xx
टॉल्स्टॉय, गोर्की और प्रेमचन्द :
एक त्रिकोण
आ. चारुमति रामदास
पूरब के देशों में भारत ने ल्येव
निकलायेविच टॉल्स्टॉय (1828–1910) का ध्यान सबसे अधिक आकृष्ट किया. इसका कारण थीं
यहाँ के धर्म की,
दर्शन की, लोक सृजन
की विशेषताएँ जो टॉल्स्टॉय के अपने विचारों के काफ़ी नज़दीक थीं. उन्नीसवीं शताब्दी
के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों ने भी अनेक
भारतीय कार्यकर्ताओं को सहायता एवम् नैतिक आधार हेतु ल्येव निकलायेविच से मुख़ातिब
होने के लिए प्रेरित किया.
सन् 1857 की क्रांति की ओर
टॉल्स्टॉय का ध्यान आकृष्ट हुआ. इस घटना ने पूरे विश्व को,
विशेषत: रूस को काफ़ी प्रभावित किया, क्योंकि
इसी समय वहाँ बंधुआ प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान तीव्र होता जा रहा था.
रूसी पत्र-पत्रिकाओं में
भारतीय क्रांति के पक्ष तथा विपक्ष में काफ़ी कुछ लिखा जा रहा था. युवा टॉल्सटॉय
बड़ी उद्विग्नता से भारतीयों के अपने सदियों के दुश्मन से संघर्ष को देख रहे थे. और,
जब इस क्रांति के कुचल दिए जाने की तथा 94 देशभक्तों को गोली मार
दिये जाने की ख़बर पीटर्सबुर्ग पहुँची तो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: “हे भगवान!
कितने आराम से 94 लोगों को गोली मार दी!”
जब सन् 1908 में टॉल्स्टॉय
का पर्चा – “मैं ख़ामोश नहीं रह सकता!” प्रकाशित हुआ तो कई भारतीयों ने,
जो रूसी त्सारशाही के अत्याचारों के विरुद्ध टॉल्स्टॉय के इस मत
प्रदर्शन से काफ़ी प्रभावित हुए थे, उनसे प्रार्थना की कि वे
भारत के अंग्रेज़ी शासकों के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाएँ, अमेरिका के
सियेटल स्थित तारकनाथ दास द्वारा 24 मई 1908 को लिखे गए एक पत्र के जवाब में
टॉल्स्टॉय ने भारतीय जनता के नाम एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने खुल्लमखुल्ला भारत
में अंग्रेज़ों के कार्यकलापों की भर्त्सना की, पूरी दुनिया
के सामने उनका पर्दाफ़ाश किया. साथ ही उन्होंने भारतीय जनता को भी पश्चिमी बुर्जुआ
सभ्यता से सावधान रहने के लिए कहा, उनकी राय में भारतीय जनता
की दयनीय परिस्थिति का यह भी एक कारण था.
टॉल्स्टॉय ने “भारतीय के
नाम पत्र” 7 जून 1908 को आरंभ किया मगर वह समाप्त हुआ लगभग छह महीनों बाद. इस पत्र
के 29 विभिन्न रूप, जो करीब 413 पृष्ठों में फैले
हैं टॉल्स्टॉय के अभिलेखागार में सुरक्षित हैं. प्रस्तुत हैं इस पत्र के कुछ अति
महत्वपूर्ण अंश:
“कुछ लोगों द्वारा दूसरे
लोगों का, विशेषतः अल्पसंख्यकों द्वारा
बहुसंख्यकों का शोषण और उन पर अत्याचार, इस पर मैं पिछले कुछ
समय से विचार कर रहा हूँ.
“भारत के संदर्भ में यह
बड़ा विचित्र प्रतीत होता है कि यहाँ श्रेष्ठ, शारीरिक
और मानसिक रूप से स्वस्थ्य 20 करोड़ लोग मुट्ठीभर एकदम अपरिचित, धार्मिक-नैतिक दृष्टि से उनसे कहीं हीन लोगों द्वारा गुलाम बनाए गए हैं.
