफसोस है!”
“हां, मुझे खुद को भी अफसोस है, मगर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, और मैं हर जगह से हर मुमकिन चीज़ हासिल करना
चाहता हूँ. और काऊंट नहीं, सिर्फ सामंत, सिर्फ सामंत. हम
गंदी किस्म के छोटे-मोटे सामंत हैं, हरकारों के खानदान से, और
नहीं जानता कि ऐसा क्यों, थूकता हूँ. मैं सिर्फ छद्म
उच्च समाज का बदमाश हूँ और “प्यारा पुलिसमैन” कहलाता हूँ. मेरा बाप कोइ छोटा-मोटा
जनरल था और माँ को उच्च समाज में कभी किसी ने गोद लिया था. मैंने यहूदी जीफेल के
साथ मिलकर पिछले साल वाले झूठे पचास हज़ार के नोट बनाए और उसी की शिकायत कर दी, और
पैसे तो यूल्का अपने साथ बोरदो ले गई. और, सोचिये, मेरा तो रिश्ता भी पक्का हो गया था -
शेवालेव्स्काया के साथ, सोलह साल से तीन महीने कम थी, इंस्टीट्यूट में पढ़ती थी, एक हज़ार नौ सौ दहेज़ा में दे रहे थे. अव्दोत्या
इग्नात्येव्ना, याद है, आपने कैसे. पंद्रह साल पहले, जब मैं चौदह साल का छोकरा था, मुझे भ्रष्ठ किया था?”
“आह, ये तू है, बदमाश, चलो, खुदा ने कम से कम तुझे तो
भेजा, वरना तो यहाँ ...”
“आप बेकार ही में अपने पड़ोसी व्यापारी पर बदबू का शक कर रही थीं...मैं
सिर्फ खामोश था और हँस रहा था. असल में तो बदबू मुझसे आ रही है, मुझसे, क्योंकि मुझे ताबूत में कीलें ठोंककर दफनाया
गया था.
“आह, कितना कमीना है! फिर भी, मैं खुश हूँ; आप यकीन
नहीं करेंगे, क्लिनेविच, नहीं करेंगे यकीन कि यहां जिंदादिली और हाज़िरजवाबी की कमी कितनी खलती है.”
“हाँ, हाँ, और मैं यहाँ कोई मौलिक काम
करना चाहता हूँ. महामहिम, - पेर्वायेदाव, मैं आपसे मुखातिब नहीं हो रहा हूँ, महामहिम, दूसरे, तरासेविच महाशय, प्रिवी कौंसिलर से कह रहा हूँ! जवाब दीजिये! मैं
क्लिनेविच हूँ , जो आपको डाकगाड़ी में मैडम फ्यूरी के पास ले गया था, सुन रहे हैं?”
मैं आपको सुन रहा हूँ, क्लिनेविच, और बेहद खुश हूँ, और यकीन कीजिये...”
“कौड़ी भर भी यकीन नहीं है, और मैं परवाह भी नहीं करता.
प्यारे बुढ़ऊ, मैं आपको चूमना चाहता हूँ, मगर शुक्र है खुदा का कि
ऐसा नहीं कर सकता. क्या आपको पता है, महानुभावों, कि इसा दद्दू ने क्या गुल खिलाये हैं? यह तीन या चार दिन पहले मरा है और, आप कल्पना कर सकते हैं, कि इसने पूरे चार लाख की
सरकारी गड़बड़ की है? ये पैसा अनाथों और विधवाओं के लिए था, और पता
नहीं क्यों यह अकेला ही उसका ‘इनचार्ज’ था, जिससे करीब आठ साल से
इसका कोई ऑडिट नहीं हुआ. मैं सोच सकता हूँ कि उन अनाथों के चहरे कैसे लम्बे हो गए
होंगे और वे इसे किस तरह याद करते होंगे? है ना कैसा दिलचस्प ख़याल!
