पाल मत्वेइच
लेखक :
सिर्गेइ नोसव
अनुवाद :
आ. चारुमति रामदास
बंदूक से गोली चली – फिर से! मैं गुस्से से पागल
हो गया और मत्वेइच के पास चल पड़ा.
“पाल मत्वेइच!
कितनी बार?...हमारे यहाँ बच्चे सो चुके हैं.”
वह
बच्चों के बारे में सुनकर घबरा गया.
“कैसे सो
गए?
अभी से? मुझे मालूम नहीं था...मैंने सोचा
नहीं...”
और उसने
मुर्दा कौए को बाग वाली मेज़ पर रख दिया और हाथ में छुरा पकड़ लिया. और अचानक:
“मान्या, मान्या!
बच्चों के लिए सेब लाओ!”
मैं :
“नहीं,नहीं.”
“कोई ‘नहीं”
नहीं!”
“नहीं, नहीं.”
“दिखाता
हूँ तुझे “नहीं-नहीं”! बिना “नहीं” के ले लो!...मान्या, मान्या!”
मैं
हिचकिचा रहा था. इनकार करने में देर हो चुकी थी, फ़ाटक के पीछे गया.
मरीना
एव्गेनेव्ना – जैसे मेरा इंतज़ार ही कर रही थी – गर्मियों वाले किचन के पीछे से
निकलकर आई,
मेरी ओर सेबों की पूरी थैली बढ़ा दी, पॉलीथिन
की.
“माफ़
कीजिए. मैं नज़र नहीं रख सकती. ये आज का छठा कौआ था, सिर्फ मुसीबत...जी ही नहीं भरता!”
वह पाल मत्वेइच को उलाहना दे रही थी. “आख़िर कितनी देर तुम लोगों को चिढ़ाते रहोगे?
पता है, बुड्ढे, बेवकूफ़,
हमारे बारे में लोग क्या सोचते हैं? बस्ती में
हमारे बारे में क्या सोचते हैं, पता है?”
“माफ़
कीजिए,
हम इतने सारे नहीं खा सकेंगे...”
“मगर मैं
पंजे,
मगर मैं सिर्फ पंजे... तुम मुझे डाँट रही हो, मगर
मैं उसके पंजे जमा कर रहा हूँ!”
और वाकई
में – जमा किए.
मरीना
एव्गेनेव्ना चली गई. पाल मत्वेइच ने कौए को बाल्टी में फेंका, अख़बार
पर काटे हुए पंजे रख दिए.
“भयानक, क्या
लिखते हैं! पढ़ा नहीं जाता.”
“तो, मत
पढ़िये.”
“मैं
पढ़ता ही नहीं हूँ. क्या पढ़ना है? कुछ है ही नहीं. बिना पढ़े ही सब
साफ़ है. किस हद तक गिर गए हैं. कहीं नहीं, आगे जाने की
गुंजाइश ही नहीं है!...बस!”
“यही
साबित करना था,”
- चालाकी से (मगर, फिर भी, लापरवाही से) सहमत होता हूँ.
उसने
अख़बार से चाकू साफ़ किया. बातचीत से पीछा छुड़ाना संभव नहीं हो पाएगा.
“बच्चे, कहते
हो...बच्चे – अच्छा लगता है, जब बच्चे होते हैं. मगर जब आपके
बच्चे बड़े हो जाएँगे, और आपको, जैसे आप
हमें, इसी तरह, समझ लो!”
मैं जवाब
नहीं देता – ख़ामोश रहता हूँ.
“करेंगे, करेंगे...आपने
पका लिया, मगर खाना तो उन्हें है...”
“मैंने
कुछ भी नहीं पकाया है.”
“अरे, बेशक,
तुमने नहीं पकाया, किसी ने भी नहीं पकाया,
सब अपने आप ही हो जाता है.”
“अच्छा, गुड
लक, पाल मत्वेइच, मैं चला.”
“रुक, चला!
ज़िम्मेदारी से कोई नहीं भाग सकता, जवाब तो देना ही पड़ेगा,
सोचो मत!.”
रोक
लिया. छुरा मेज़ पर रख दिया. मेरी ओर एकटक देखता रहा, नज़रों से तौलता रहा.
“क्या
तुझे ब्रेझ्नेव की याद है?”
“ओह, याद
है.”
“बिल्कुल
याद नहीं है,
भूल गए ब्रेझ्नेव को!”
“ये, मैं
ब्रेझ्नेव को क्यों भूलने लगा?”
“तो, बता,
ब्रेझ्नेव कौन था, अगर याद है तो?”
“ये ‘कौन’
से क्या मतलब है?”
“मतलब, वो
कौन था, याद नहीं है?”
“जनरल
सेक्रेटरी. इतना काफ़ी है?”
“मगर
तुम्हें मालूम नहीं है कि ब्रेझ्नेव के ज़माने में कैसा था?”
