5.
मगर इस दुनिया में कोई भी चीज़ शाश्वत नहीं है, और
इसीलिए ख़ुशी भी अगले क्षण उतनी जोशीली नहीं रहती, तीसरे क्षण
वह और कमज़ोर पड़ जाती है और अन्त में मन की अवस्था में अनजाने ही घुलमिल जाती है,
जैसे पानी में पत्थर गिरने से बना वृत्त, जो
बाद में समतल सतह में खो जाता है. कवाल्योव सोचने लगा और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि
काम अभी ख़त्म नहीं हुआ है : नाक मिल तो गई है, मगर उसे अपनी
जगह पर वापस तो बिठाना है.
‘’’और यदि न बैठे तो?
अपने आपसे किए गए
इस सवाल से कवाल्योव का चेहरा पीला पड़ गया.
एक अनजान भय से
वह मेज़ की ओर लपका, आईना नज़दीक लाया, जिससे
नाक को टेढ़ी न बिठा दे. उसके हाथ थरथरा रहे थे. बड़ी सावधानी से उसने नाक को अपनी
पहली वाली जगह पर रखा. ओह, भयानक! नाक चिपक ही नहीं रही थी.
वह उसे अपने मुँह के पास लाया, अपनी साँस से उसे कुछ गर्म
किया और दुबारा दोनों गालों के बीच वाली समतल जगह पर लाया, मगर
नाक थी कि वहाँ रुक ही नहीं रही थी.
“ओह! मान भी जा!
चढ़ जा,
बेवकूफ़!” उसने नाक से कहा, मगर नाक तो मानो
काठ की बन गई थी और बार-बार मेज़ पर इतनी अजीब आवाज़ के साथ गिर-गिर पड़ती थी मानो
बोतल का ढक्कन हो. मेजर का चेहरा बिसूर गया. ‘क्या सचमुच वह
चिपकेगी नहीं?’ उसने ख़ौफ़ से सोचा. कितनी ही बार वह उसे अपनी
पहले वाली जगह पर ले गया, मगर उसकी हर कोशिश बेकार गई.
उसने इवान को
डॉक्टर के पास भेजा, जो उसी बिल्डिंग की निचली मंज़िल पर रहता था.
डॉक्टर बड़ा ख़ूबसूरत आदमी था – काले कल्लों वाला, तंदुरुस्त
बीबी वाला; सुबह-सुबह ताज़े सेब खाता था और अपना मुँह बहुत
साफ़ रखता था, हर सुबह करीब पैंतालीस मिनट तक उसे साफ़ करता था
और दाँतों को भी विभिन्न प्रकार के टूथ ब्रशों से साफ़ किया करता था. डॉक्टर फ़ौरन आ
गया. यह पूछने के बाद कि दुर्घटना कितनी देर पहले हुई है, उसने
मेजर की ठुड्डी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया और अपनी बड़ी उँगली से उस स्थान पर
टक-टक किया जहाँ पहले नाक हुआ करती थी. मेजर ने अपना चेहरा इतनी ज़ोर से पीछे हटाया
कि उसका सिर दीवार से टकरा गया. डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है और उसे
दीवार से कुछ दूर हटने की सलाह देकर चेहरा बाईं ओर मोड़ने को कहा. उस जगह को छूकर,
जहाँ पहले नाक थी, बोला, “हूँ!” फिर सिर को दाईं ओर मोड़ने की आज्ञा दी और बोला, “हूँ!” – और अन्त में फिर से बड़ी उँगली से उस जगह चोट की जिससे मेजर ने
अपना सिर इस तरह हिलाया, जैसे वह घोड़ा हिलाता है जिसके दाँत
देखे जा रहे हों. इतने सारे परीक्षणों के बाद डॉक्टर बोला :
“नहीं, असंभव
है! बेहतर है कि आप इसी तरह रहें, क्योंकि बात बिगड़ भी सकती
है. उसे बिठाना संभव तो है, मैं ख़ुद ही उसे अभी चिपका देता,
मगर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह आपके लिए बुरा होगा.”