मैं पिछले पूरे साल भर ताज्जुब करता रहा कि इस बुड्ढ़े, जर्जर, खूसट के पास अभी भी
बेईमानी के लिए पैसा कहाँ से आता है, और – और अब भेद खुल गया! ये विधवाएँ और अनाथ
- जिनके बारे में सिर्फ एक ही खयाल इसे भस्म करने के लिए काफी था!...मैं इसके बारे
में काफी पहले से जानता था, अकेला मैं ही जानता था, मुझे चार्पेंटियर ने बताया था, और जैसे ही मुझे पता चला, मैं इस संत-महात्मा के पीछे पड़ गया, दोस्ताना अंदाज़ में :“मुझे पच्चीस हज़ार दे, वरना कल ही तेरा ऑडिट हो जाएगा”; तो, सोचिये, इसके पास उस समय सिर्फ तेरह हज़ार निकले, तो, मतलब, ये बहुत सही वक्त पर मरा है. दद्दू, दद्दू, सुन रहे हो: “
“डियर क्लिनेविच, मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूँ और आप बेकार में ही... इन
तफसीलों के पीछे पड़ गए. ज़िंदगी में इतने कष्ट, इतनी यातनाएँ हैं और इतना कम दंड...मैं आखिर में सुकून हासिल करना चाहता
था, और, जैसा कि मैं देख रहा हूँ, यहाँ से भी सब कुछ हासिल करने की उम्मीद करता हूँ.....”
“मुझे यकीन है कि उसने पहले ही सब सूंघ लिया है. कातिश बिर्योस्तोवा को!”
“किसे? कौनसी कातिश को?” बूढ़े की आवाज़ दरिन्दे की
तरह थरथराने लगी.
“अ-आ, कौनसी कातिश? अरे, यहाँ, बाएँ, मुझसे पाँच कदम
की दूरी पर, और आपसे दस कदम. वह पाँच दिनों से यहाँ है, और अगर आपको पता होता, दद्दू, कि वह कितनी कमीनी है...अच्छे घर की है, अच्छे तौर-तरीके हैं और – राक्षस,
परले दर्जे की राक्षस! मैंने उसे यहाँ किसी को नहीं दिखाया, सिर्फ मैं अकेला ही
जानता था...कातिश, जवाब दो!”
“ही-ही-ही!” किसी लड़की की फटी-फटी आवाज़ सुनाई दे, मगर उसमें कुछा इंजेक्शन की सुई जैसा था . – “ही-ही!”
“और सुन-हरे-बालों वाली?” दद्दू रुका-रुक कर तीन टुकड़ों में हकलाया.
“ही-ही-ही!”
“मैं... मैं कबसे,” गहरी साँस लेकर बूढ़ा बुदबुदाया, “सुनहरे बालों वाली...करीबा
पंद्रह साल की लड़की का सपना देख रहा था...और खासकर ऐसे माहौल में...”
“आह, शैतान!” अव्दोत्या इग्नात्येव्ना चहकी.
“बस!” क्लिनेविच ने फैसला किया, “मैं देख रहा हूँ कि माल
बढ़िया है, हम फ़ौरन यहां के हालात बेहतर बनाएंगे. ख़ास बात
ये है कि बचा हुआ समय खुशी से बिताएं; मगर कौन सा समय? ई, आप, कोई अफसर, क्या, जैसा मैंने सुना, आपका नाम लेबेज्यात्निकव है!”
“लेबेज्यात्निक्व, कोर्ट-कौंसिलर, सिम्योन इव्सेइच, आपकी खिदमत में हाज़िर हूँ, बेहद-बेहद-बेहद खुश हूँ.”
“आप खुश हैं इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, मगर, लगता है, कि शायद सिर्फ आप ही यहाँ सब जानते हैं. सबसे पहले, यह बताईये (मैं कल से ही हैरान हूँ) हम यहाँ बातें कैसे कर रहे हैं? आखिर हम तो मर चुके हैं, मगर फिर भी बोले जा रहे हैं, ऊपर से, जैसे गतिमान भी हैं, मगर वैसे, न तो बोल रहे हैं
और न ही गतिमान हैं? ये कैसी अजीब बात है?”
“ये, सामंत महोदय, अगर आप चाहें तो प्लतोन निकलायेविच मुझसे बेहतर समझा सकते हैं.”
“कौन प्लतोन निकलायेविच? ऐसे बुद्बुदाइये नहीं, सीधे मुद्दे पर आइये.”
“प्लतोन निकलायेविच, हमारा यहाँ का दार्शनिक है, प्रकृतिवादी और
मास्टर. उसने कई सारी दार्शनिक किताबें निकाली हैं, मगर पिछले तीन महीनों से लगातार सो रहे हैं, इसलिए अब यहाँ उसे झकझोरना नामुमकिन है. हफ्ते में एक बार कुछ शब्द
बुदबुदाता है, जो असंबद्ध होते हैं.”
