कड़ाके की ठण्ड
लेखक: ईल्या इल्फ़, यिव्गेनी पित्रोव
अनुवाद :
आ. चारुमति रामदास
स्केटिंग रिंक्स बन्द हैं. बच्चों को
घूमने के लिए नहीं छोड़ा जा रहा है,
और
वे घर में बैठे-बैठे उकता रहे हैं. घुड़सवारी प्रतियोगिताएँ रोक दी गई हैं. तथाकथित
“कुत्ती-ठण्ड” आ गई है.
मॉस्को में कुछ
थर्मामीटर -340 दिखा रहे हैं, कुछ, न
जाने क्यों, -310 , और कुछ ऐसे भी अजीब थर्मामीटर
हैं, जो – 370 भी दिखा रहे हैं. और ऐसा इसलिए
नहीं हो रहा है क्योंकि कुछ थर्मामीटर सेल्सियस और कुछ रियूमर में तापमान दिखाते
हैं, और इसलिए भी नहीं, कि अस्तोझेन्का
में अर्बात के मुकाबले ज़्यादा ठण्ड है, और राज़्गुल्याय में
गोर्की स्ट्रीट के मुकाबले ज़्यादा कड़ी बर्फ है. नहीं, कारण
कुछ और ही हैं. आप जानते ही हैं, कि इन नाज़ुक उपकरणों की
उत्पाद गुणवत्ता हमेशा ऊँचे दर्जे की नहीं होती. संक्षेप में, जब तक संबंधित व्यवसाय संगठन, इस बात से हैरान होकर,
कि बर्फ़बारी के कारण लोगों को अप्रत्याशित रूप से उसकी ख़ामियों का
पता चल गया है, अपने उत्पादन में सुधार लाने की कोशिश नहीं
करता, हम एक औसत आँकड़ा ले लेते हैं,
-330.. ये बिल्कुल विश्वसनीय है और “कुत्ती-ठण्ड” की
अवधारणा की सटीक अंकगणितीय अभिव्यक्ति है.
आँखों तक गरम
कपड़ों में लिपटे हुए मॉस्कोवासी अपने स्कार्फ़ और कॉलर्स के बीच से एक दूसरे से
चिल्लाकर कह रहे हैं:
“ग़ज़ब हो गया, कितनी
ठण्ड है!”
“इसमें ग़ज़ब की
क्या बात है?
मौसम विभाग कह रहा है कि बेरिन्ट सागर से आ रही ठण्डी हवाओं के घुस
आने के कारण मौसम ठण्डा हो गया है.”
“धन्यवाद. वो लोग इतनी बारीकी से कैसे जान
लेते हैं. और मैं बेवकूफ़, ये सोच
रहा था कि ये ठण्ड गर्म अरबी हवाओं के घुस आने के कारण है.”
“आप हँस रहे हैं, मगर कल तो ठण्ड और भी बढ़ने वाली है.”
“ऐसा नहीं हो
सकता.”
“यकीन मानिए, ऐसा
ही होने वाला है. अत्यंत विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है. बस, किसी को बताना नहीं. समझ गए? हमारे यहाँ चक्रवात आने
वाला है, और इसके पीछे-पीछे प्रतिचक्रवात. और इस
प्रतिचक्रवात के पीछे फिर से चक्रवात, जो हमें अपनी चपेट में
लेने वाला है. समझ रहे हैं? अभी तो कुछ भी नहीं है, अभी हम प्रतिचक्रवात के केन्द्र में हैं, मगर जब
चक्रवात की पूँछ में पहुँचेंगे तब आप रोने लगेंगे. अप्रत्याशित बर्फबारी होगी.
सिर्फ किसी से एक लब्ज़ भी न कहना.”
“माफ़ कीजिए, वैसे
ज़्यादा ठण्डा कौन होता है – चक्रवात या प्रतिचक्रवात?”
“बेशक, प्रतिचक्रवात.”
“मगर अभी-अभी
आपने कहा कि चक्रवात की पूँछ में कोई अप्रत्याशित बर्फबारी होती है.”
“पूँछ वाले
हिस्से में वाकई में बेहद ठण्ड होती है.”
“और प्रतिचक्रवात?”
“क्या
प्रतिचक्रवात?”
“आपने ख़ुद ही कहा
कि प्रतिचक्रवात ज़्यादा ठण्डा होता है.”