“ये अच्छी कही!
नाक के बगैर मैं रहूँ कैसे?” कवाल्योव ने कहा. अभी है, उससे बदतर हालत तो नहीं हो सकती. शैतान ही जाने ये मुसीबत क्या है! ऐसी
जोकरों जैसी शक्ल में मैं किसी को मुँह कैसे दिखा सकता हूँ? मेरी
कई लोगों से अच्छी पहचान है. आज ही शाम को मुझे दो घरों में मिलने जाना है,
कई बड़े-बड़े लोगों को मैं जानता हूँ : उच्च श्रेणी की महिला
चेख्तारेवा, पोद्तोचिना – बड़े अफ़सर की बीबी...हालाँकि उसकी
आज की हरकत के बाद मैं उससे कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहता, सिर्फ
पुलिस के ज़रिए ही उससे बात करूँगा. मुझ पर मेहेरबानी कीजिए,” कवाल्योव ने बड़े विनय से कहा, “क्या कोई भी उपाय
नहीं है? किसी तरह लगा दीजिए, अच्छी
तरह नहीं तो सिर्फ लटकती रहने दीजिए, मैं उसे हाथ से सँभाले
रहूँगा. मैं नृत्य भी नहीं करूँगा, जिससे
किसी भी असावधानी के क्षण में उसे नुकसान न पहुँचे. जहाँ तक आपकी मेहेरबानी का
सवाल है, आपकी ‘विज़िटों’ का सवाल है, तो विश्वास रखिए कि जहाँ तक संभव
होगा...”
“विश्वास कीजिए,” डॉक्टर ने हौले से, मगर दृढ़ और मीठी आवाज़ में कहा,
“मैं पैसों के लालच में इलाज नहीं करता. यह मेरे पेशे और मेरे
नियमों के ख़िलाफ़ है. यह सच है कि मैं ‘विज़िट’ के लिए पैसे लेता हूँ, मगर सिर्फ इसलिए कि मेरे
इनकार से कोई अपमानित न हो जाए. मैं आपकी नाक ज़रूर बिठा देता, मगर यदि आप मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं करते तो मैं आपको अपनी प्रतिष्ठा
का वास्ता देता हूँ, कि यह बहुत बुरा रहेगा. प्रकृति को ही
अपना काम करने दीजिए. उस जगह को ठण्डे पानी से धोते रहिए, मैं
आपको यकीन दिलाता हूँ, कि बगैर नाक के भी आप उतने ही
स्वस्थ्य रहेंगे जितने नाक के साथ होते. मैं आपको सलाह दूँगा कि नाक को स्प्रिट के
घोल में रखकर बैंक में रख दीजिए, दो चम्मच वोद्का में गर्म
सिरके का घोल ज़्यादा अच्छा रहेगा, - और तब आपको उसके पैसे भी
अच्छे मिलेंगे. यदि आप उसकी हिफ़ाज़त न करना चाहें तो मैं ही उसे ख़रीद लूँगा.”
“नहीं,बिल्कुल
नहीं! बेचूँगा किसी हालत में नहीं!” मेजर कवाल्योव आहत भाव से चीख़ा, “इससे त्तो अच्छा है कि वह फिर से खो जाए!”
“क्षमा कीजिए,” डॉक्टर ने झुककर कहा, “मैं तो आपकी मदद करना चाहता
था...क्या किया जाए! आपने कम-से-कम यह तो देखा कि मैं कोशिश कर रहा हूँ.”
इतना कहकर डॉक्टर
एहसान जताते हुए कमरे से बाहर निकल गया. कवाल्योव ने चेहरे को भी ध्यान से नहीं
देखा,
वह बड़े बेमन से उसके काले कोट की बाँहों से झाँकती कमीज़ की बर्फ के
समान साफ़ और सफ़ेद आस्तीनों को देखता रहा.