“काम की बात, काम की बात!...”
“वह ये सब बेहद आसान तथ्यों के आधार पर समझाता है, मतलब ये, कि ऊपर, जब हम ज़िंदा थे तो गलती से वहाँ की मृत्यु को मृत्यु समझते थे. ‘शरीर’ यहाँ, जैसे फिर से जीवित हो जाता है, जीवन के अवशेष एक जगह केन्द्रित हो जाते हैं, मगर सिर्फ चेतना में. ‘ये’ – मैं आपको समझा नहीं सकता – जीवन जैसे ‘जड़ता’ से चलता रहता है. उसकी राय में – सब कुछ केंद्रित होता है, मगर सिर्फ चेतना में और करीब दो या तीन महीने चलता रहता है – कभी कभी छः
महीने भी... मिसाल के तौर यहाँ कोई है, जो पूरी तरह सड़ चुका है, मगर करीब छः
सप्ताह में एक बार वह अचानक बडबडाने लगता है, सिर्फ एक ही लब्ज़, बेशक जिसका कोई मतलब नहीं है , किसी बोबक के बारे में : ‘बोबक’, ‘बोबक’... मगर, उसमें भी, मतलब, किसी चिंगारी की तरह जीवन की गर्माहट मौजूद है. ...”
“निहायत बेवकूफी है. तो, मुझमें क्यों सूंघने की
शक्ति नहीं है, बल्कि मैं बदबू सुनता हूँ?”
“ये...हे-हे...खैर, हमारा दार्शनिक कोहरे में
खो गया है. उसने खासकर सूंघने की शक्ति के बारे कहा था, कि यहां बदबू सुनाई देती है, मतलब, नैतिक – हे-हे! जैसे आत्मा की बदबू, जिससे इन दो-तीन महीनों में मैं अपने आप को समझा सकूं... और ये, मतलब, आख़िरी मेहेरबानी है...सिर्फ, मुझे ऐसा लगता है, सामंत, कि यह सब रहस्यमय बकवास है, जो उसकी परिस्थिति में
अत्यंत क्षम्य है...”
“बस, और आगे, मुझे यकीन है कि यह सब बकवास है. ख़ास बात है, ज़िंदगी के दो या तीन महीने और आखिर में – बोबक. मैं सबको सुझाव देता हूँ
कि ये दो-तीन महीने जितना संभव हो खुशी से बिताएं, और इसके लिए सबको नए सिरे से
शुरुआत करनी होगी. महाशयों! मैं सुझाव देता हूँ कि किसी बात से न शरमाएँ.”
“आहा, चलो, चलो, किसी से भी न शरमाएँ!” अनेक आवाजें सुनाई दीं, और, अचरज की बात है, कि बिलकुल नई आवाज़ें भी
सुनाई दीं, मतलब, उनकी भी जो इस दौरान जाग चुके थे. अब तक पूरी
तरह जाग चुके इंजीनियर ने गरजती हुई भारी आवाज़ में विशेष तत्परता से अपनी सहमति
दी. लड़की कातिश खुशी से खिलखिलाई.
“आह, कितनी ख्वाहिश है मेरी किसी भी बात से न
शरमाने की!” अव्दोत्या इग्नात्येव्ना जोश से चहकी.
“सुन रहे हैं, अगर अव्दोत्या इग्नात्येव्ना भी किसी बात से
शरमाना नहीं चाहती हैं...”
“नहीं-नहीं-नहीं, क्लिनेविच, मैं शरमाती थी, मैं वहां शरमाती ही थी, मगर यहाँ मैं शिद्दत से
चाहती हूँ कि किसी से भी न शरमाऊँ!”
“मैं समझ रहा हूँ, क्लिनेविच,” इंजीनियर भारी आवाज़ में बोला, “कि आप यहाँ की, मतलब, ज़िंदगी को, नए और तर्कसंगत सिद्धान्तों पर बनाने का सुझाव दे रहे हैं.”
“खैर, मुझे इसकी परवाह नहीं है! इस मुद्दे पर
कुदेयारव का इंतज़ार कर लेते हैं, उसे कल लाये हैं. वह जागेगा
और आपको सब समझा देगा. ये ऐसा शख्स है, इतना महान शख्स है! कल, शायद, एक और प्रकृतिवादी को लायेंगे, शायद एक अफसर को और, अगर मैं गलती नहीं कर रहा
हूँ, तो करीब तीन-चार दिन बाद एक व्यंग्यकार को, और, शायद, सम्पादक के साथ. वैसे, जाएँ वे जहन्नुम में, मगर हम लोगों का एक अपना झुण्ड जमा हो जाएगा और हर चीज़ अपने आप हो जायेगी.