“और मैं कह रहा
हूँ,
कि ज़्यादा ठण्डा है. आपको कौन सी बात समझ में नहीं आ रही है?
प्रतिचक्रवात के केन्द्र में ज़्यादा ठण्ड होती है, बनिस्बत चक्रवात की पूँछ के. लगता है, समझ में आ
गया.”
“और फ़िलहाल हम
कहाँ हैं?”
“प्रतिचक्रवात की
पूँछ में. क्या आप देख नहीं रहे हैं?”
“इतनी ठण्ड क्यों
है?”
“कहीं आपने ये तो
नहीं सोच लिया कि प्रतिचक्रवात की पूँछ से याल्टा बंधा हुआ है? क्या
आपके हिसाब से ऐसा है?”
आम तौर से देखा
गया है कि भारी बर्फ़बारी के दौरान लोग बेवजह ही झूठ बोलने लगते हैं. बेहद ईमानदार
और सत्यवादी लोग भी झूठ बोलते हैं, जिनके दिमाग़ में सामान्य मौसम में
झूठ बोलने का ख़याल तक नहीं आता. और बर्फ़बारी जितनी भारी होती है, झूठ भी उतना ही भारी होता है. तो, मौजूदा ठण्डे मौसम
में सरासर झूठ बोलने वाले इन्सान को ढूँढ़ना ज़रा भी मुश्किल नहीं है.
ऐसा आदमी किसी के
यहाँ आता है,
बड़ी देर तक अपने गरम कपड़े उतारता है; अपने
मफ़लर के अलावा सफ़ेद लेडीज़ शॉल उतारता है, भारी-भरकम जूते
खींचकर निकालता है और अख़बार में लिपटे साथ लाए हुए घरेलू जूते पहन लेता है और कमरे
में घुसते हुए प्रसन्नता से चहकता है:
“बावन डिग्री.
रियूमर के अनुसार.”
मेज़बान कहना
चाहता है,
कि “इतनी भारी बर्फबारी में तू क्यों लोगों के घरों में घुस रहा है?
घर में ही बैठा रहता”, मगर इसके बदले वह
अकस्मात् कहता है:
“क्या कह रहे हैं
पावेल फ़िदरोविच,
और ज़्यादा है. दिन में ही चौवन था, और अब तो
और भी ज़्यादा ठण्डा है.”
तभी घंटी बजती है, और
बाहर से एक नई आकृति प्रकट होती है. यह आकृति कॉरीडोर से ही ख़ुशी से चिल्लाती है:
“साठ, साठ!
साँस लेने के लिए कुछ नहीं है, बिल्कुल कुछ भी नहीं.”
और तीनों ही
अच्छी तरह जानते हैं, कि ज़रा भी साठ नहीं है और चौवन भी नहीं है,
और बावन भी नहीं, और पैंतीस भी नहीं, बल्कि तैंतीस है, और वो रियूमर पर नहीं, बल्कि सेल्सियस स्केल पर, मगर अतिशयोक्ति से बचना
असंभव था. उनकी इस छोटी-सी कमज़ोरी के लिए उन्हें माफ़ करेंगे. बोलने दो झूठ अपनी
सेहत के लिए. हो सकता है, कि उन्हें ऐसा करने से कुछ गरमाहट
महसूस होती हो.
जब वे बातें कर
रहे होते हैं,
तभी खिड़कियों से पट्टी गिर जाती है, क्योंकि
वह पट्टी उतनी नहीं है, जितनी सादी मिट्टी है, जबकि माल की गुणवत्ता की सूची में इसकी गुणवत्ता उच्चतम दिखाई गई है.
बर्फ-इंस्पेक्टर सब देखता है. ये भी देखता है, कि दुकानों
में ख़ूबसूरत रंगीन रूई भी नहीं है, जिसकी ओर देखना अच्छा
लगता है, जब वह खिड़कियों की फ्रेम्स के बीच बैठी क्वार्टर की
गर्माहट की हिफ़ाज़त करती है.
मगर बातें करने
वालों का इस ओर ध्यान नहीं जाता. अलग-अलग किस्से सुनाए जा रहे हैं ठण्ड के और
बर्फीले तूफ़ानों के बारे में, ठिठुरते लोगों की हिफ़ाज़त करती सुखद
झपकी के बारे में, सेन्ट बर्नार्ड्स के बारे में जो गले के
पट्टे पर रम की बैरल लटकाए, बर्फीले पहाड़ों में भटके हुए
पर्वतारोहियों की तलाश करते हैं, हिम-युग को याद करते हैं,
बर्फ़ में दब गए परिचितों को याद करते हैं (एक परिचित जैसे बर्फ के
छेद में गिर गया था, बारह मिनट बर्फ़ के भीतर रहने के बाद
रेंगकर बाहर आ गया था – सही-सलामत). और इसी तरह के कई किस्से.