“मैं
क्यों नहीं जानूँगा, कि ब्रेझ्नेव के ज़माने में कैसा था?”
“बच्चे, जब
बड़े हो जाएँगे, तब तुझसे पूछेंगे, वे
हमसे ज़्यादा पढ़े-लिखे होंगे, उन्हें दिलचस्पी होगी, कि ब्रेझ्नेव के ज़माने में कैसा था, पूछेंगे,
क्या ज़िंदगी बुरी थी? किस लिहाज़ से बुरी थी?”
“ब्रेझ्नेव
के ज़माने में,
हाँ?”
“हाँ –
ब्रेझ्नेव के ज़माने में! तू उन्हें क्या जवाब देगा?”
“आपके
पास भेज दूँगा!”
“ये बात!
कुछ भी जवाब नहीं देगा! क्योंकि ब्रेझ्नेव के ज़माने में थी असली ज़िंदगी. और
तू...तू : स्टालिनिस्ट!...”
स्टालिनिस्ट
कौन है,
मैं नहीं समझा.
“कौन –
स्टालिनिस्ट?”
“तू. तू
कहता है : स्टालिनिस्ट! मेरे बारे में.”
“मैंने
नहीं कहा,
कि आप स्टालिनिस्ट हैं.”
“मैं
कहाँ का स्टालिनिस्ट होने लगा? क्या मैं स्टालिनिस्ट हूँ? –
पाल मत्वेइच को मज़ाक में मत लो. – मैं कहाँ से स्टालिनिस्ट हूँ?
स्टालिन स्टालिन था. मैं बहस नहीं कर रहा. मगर मैं स्टालिनिस्ट कहाँ
से हो गया? मुझे ब्रेझ्नेव के बारे में बुरा लगता है.
ब्रेझ्नेव वैसा था ही नहीं, अगर उसके ज़माने में सब कुछ था! और, क्या नहीं था? आज़ादी चाहिए थी? मगर ब्रेझ्नेव के ज़माने में क्या कमी थी? बच्चे
पूछेंगे: क्या कमी थी? अभी पता नहीं है, कि पन्द्रह साल बाद क्या होने वाला है...”
“सही है, - इससे मैं सहमत हूँ.”
“ब्रेझ्नेव
के ज़माने में तो आज़ादी भी थी. जो चाहता, उसका उपयोग करता था. क्या,
बातें कम करते थे? इतनी ही बातें करते थे.
ब्रेझ्नेव के बारे में भी और और चीज़ों के बारे में भी. वो ही कहते थे. सिर्फ
अख़बारों में नहीं लिखते थे. मगर किसी को भी बोलने पर पाबन्दी नहीं थी. है ना,
मान्या?”
मगर
मरीना एव्गेनेव्ना बगल में थी ही नहीं. पाल मत्वेइच कहता रहा :
“और
आज़ादी,
मैं तुम्हें बताता हूँ, सचमुच की आज़ादी थी.
हाँ, ऐसी आज़ादी, जैसे हमारे यहाँ
ब्रेझ्नेव के ज़माने में थी, दुनिया में कहीं भी नहीं थी. कभी
भी नहीं. जो चाहो, वही करो. नहीं चाहते – मत करो. अच्छी तरह
करते हो – शाबाश!. बुरी तरह करते हो – मतलब बुरी तरह कहा गया, अच्छी तरह कहना चाहिए...जिससे कि काम अच्छा हो. अगर अच्छा नहीं लगत – मत
करो, तुम्हारे बदले किसी और को ढूँढ़ लेंगे, मगर तुम ख़ुद बिना काम के नहीं रहोगे, काम खूब है.
ऐसी बात नहीं, कि...कीलें चाहिए? – ले
लो! तख़्ते चाहिए? – ले लो! नहीं? नहीं –
मत लो. ख़ुद ही सोचो. अपनी सीमा को पहचानो. बिना सीमा के कहाँ जाओगे? बिना सीमा के कुछ नहीं हो सकता. हमें अराजकता की ज़रूरत नहीं है. मगर अब तो
जहाँ भी देखो, क्या देखते हो? नहीं,
ब्रेझ्नेव के ज़माने में एक व्यवस्था थी. चाहे जैसी भी हो, मगर व्यवस्था थी. और आज़ादी थी, और व्यवस्था भी थी.
अब कहाँ है व्यवस्था? नहीं है व्यवस्था. स्टालिन के ज़माने
में, मैं मानता हूँ, आज़ादी नहीं थी,
मगर कम से कम व्यवस्था थी. और ब्रेझ्नेव के ज़माने में सब कुछ था.