मगर फिलहाल मैं चाहता हूँ कि झूठ न बोलें. मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूँ, क्योंकि
यह महत्त्वपूर्ण है. धरती पर तो झूठ बोले बिना जीना नामुमकिन है, क्योंकि जीवन और झूठ समानार्थी हैं; मगर यहाँ, हम मज़ाक में भी झूठ नहीं बोलेंगे. शैतान ले जाए, आखिर कब्र का भी कोई महत्व है! हम अपनी-अपनी कहानी जोर से सुनाएँगे और
किसी भी बात से शरमाना नहीं है. सबसे पहले मैं अपने बारे में बताऊँगा. मैं, पता है, खूंखार शिकारियों में से हूँ. वहां, ऊपर, यह सब सड़ी हुई रस्सियों से संबंधित था. लानत
है उन रस्सियों पर, और ये दो महीने हम जियेंगे सबसे बेशर्म सच्चाई में! कपडे उतार
दें और नग्न हो जायें!”
“नग्न हो जाएँ, नग्न हो जाएँ!” चारों तरफ से आवाजें आईं.
“मैं बेहद, बेहद चाहती हूँ पूरी तरह नग्न होना!”
अव्दोत्या इग्नात्येव्ना चीखी.
“आह...आह...आह, मैं देख रहा हूँ कि यहाँ बहत खुशगवार होगा, मैं एको के पास नहीं जाना चाहता!”
“नहीं, मैं कुछ और जी लेता, नहीं, पता है, मैं कुछ और जी लेता!”
“ही-ही-ही!” कातिश खिलखिलाई.
“ख़ास बात ये, कि कोई भी हमें रोक नहीं सकता, और हांलाकि मैं
देख रहा हूँ कि पेर्वायेदव गुस्सा हो रहा है, मगर वह मुझे पकड़ नहीं सकता. दद्दू, क्या आप सहमत हैं?”
“मैं अत्यंत आश्चर्य से पूरी तरह, पूरी तरह सहमत हूँ, मगर इस शर्त पर कि कातिश सबसे पहले अपनी कहानी सुनाएगी.”
“मैं विरोध करता हूँ, अपनी पूरी ताकत से विरोध
करता हूँ,” जनरल पेर्वायेदव ने दृढतापूर्वक कहा.
“महामहिम,” फुर्तीले उत्साह से और अपनी आवाज़ नीची करके
कमीना लेबेज्यात्निकव बुदबुदाया और उसे मनाने लगा, “महामहिम, अगर हम सहमत हो गए, तो ये हमारे लिए ज़्यादा
फायदेमंद होगा. यहाँ, पता हैं, यह लड़की...और फिर, ये अलग-अलग तरह की
चीज़ें...”
“चलो, मान लेते हैं, लड़की, मगर...”
“ज़्यादा फायदेमंद है, महामहिम, खुदा की कसम, ज़्यादा फायदेमंद है! खैर, कम से कम मिसाल के तौर पर, कम से कम कोशिश तो करें...”
“कब्र में भी चैन नहीं लेने देते!”
“पहली बात, जनरल, आप कब्र में प्रेफेरान्स (ताश का एक खेल – अनु.) खेलते हैं, और दूसरी बात, हम आपके ऊपर थूकते भी नहीं हैं,” क्लिनेविच लफडा करने पर उतर आया.
“प्रिय महोदय, विनती करता हूँ कि होश में रहें.”
“क्या? आप तो मेरा कुछ भी बिगाड़ न सकेंगे, मगर मैं
यहाँ से आपको चिढाता रहूँगा, यूल्या के कुत्ते की तरह.
और, पहली बात, महाशय, यहाँ ये कैसे जनरल हुआ? वहां ये जनरल था, मगर यहाँ खाली बर्तन!”
“नहीं, खाली बर्तन नहीं, मैं यहाँ भी....”
“यहाँ कब्र में आप सड़ जायेंगे, और सिर्फ आपके छः ताँबे के
बटन बचेंगे.”
“ब्रेव्हो, क्लिनेविचा, हां-हां-हां!” आवाजें गरजीं.