एक व्यापारी कम्पनी ने 20
करोड़ लोगों को गुलाम बना लिया! – यह बात किसी से कहकर तो देखिए – वह समझ ही नहीं
पायेगा कि इसका मतलब क्या है?”
पत्र में टॉल्स्टॉय ने
विस्तार से भारतीयों की दयनीय दशा के लिए ज़िम्मेदार कारणों का ज़िक्र किया और अपनी
प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर का अनुसरण करने और अत्याचारियों के सामने न झुकने की
सलाह देते हुए लिखा:
“बुराई का विरोध न करो,
मगर ख़ुद भी बुराई में भाग न लो, शासन के,
न्याय प्रक्रिया के अत्याचारों में, रिश्वतखोरी
में, फ़ौज में हिस्सा न लो और तब कोई भी तुम्हें गुलाम न बना
पायेगा,”
धीरे धीरे टॉल्स्टॉय भारत
में लोकप्रिय होने लगे. उनकी रचनाओं के अनुवाद भारतीय
भाषाओं में पाठकों तक पहुँचने लगे. उनके बारे में पत्र पत्रिकाओं में लिखा जाने
लगा. यह थी उन्नीसवीं शताब्दी के 20 के दशक की बात. धीरे धीरे अनुवादों की संख्या
बढ़ने लगी, साथ ही उनकी रचनाओं के संक्षिप्त रूप , पुनर्र्चनाएँ आदि भी प्रकाशित होते रहे.
चूँकि प्रेमचन्द अपने
प्रकाशनों को सामान्य पाठक के लिए निकालते थे, उन्होंने
इन कहानियों को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत किया, पात्रों के
नाम, उनकी वेशभूषा, जीवन शैली आदि में
भी परिवर्तन किया, जिससे वे भारतीय प्रतीत हों. कहानियों के शीर्षकों
में परिवर्तन किया गया है. उदा. “ईश्वर सत्य को देखता है, मगर
शीघ्र कहता नहीं है” का शीर्षक बदलकर “दयालु” कर दिया है. “कॉकेशस का कैदी” बन गया
है – “राजपूत कैदी”, “शिकार गुलामी से कम नहीं” के स्थान पर
“रीछ का शिकार”, “आग को छोड़ोगे – बुझा न पाओगे” के स्थान पर
“एक चिंगारी पूरे घर को जला देती है”, “इवान मूरख” के स्थान
पर “सुमन्त मूरख” आदि. कुछ कहानियों को उनके द्वारा प्रदर्शित संदेश के आधार पर
भारतीय शीर्षक दिये गये.
प्रेमचन्द ने रूसी पाठ का
सीधा सीधा अनुवाद नहीं किया, बल्कि उसे अपने
ढंग से कहा है, जिससे कभी कभी नई कहानियाँ बन गई हैं,
ताकि भारतीय पाठक उन्हें आसानी से समझ सकें.
प्रेमचन्द तथा टॉल्स्टॉय
के सृजन एवम् विचारों में काफी साम्य दिखाई देता है. प्रेमचन्द ने 4 मार्च 1924 को
अपने एक मित्र को लिखा” “हाल ही में मैंने टॉल्स्टॉय की कहानियाँ पढ़ीं और मुझे यूँ
प्रतीत कि उनका मुझ पर एक विशेष प्रभाव पड़ा है.” श्री अमृतराय के अनुसार प्रेमचन्द
की कहानियों “सावन”, “पूस की रात” और “सवा सेर
गेंहूँ” में टॉल्स्टॉय से काफ़ी निकटता दिखाई देती है.