मगर सबसे बढ़िया
थी कहानी दद्दू के बारे में. दादाओं का स्वास्थ्य आम तौर से बढिया होता है. दादाओं
के बारे में अक्सर दिलचस्प और वीरतापूर्ण किस्से सुनाए जाते हैं. (मिसाल के तौर पर, “मेरे दादा कृषि-दास थे”, जबकि असल में उनकी एक
छोटी-सी किराने की दुकान थी). तो, भारी बर्फ़बारी के दिनों
में दादा की आकृति विशाल रूप धारण कर लेती है.
हर घर में दादा
की अपनी-अपनी कहानियाँ होती हैं.
“ये, आप
और हम स्केटिंग कर रहे हैं – कमज़ोर, लाड़ में पली पीढ़ी. मगर
मेरे दादा जी, मुझे अभी भी उनकी याद है (यहाँ सुनाने वाला
लाल हो जाता है, ज़ाहिर है ठण्ड की वजह से), सीधे सादे कृषि दास, और बेहद कड़ाके की ठण्ड में,
पता है, चौसठ डिग्री में, जंगल जाते थे लकड़ियाँ तोड़ने, सिर्फ एक उजले जैकेट और
टाई में. कैसे?! थे न बहादुर इन्सान?”
“दिलचस्प बात है.
मेरे साथ भी ऐसा ही संयोग था. मेरे दादा जी बिल्कुल अपनी ही तरह के इन्सान थे.
माइनस सत्तर डिग्री तापमान, हर ज़िंदा चीज़ अपने-अपने बिल में छुपी
थी, मगर मेरा बूढ़ा सिर्फ धारियों वाली पतलून में जा रहा है,
हाथ में कुल्हाड़ी लिए नदी में नहाने के लिए. अपने लिए एक छेद बनाता
है, घुस कर नहाता है – और वापस घर लौटता है. फ़िर भी कहता है,
कि गर्मी लग रही है, दम घुट रहा है.”
यहाँ दूसरा लाल
हो जाता है,
ज़ाहिर है चाय पीने के कारण.
वार्तालाप कर रहे
लोग कुछ देर तक सतर्कता से एक दूसरे की ओर देखते हैं और, ये
निश्चित करके कि पौराणिक दादा जी के प्रति कोई विरोध नहीं हो रहा है, इस बारे में झूठ बोलना शुरू करते हैं कि कैसे उनके पुरखे उँगलियों से रूबल
के सिक्के तोड़ देते थे, काँच खा जाते थे और जवान लड़कियों से
शादी करते थे – सोचो, किस उमर में?
एक सौ बत्तीस साल की उमर में. बर्फ़बारी लोगों के कैसे-कैसे छुपे हुए
गुणों को उजागर करती है!
अविश्वसनीय दादा
चाहे जो करते हों,
मगर तैंतीस डिग्री तापमान अच्छा नहीं लगता. अमुन्दसन ने कहा कि ठण्ड
की आदत नहीं हो सकती. उसकी बात पर यकीन किया जा सकता है, बिना
प्रमाणों की माँग किए. उसे ये बात अच्छी तरह मालूम है. तो, बर्फ,
बर्फ. यकीन ही नहीं होता कि हमारे सुदूर उत्तर में ख़ुशनसीब, गर्माहट भरे स्थान हैं, जहाँ सम्माननीय मौसम विभाग
के अनुसार शून्य से सिर्फ दस-पन्द्रह डिग्री नीचे तापमान है.
स्केटिंग रिंक्स
बंद हैं,
बच्चे घरों में बैठे हैं, मगर ज़िंदगी चल रही
है – मेट्रो-रेल का काम पूरा हो रहा है, थियेटर्स भरे हैं ( ‘शो’ छोड़ने की अपेक्षा ठण्ड में ठिठुरना बेहतर है),
पुलिस वाले अपने दस्ताने नहीं उतारते, और,
बेहद कड़ाके की ठण्ड में भी हवाई जहाज़ एक के बाद एक अपने गंतव्य की
ओर उड़ रहे हैं.
(1935)
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