“मैंने अपने सम्राट की सेवा की है...मेरे पास तलवार है...”
“अपनी तलवार से चूहे काटिए, और वैसे भी आपने उसे कभी
बाहर नहीं निकाला है.”
“एक ही बात है, मैं पूरी फ़ौज का हिस्सा था.”
“न जाने कैसे-कैसे हिस्से होते हैं फ़ौज के.”
“ब्रेव्हो, क्लिनेविच, ब्रेव्हो, हा-हा-हा!”
“मुझे समझ में नहीं आ रहा है, कि तलवार क्या होती है,” इंजीनियर ने मुँह खोला.
“हम प्रशियन्स से चूहों की तरह दूर भाग जायेंगे कि वे कहीं हमारे चीथड़े न
उड़ा दें!” दूर से मेरे लिए एक अनजान आवाज़ चीखी, जो जोश से सराबोर थी.
“तलवार, महाशय, होती है इज्ज़त!” जनरल चीख ही रहा था, मगर उसे सिर्फ मैंने ही सूना. इतना लंबा और खतरनाक शोर उठा, हंगामा और झगड़ा होने लगा, और सिर्फ अव्दोत्या
इग्नात्येवा की बेसब्र, उन्मत्त चीखें ही सुनाई दे रही थीं.
“अरे, जल्दी करो, जल्दी करो! आहा, हम कब शुरू करेंगे किसी से
भी न शरमाना!”
“हो-हो-हो! वाकई में आत्मा परीक्षा से गुज़र रही है!” आम आदमी की आवाज़ सुनाई
दी, और...
और यहाँ मुझे अचानक छींक आ गई. यह अचानक और बिना किसी इरादे के हुआ, मगर इसका प्रभाव बेहद चौंकाने वाला था : सब कुछ खामोश हो गया, जैसे कब्रिस्तान में होता है, गायब हो गया, सपने की तरह. सचमुच की कब्रिस्तान वाली खामोशी छा गई. मैं नहीं सोचता कि
वे मुझसे शरमा गए हों, उन्होंने तो किसी भी बात से न शरमाने का फैसला
किया था! मैंने करीबा पाँच मिनट इंतज़ार किया और – कोई शब्द नहीं, कोई आवाज़ नहीं. ये भी नहीं मान
सकता कि वे पुलिस में शिकायत के डर से घबरा गए; क्योंकि पुलिस यहाँ कर ही
क्या सकती है? बेमन से निष्कर्ष निकालता हूँ कि निश्चय ही
उनका कोई रहस्य है, जो हम नश्वर लोगों को ज्ञात नहीं है और जिसे
वे सावधानी से हर नश्वर से छुपाते हैं.
“अच्छा, मैंने सोचा, मेरे प्यारों, मैं फिर आऊँगा आपसे मिलने”, और इतना कहकर मैंने कब्रिस्तान छोड़ दिया.
नहीं, मैं इसकी इजाज़त नहीं दे सकता; नहीं, वाकई में नहीं! बोबक मुझे परेशान नहीं करता
(हां, ये बोबक ही तो था!}.
व्यभिचार ऐसी जगह पर, आख़िरी उम्मीदों का व्यभिचार, सड़ती हुई और पिलपिली लाशों का व्यभिचार और – चेतना के अंतिम पलों पर भी
रहम न खाते हुए! उन्हें दिए गए हैं, उपहार में मिले हैं ये पल
और...और ख़ास बात, ख़ास बात, ऐसी जगह पर! नहीं मैं इसकी इजाज़त नहीं दे सकता...
अन्य कतारों में भी जाऊँगा, हर जगह सुनूंगा. कुछ तो है, जिसे हर जगह सुनना चाहिए, न कि सिर्फ एक किनारे से,
ताकि कोई अवधारणा बना सकूँ. शायद कोई सांत्वना देने वाली बात भी मिल जाए.
और उन लोगों के पास तो ज़रूर लौटूंगा. उन्होंने अपनी आत्मकथाओं और विभिन्न
प्रकार के किस्सों का वादा जो किया है. उह! मगर जाऊंगा, ज़रूर जाऊंगा, अंतरात्मा का सवाल है!
“ग्रझ्दानिन” (एक साहित्यिक पत्रिका – अनु,) में ले जाऊंगा, वहाँ एक सम्पादक की तस्वीर भी लगाई गई है. शायद, प्रकाशित कर दे.
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