प्रेमचन्द के उपन्यास
“सेवासदन” तथा “प्रेमाश्रम” में टॉल्स्टॉय के उपन्यास “पुरुत्थान (रिसरेक्शन)” से
काफ़ी समानता दिखाई देती है. “पुनरुत्थान” कहानी है नायिका कत्यूशा मास्लवा के पतन
एवम् राजकुमार नेख्ल्यूदव के नैतिक पुनरुत्थान की. फ़ौज में जाने से पहले
नेख्ल्यूदव अपनी बुआ के घर गाँव में जाता है, कत्यूशा
यहीं पर रहती है और बुआ जी के घर में काम करती है. युवा नेख्ल्यूदव, प्रेमवश ही सही, मगर कत्यूशा को भ्रष्ट कर देता है
और बाद में उसे भूल भी जाता है. कत्यूशा को उसकी मालकिन घर से निकाल देती है,
वह एक मृत बालक को जन्म देती है, कई स्थानों
पर नौकरी करके हर बार उसे यह एहसास होता है कि पुरुष उसे छोड़ेंगे नहीं – अतः वह
शहर में आकर वेश्या व्यवसाय अपना लेती है. एक बार होटल में एक ग्राहक की
संदिग्धावस्था में मृत्यु हो जाती है, कत्यूशा पर आरोप लगाया
जाता है कि उसने चाय में ज़हर देकर उसे मार डाला और उसका धन ले लिया.
कत्यूशा पर मुकदमा चलता है,
जूरी का सदस्य है नेख्ल्यूदव. वह कत्यूशा को पहचान लेता है और डर
जाता है कि बरसों पहले नादानी में किया गया उसका अपराध खुल न जाए. कत्यूशा उसे
नहीं पहचानती, मगर उस रात नेख्ल्यूदव का अपराध बोध उसे सोने
नहीं देता, सुबह वह एक परिवर्तित आदमी के रूप में कत्यूशा से
मिलने जाता है. वह उससे विवाह का प्रस्ताव भी रखता है, जिसे
स्वाभिमानी कात्या ठुकरा देती है. कत्यूशा को सज़ा हो जाती है, मगर नेख्ल्यूदव यह इंतज़ाम कर देता है कि वह राजनैतिक कैदियों के साथ रहे,
वह स्वयम् भी अपनी तमाम ज़मीन जायदाद किसानों में बाँटकर कत्यूशा के
साथ साइबेरिया चला जाता है, जबकि कत्यूशा किसी अन्य राजनैतिक
कैदी में दिलचस्पी लेती दिखाई देती है, मगर अब यह बात भी
नेख्ल्यूदव को परेशान नहीं करती.
ध्यान से देखें तो प्रेमचन्द
का “सेवासदन” कत्यूशा मास्लवा की समस्या को उठाता है,
और उनके “प्रेमाश्रम” के पात्र प्रेमशंकर को टॉल्स्टॉय के उपन्यासों
– “पुनरुत्थान” के नेख्ल्यूदव एवम् “आन्ना करेनिना” के पात्र लेविन का मिला जुला
रूप माना जा सकता है.
प्रेमचन्द के लेखों में और
उनकी रचनाओं में जहाँ तहाँ ऐसे अनेक अंश और टिप्पणियाँ मिलती हैं,
जिनमें उन्होंने रूसी साहित्य की बहुत अच्छी जानकारी, उसकी श्रेष्ठता और यूरोप की अन्य भाषाओं के साथ उसके तुलनात्मक महत्व का
बढ़िया परिचय दिया है. “रूसी साहित्य और हिन्दी साहित्य” नामक अपनी टिप्पणी में
रूसी साहित्य की प्रगति का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है : “उपन्यास और कहानी
के क्षेत्र में, जो गद्य के मूलभूत अंग हैं, सारे संसार ने रूस के प्रभाव को स्वीकार कर लिया है और फ्रान्स को छोड़कर
एक भी देश उसकी बराबरी नहीं कर सकता.”
प्रेमचन्द का रूसी साहित्य
का ज्ञान उन्नीसवीं शताब्दी के महान लेखकों की रचनाओं तक ही सीमीत नहीं था. वह
बीसवीं शताब्दी के लेखकों के कृतित्व से भी भली भाँति परिचित थे,
जिनमें ज़ाहिर है, गोर्की (1868-1936) भी शामिल
थे.
“गोदान” के रूसी अनुवाद की
भूमिका में प्रेमचन्द के सुपुत्र श्रीपत राय का हवाला देते हुए इ. कम्पान्त्सेव ने
लिखा है, “पश्चिमी लेखकों की रचनाओं के साथ
साथ प्रेमचन्द ने रूसी लेखकों की वे सभी रचनाएँ पढ़ी थीं जो उस समय भारत में मिल
सकती थीं. टॉल्स्टॉय, चेखव, तुर्गेनेव
और दस्तायेव्स्की की रचनाओं से वे भली भाँति परिचित थे और उन्हें प्यार करते थे
तथा गोर्की के प्रति उनका विशेष स्नेह भाव था.”
