अलेक्सान्द्र पूश्किन की एक कविता
अनुवाद: ए. चारुमति रामदास
चाहा तुम्हे: चाहत की आग अब भी शायद,
मेरे दिल में बुझी नहीं पूरी;
मगर न भड़्कायें तुमको अब ये शोले,
सौगात दर्द की तुम्हें न अब दूँगा.
चाहा तुझे ख़ामोशी से, बेउम्मीदी से,
कभी डरते-डरते , कभी रश्क से जलते;
मगर चाहा इस सच्चाई से, इस नज़ाकत से,
ख़ुदा करे कि रहो तुम औरों को भी यूँ ही प्यारे.
(1829)
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