बादल
कवि: मिखाईल लेरमेंतोव
अनुवाद: आ.चारुमति रामदास
आसमानी बादल, चिर बंजारे!
मोतियों की क़तार जैसे नीले मैदानों में
चले जाते हो, मेरी तरह, ऐसे, जैसे, कोई निर्वासित,
दक्खिन की ओर लुभावने उत्तर से.
कौन खदेड़ता है तुम्हें: क्या क़िस्मत का है फ़ैसला?
या छुपी हुई ईर्ष्या? या खुल्लम खुल्ला दुश्मनी?
या बोझ है मन पर किसी अपराध का?
या दोस्तों की निन्दा ज़हरीली?
नहीं, उकता गये हो तुम बंजर खेतों से...
अनजान हो तुम इच्छाओं से, तकलीफ़ों से;
भावरहित सदा, सदा हो आज़ाद,
ना कोई जन्मभूमि है तेरी, ना है देश निकाला.
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