सन् 1929 के दिसम्बर में
अंग्रेज़ी सरकार द्वारा किए जाने वाले कुछ वैज्ञानिक सुधारों पर अपनी राय ज़ाहिर
करते हुए उन्होंने ‘ज़माना’ पत्रिका
के संपादक को लिखा था, “इन सुधारों में अगर कोई ख़ूबी है,
तो सिर्फ यह कि तालीमयाफ़्ता ज़माअत को कुछ ज़्यादा सहूलियतें मिल
जायेंगी और जिस तरह यह ज़माअत वकील बनकर रिआया का ख़ून पी रही है, उसी तरह यह आइन्दा हाकिम बनकर रिआया का गला काटेगी. मैं बोल्शेविस्ट
उसूलों का करीब करीब कायल हो गया हूँ...” लगभग इसी समय लिखे जा रहे और सन् 1921
में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में कुछ इसी तरह की बात प्रकट होती है, जब बलराज
कहता है, “मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें
लिखा है कि रूस देश में काश्तकारों का ही राज है. वे जो चाहते हैं, करते हैं.” अगले कुछ वर्षों में तो रूसी क्रांति में उनकी आस्था और भी
बढ़ी.
सन् 1928 में प्रेमचन्द की
अपनी पत्नी शिवरानी देवी से हुई बातचीत से यह स्पष्ट हो जाता है. अपनी पुस्तक
“प्रेमचन्द घर में” में शिवरानी देवी लिखती हैं – मैंने पूछा ,”जब स्वराज हो जायेगा तब क्या चूसना बंद हो जायेगा?” – आप बोले, “चूसा तो थोड़ा बहुत हर जगह जाता है...हाँ,
रूस है, जहाँ पर कि बड़ों को मार मार कर
दुरुस्त कर दिया गया, अब वहाँ गरीबों का आनन्द है. शायद यहाँ
भी कुछ दिनों बाद रूस जैसा ही हो.” – मैं बोली, “क्या आशा है
कुछ?” – आप बोले, “अभी जल्दी उसकी कोई
आशा नहीं.” – मैं बोली, “मान लो कि जल्दी ही हो जाए, तब आप किसका साथ देंगे?” – आप बोले, “मज़दूरों और काश्तकारों का. मैं पहले ही सबसे कह दूँगा कि मैं तो मज़दूर
हूँ. तुम फ़ावड़ा चलाते हो, मैं कलम चलाता हूँ. हम दोनों बराबर
ही हैं...मैं तो उस दिन के लिए मनाता हूँ कि वह दिन जल्दी ही आये.” – मैं बोली,
“तो क्या रूस वाले यहाँ भी आयेंगे?” – वह बोले,
“रूस वाले यहाँ नहीं आयेंगे, बल्कि रूस वालों
की शक्ति हम लोगों में आयेगी...वह हमारे लिये सुख का दिन होगा जब यहाँ काश्तकारों
और मज़दूरों का राज होगा.”
प्रेमचन्द पर गोर्की की
विचारधारा का अधिकाधिक प्रभाव पड़ रहा था. जहाँ गोर्की तलछटी लोगों और साधारण
मज़दूरों को साहित्य में ला रहे थे, वहीं प्रेमचन्द
फ़टेहाल, निर्धन, अनपढ़, किसानों, अछूतों के बारे में लिख रहे थे.
“प्रेमाश्रम” में किसान मनोहर, उसकी पत्नी विलासी और बेटे
बलराज का चित्रण गोर्की के उपन्यास “माँ” की याद दिलाता है.
