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शनिवार, 21 अप्रैल 2012

Poem by B. Pasternak





शीत ऋतु की एक रात
-    बोरिस पास्तरनाक
-अनुवाद: ए. चारुमति रामदास

श्वेत रंग है वसुन्धरा पर
श्वेत ही हैं सारी सीमाएँ,
जले शमा एक मेज़ पर,
शमा जले.

जैसे पतंगे ग्रीष्म ऋतु में
मंडलाते हैं लौ के पास,
हिमकण उड़कर टकराते हैं
खिड़की के शीशे के पास.

अथक प्रहार करें शीशे पर
झंझावाती तीर-कमान
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले.

उजली ऊँची छत पर हैं
पड़ती छायाएँ,
हाथों पैरों के सलीब हैं
और सलीब नसीबों के.

गिरे मोम के दो जूते
खट-खट करते फर्श पर
और मोम के अश्रु बहे
वस्त्रों को भिगोते टप टप टप.

हुआ निछावर सब कुछ बूढ़े
श्वेत झँझावात पर,
शमा जले एक मेज़ पर,
शमा जले.

पुचकारा हवा ने शमा को ऐसे,
 लपट उठी सुनहरी,लुभावन
जैसे फरिश्ता पंखोंवाला
या फिर जैसे हो सलीब.

चाँद फरवरी का सफ़ेद है
मगर न जाने फिर भी क्यों
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले.

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