ओ काले पर्वत
कविता : मरीना त्स्वेताएवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
ओ काले पर्वत,
समूची रोशनी खा जाने वाले!
बस – हो गया – आ गया वक़्त
विधाता को टिकट लौटाने का.
करती हूँ इनकार – अपने होने से
लोगों की आपाधापी में,
करती हूँ इनकार जीने से
चौराहे के भेड़ियों के साथ
इनकार करती हूँ – बिसूरने
से
मैदानों की शार्कों के साथ
इनकार करती हूँ तैरने से –
नीचे
पीठ के बहाव के साथ.
नहीं चाहिए मुझको छेद
कानों के, न ही भविष्यसूचक
आँखें
तुम्हारी बदहवास दुनिया को
जवाब है, बस – इनकार.
अच्छा अनुवाद।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद , अनिलजी!
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