उसने तय किया कि
शिकायत करने से पहले वह अगले दिन उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी को ख़त लिखेगा, पूछेगा
कि वह बिना लड़ाई-झगड़ा किए उसके नाक वापस लौटाएगी या नहीं. ख़त कुछ इस तरह का था :
“प्रिय
महोदया अलेक्सान्द्रा ग्रिगोरेव्ना,
आपके
अजीब व्यवहार को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. याद रखिए कि इस तरह की हरकत से आपको कुछ
भी हासिल होने वाला नहीं है और न ही आप अपनी बेटी से शादी करने के लिए मुझ पर
ज़बर्दस्ती कर सकती हैं. मेरी नाक के साथ हुए नाटक को मैं भली-भाँति समझ गया हूँ, और
मुझे पूरा विश्वास है, कि इस घटना के लिए सिवाय आपके कोई और
ज़िम्मेदार नहीं है. उसका अपनी जगह से अचानक हट जाना, वेश
बदलकर भाग जाना, कभी एक अफ़सर के रूप में और कभी अपने
वास्तविक रूप में, यह सब जादू-टोने का ही नतीजा है, जिन्हें आपने या आपके आदेश पर किसी और ने किया है. मैं, अपनी ओर से, आपको आगाह करता हूँ, यदि उपरोक्त वर्णन की गई नाक आज ही अपने स्थान पर वापस नहीं आई तो मैं
सुरक्षा के लिए कानून का सहारा लूँगा.
ख़ैर, सम्पूर्ण
आदरभाव के साथ मैं हूँ,
आपका विनम्र सेवक,
प्लातोन
कवाल्योव.
प्रिय
महोदय,प्लातोन कवाल्योव,
आपके
पत्र ने मुझे बुरी तरह चौंका दिया. मैं कहना चाहूँगी कि मुझे आपसे ऐसी उम्मीद
बिल्कुल नहीं थी, ख़ास तौर से उन इलज़ामों की जो आपने मुझ पर लगाए
हैं. मैं विश्वास दिलाती हूँ, कि उस अफ़सर को, जिसका ज़िक्र आपने किया है, मैंने कभी भी अपने घर में
नहीं बुलाया, न तो उसके वास्तविक रूप में और न ही बदले हुए
रूप में. हाँ, मेरे घर फ़िलिप इवानविच पताच्निकोव ज़रूर तशरीफ़
लाए थे, और हालाँकि उन्होंने मेरी बेटी का हाथ माँगने की
कोशिश भी की, परन्तु मैंने उसके विद्वान, आकर्षक और अच्छे चालचलन वाला होने के बावजूद उसे कोई भी आश्वासन नहीं दिया
है. आप नाक के बारे में कहते हैं. अगर ऐसा कहने का आपका मतलब यह है कि मैं आपकी
नाक ले रही हूँ, याने आपको इनकार कर रही हूँ, तो मुझे आश्चर्य हो रहा है, कि आप ही ऐसी बात कर रहे
हैं, जबकि मेरा इरादा इससे बिल्कुल उल्टा है, और अगर आप अभी भी मेरी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो मैं फ़ौरन
राज़ी हो जाऊँगी, क्योंकि मेरी तो यही इच्छा रही है, और इसी उम्मीद में मैं हमेशा आपकी सेवा में तत्पर रहूँगी.
अलेक्सान्द्रा
पोद्तोचिना
“नहीं,” ख़त पढ़ने के बाद कवाल्योव बोला, “वह दोषी नहीं है.
कोई अपराधी इस तरह का ख़त लिख ही नहीं सकता.” सुपरिंटेंडेंट को इस बात का पूरा
अनुभव था क्योंकि कॉकेशस में उसे कई बार खोज-बीन के लिए भेजा जाता था. “तो फिर यह
हुआ कैसे? सिर्फ शैतान ही समझ सकता है!” उसने आख़िरकार हाथ
लटकाते हुए कहा.