व्यवस्था भी, और आज़ादी भी. और आप : “गुलामी!” ऐसा नहीं
चलेगा. मैं अच्छी तरह जानता हूँ, ख़ुद कितने सालों तक
कंट्रोलर रहा हूँ, अक्त्याब्र्स्काया रोड पर, जानता हूँ. जुर्माना लगाओ, कोशिश करो, किसी को ऑफ़िस में ‘चालान’ भेजने
की, अफ़सर, सोचते हो, डाँट पिलाएगा, इनाम से महरूम रखेगा? अरे, वह तो उस कागज़ को ही जितनी दूर हो सके, छुपा देगा, या फ़िर कागज़ उस तक पहुँचेगा ही नहीं,
दूसरे लोग छुपा देंगे. और सही भी है. ख़ास बात है, डराना. याद रखने दो, कि गाड़ी (कानून-व्यवस्था) काम
कर रही है. और हमारी गाड़ी कोई बुलडोज़र नहीं थी. भली गाड़ी थी. प्यारी-सी. इन्सान के
बारे में सोचती थी.”
“ख़ैर, ये
आपने कुछ ज़्यादा ही कह दिया.”
“बैठा है, छूत
फ़ैलाने वाला.”
ये आख़िरी
बात कौए के लिए थी, जो एस्पन की टहनी पर बैठ गया था.
“रहने दो
ज़िन्दा,”
मैं कौए की पैरवी करने लगा. “आप क्यों उनके पंजे काटते हैं?”
पाल
मत्वेइच ने “ओ!” कहा.
“मैं
उन्हें रूह की ख़ातिर, दिल बहलाने के लिए.” वह मुड़ा, कहीं मरीना एव्गेनेव्ना सुन तो नहीं रही है. “और, क्या
वह रूह के लिए देगी? वो सिर्फ काम के लिए. ऐसी है, कठोर...”
“ये किसे
-
(मैं समझ नहीं पाया) – किसे रूह के लिए?”
“कौओं को
रूह के लिए गिराता हूँ. जी हल्का करने के लिए. कौओं का शिकार करना मुझे अच्छा लगता
है. और पंजे...” पाल मत्वेइच, गार्डन-टेबल का चक्कर लगाकर मेरे
नज़दीक आया और रहस्यमय ढंग से बोला: “पंजे, वो, छुपाने के लिए.” उसने आँखें मिचकाईं.
जानता था, कि
मैं सोच में पड़ जाऊँगा – मैं कुछ देर ख़ामोश रहा.
“वर्ना
तो नहीं देगी. शिकार करने नहीं देगी. मैं उसे कैसे समझाता हूँ? कहता
हूँ, कि पंजों के लिए मुझे प्लायवुड देते हैं, समझ रहे ह? इसलिए कि मैं कौओं को मारता हूँ. उनसे
देश की आर्थिक व्यवस्था को बड़ा नुक्सान पहुँचता है. कौओं से! और, जैसे, मेरी ये ज़िम्मेदारी है. पंजों से, समझ रहे हो?”
“हाँ?” उसकी बात सुन कर मैं चौंक गया.
“नहीं.
बल्कि, बिल्कुल नहीं. मुझे मुख्य कृषि-अधिकारी ने बहुत पहले प्यायवुड-शीट्स दी
थीं, हमें प्लायवुड की बेहद ज़रूरत है, मगर
पंजों के बदले नहीं, बल्कि किसी और ही चीज़ के बदले...”
मैंने
मासूमियत से पूछा:
“किसके
बदले?”
पाल
मत्वेइच ने उलाहना देते हुए सिर हिलाया.
“ख़ुद ही
सोच लो,
और किस चीज़ के बदले?” – और अपनी गर्दन पर ख़ास
तरह से चुटकी बजाते हुए बोला, “अभी पेश करता हूँ.”
“नहीं,” मैंने अंदाज़ लगाया, “फिर कभी. शुक्रिया.”
“ऊ...कितनी
ज़बर्दस्त है...दुकान में ऐसी नहीं मिलती...पसन्द आएगी...”
“मुझे
जाना है,
चलता हूँ.”
“रास्ते
के लिए?
…सौ ग्राम?...बरामदे में चलते हैं.”
“नहीं, नहीं,
अगली बार.”
“ख़ैर, जैसी
मर्ज़ी,” पाल मत्वेइच बुरा मान गया.
मुझे
फ़ाटक तक छोड़ने आया.
“सेबों
के लिए शुक्रिया,”
मैंने कहा.
“खाइए, खाइए...मैं
तुमसे मर्द की तरह पेश आ रहा हूँ. देख, मेरा भेद न खोलना,
ठीक है?”
“ये क्या
बात हुई,
पाल मत्वैच! शौक से बनाइए हाथभट्टी की दारू.”
“मैं उस
बारे में नहीं कह रहा. हाथभट्टी के बारे में सब जानते हैं. मैं पंजों के बारे में
कह रहा हूँ. बीबी को पता न चले, कि मैं उन्हें – रूह की
ख़ातिर...वर्ना तो खा जाएगी, खा जाएगी...”
“बस, सिर्फ
रात को बन्दूक न चलाइए.”
“नियम,” पाल मत्वेइच ने कहा.
इतना
कहकर हम जुदा हुए.
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