गोर्की की रचनाओं में एक
निश्चित ‘फ़ार्मूले’ के
अनुसार कथानक का विस्तार होता है : पहले मुख्य पात्रों को अपने साथ और अपने समान
लोगों पर हो रहे अन्याय का ज्ञान होता है. ऐसा किन्हीं पढ़े लिखे, सामाजिक रूप से जागृत, मज़दूरों के नेताओं के सम्पर्क
में आने के कारण होता है. फिर ये पात्र अन्य लोगों में भी जागृति फ़ैलाने का कार्य
करते हैं, अपने उद्देश्य की प्राप्ति में जी जान से जुट जाते
हैं. यह पहली बार “माँ” में दिखाया गया था. प्रेमचन्द की अनेक रचनाओं में कथानक के
विस्तार का यह क्रम दिखाई देता है.
“प्रेमाश्रम” का बलराज
भारत का नया, जागृत नौजवान, किसानों का प्रतिनिधि है. वह अख़बार भी पढ़ता है और किसानों की शक्ति की भी
उसे चेतना है. वह एक किसान को, जो मज़ाक करते हुए यह कहता है
कि बलराज से कहो कि वह सरकार के पास हमारी ओर से फ़रियाद कर आये, यह उसका काम है.”
“तुम लोग तो ऐसे हँसी
उड़ाते हो, मानो काश्तकार कुछ होता ही नहीं.
वह ज़मीन्दार की बेगार ही भरने के लिए बनाया गया है. लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है,
उसमें लिखा है कि रूस में काश्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं – करते हैं.” यह पात्र “माँ” के पावेल व्लासव के समान है,
और विलासी में झलक है पावेल की अनपढ़, बूढ़ी,
चुपचाप पति का अत्याचार सहने वाली पिलागेया नीलव्ना की जो अपने बेटे और उसके साथियों की बातें
सुन-सुनकर सामाजिक अन्याय का कारण समझने योग्य हो जाती है. इतना ही नहीं, जब पावेल तथा उसके साथियों को जेल में बंद कर दिया जाता है तो नीलव्ना उनके कार्य को यथाशक्ति आगे बढ़ाती है, अन्त में उसे भी गिरफ़्तार कर लिया जाता है.
विलासी भी किसानों के
अधिकारों के बारे में सजग नारी है. जब उससे कहा जाता है,
कि सरकारी हुक्म से पंचायती ज़मीन पर किसानों का कोई अधिकार नहीं रहा,
तो वह तनकर कहती है, “कैसा सरकारी हुक्म?
सरकार की ज़मीन नहीं है….हमारे मवेशी सदा से
यहाँ चरते आये हैं और सदा यहीं चरेंगे. अच्छा सरकारी हुक्म है, आज कह दिया चरागाह छोड़ दो, कल कहेंगे अपना-अपना घर
छोड़ दो, पेड़ तले जाकर रहो. ऐसा कोई अन्धेर है?”
“कर्मभूमि” में प्रेमचन्द
सामाजिक यथार्थवाद के अधिक निकट प्रतीत होते हैं. “समर
यात्रा” की नोहरी भी “माँ” की पिलागेया नीलव्ना के अधिक करीब है. उसकी आत्मा का भी
वैसे ही कायाकल्प हो जाता है, जैसे नीलव्ना का हुआ था.
यदि विस्तार से इन कुछ
रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो प्रतीत होगा कि 20के दशक तक प्रेमचन्द पर
टॉल्स्टॉय की विचारधारा का प्रभाव रहा, रूस में
उन्हें उस काल का भारतीय टॉल्स्टॉय कहा जाता है. मगर जैसे जैसे भारतीय स्वतन्त्रता
संग्राम तीव्र होता गया, प्रेमचन्द के साहित्य एवम् उनके
विचारों पर गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा. रूस में प्रेमचन्द को उस समय का
गोर्की कहा जाता है.
saMdBa-
1. madnalaala maQau "xgaaokxI- AaOr pa`omacandx"x,xmaa^skxaox,x1980
2. Shifman A.E. " Lev Tolstoy i Vostok", Moscow,1971
3. Berdnikov and others(ed.) "L.N. Tolstoy i Sovremennost' ", Moscow, 1981
4. Balin V. " Premchand-Izbrannoye ", Leningrad, 1979
5. Rabinovich I (trans) " Pole Bytvi", Moscow, 1958.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.