इसी बीच इस अजूबे
की ख़बर पूरी राजधानी में फैल चुकी थी, ज़ाहिर है, काफ़ी
मिर्च-मसाले के साथ. तब सभी बुद्धिमान व्यक्ति पराकाष्ठा की सीमा तक पहुँच गए :
कुछ ही दिन पहले जनता को सम्मोहन के प्रभाव ने आकर्षित किया था. फिर कन्यूशेना
मार्ग पर घटित नाचती कुर्सियों की कहानी की स्मृति भी अभी ताज़ी थी, और इसीलिए हमें ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ जब लोग कहने लगे कि सुपरिंटेंडेंट
की नाक दिन के ठीक तीन बजे नेव्स्की एवेन्यू पर टहल रही है. हर रोज़ अनेक अजीबोग़रीब
बातें सुनने को मिलतीं. कोई कहता कि नाक ‘यून्केर’ की फैशनेबुल दुकान में बैठी है – तो ‘यून्केर’
के निकट इतनी भीड़ और रेलपेल मच जाती कि पुलिस को आना पड़ता. एक
सुदर्शन, कल्ले वाले व्यापारी ने, जो
थियेटर के बाहर बिस्किट बेचा करता था, ख़ास तौर से ख़ूबसूरत
लकड़ी की बेंचें बनवाईं, जिस पर वह हर आगन्तुक को अस्सी-अस्सी
कोपेक लेकर बैठने देता था. एक कर्नल तो ख़ास तौर से घर से जल्दी निकला था और बड़ी
मुश्किल से भीड़ को चीरता हुआ वहाँ पहुँचा था, मगर उसे “शो-केस”
में नाक के बदले दिखाई दी साधारण ऊन की टोपी-मोज़े संभालती लड़की की तस्वीर जिसे पेड़
के पीछे छिपा, खुला जैकेट पहने, छोटी-सी
दाढ़ीवाला मनचला देख रहा था. यह तस्वीर पिछले दस सालों से इसी जगह थी. वहाँ से हटते
हुए उसने बड़े दुख से कहा : “इन बेवकूफ़ियों भरी झूठी अफ़वाहों से लोगों को कैसे
फ़ुसलाया जा सकता है?”
तभी दूसरी अफ़वाह फ़ैलती
कि मेजर कवाल्योव की नाक नेव्स्की एवेन्यू पर नहीं अपितु तव्रीचेस्की उद्यान में
घूम रही है और वह वहाँ बड़ी देर से है, तब से जब से वहाँ खोज़्रेव मिर्ज़ा
रहा करते थे, जिसे कुदरत के करिश्मे से बड़ा आश्चर्य हुआ था.
शल्य क्रिया अकादमी के कुछ विद्यार्थी वहाँ पहुँचे. एक प्रसिद्ध, आदरणीय महिला ने पत्र लिखकर उद्यान के दरबान से विनती की कि उसके बच्चों
को यह बिरला कारनामा दिखाए और समझाए.
इन सभी घटनाओं से
वे मनचले बहुत ख़ुश थे जो औरतों को छेड़ा करते थे. मगर सभ्य और आदरणीय नागरिक इस
सबसे बड़े नाराज़ थे. एक नागरिक ने दुखी होकर कहा कि इस जागृति और शिक्षा के युग में
ऐसी बेसिरपैर की अफ़वाहें कैसे फ़ैलती हैं और उसे आश्चर्य है कि सरकार इस ओर ध्यान
क्यों नहीं देती. यह महाशय बेशक उन लोगों में से थे जो हर बात की ज़िम्मेदारी सरकार
पर डाल देते थे,
पत्नी से हुई रोज़मर्रा की चख़चख़ की भी. इसके बाद ...मगर यहाँ भी सारी
घटना कोहरे में छिप गई है, और उसके बाद क्या हुआ, हमें सचमुच नहीं मालूम.
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