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रविवार, 17 मार्च 2019

Nose - 6



6
संसार में बड़ी अजीब घटनाएँ घटती हैं. कभी-कभी तो उनका सिर-पैर भी समझ में नहीं आता : अचानक वही नाक, जो अफ़सर बनकर घूम रही थी, और जिसने शहर में इतना हड़कम्प मचा रखा था, अपनी जगह पर याने मेजर कवाल्योव के दोनों गालों के बीच ऐसे बैठ गई जैसे कुछ हुआ ही न हो. यह हुआ सात अप्रैल को. सुबह उठते ही कवाल्योव ने यूँ ही आईने में देखा तो देखता ही रह गया : नाक! हाथ से पकड़ा – बिल्कुल नाक! “ऐ हे!” कवाल्योव बोला और ख़ुशी के मारे नंगे पैर ही पूरे कमरे में नाचने लगा, मगर अन्दर आते हुए इवान ने रंग में भंग कर दिया. उसने मुँह धोने के लिए फ़ौरन पानी लाने की आज्ञा दी और मुँह धोते-धोते दुबारा आईने में देखा : नाक! अपने चेहरे को वल्कल से मलते हुए उसने फिर से शीशे में देखा : नाक!
“देखो तो, इवान, शायद मेरी नाक पर मस्सा उग आया,” उसने कहा और सोचा : अगर इवान कहे : नहीं, मालिक मस्सा तो क्या, नाक ही नहीं है!तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी!
मगर इवान ने कहा :
“नहीं तो, कोई मस्सा-वस्सा नहीं है, नाक एकदम साफ़ है.
“ठीक है, भाड़ में जाए!” मेजर ने अपने आप से कहा और उँगलियों से उसे पकड़कर खींचा. इसी समय नाई इवान याकव्लेविच ने दरवाज़े से भीतर झाँका, मगर डरते-डरते, उस बिल्ली के अंदाज़ में जिसे अभी मछली चुराने पर पीटा गया हो.
“सामने आकर कहो : हाथ साफ़ हैं?” दूर से ही कवाल्योव चिल्लाया.
“साफ़ हैं!”
“झूठ बोलते हो!”
“ऐ ख़ुदा, साफ़ हैं, मालिक!”
“अच्छा देखो तो.”
कवाल्योव बैठ गया. इवान याकव्लेविच ने उसे कपड़े से ढाँक दिया और एक ही क्षण में ब्रश से उसकी ठोढ़ी और गाल को झाग से भर दिया.
ओह-हो! नाक की ओर देखते हुए इवान याकव्लेविच ने अपने आप से कहा, और फिर सिर को दूसरी ओर घुमाकर किनारे से उसकी ओर देखा – कमाल है! ‘…क्या कहने...वह बड़बड़ाता रहा और बड़ी देर तक उसे देखता रहा. आख़िर में, बड़ी सावधानी से, उसने दो उँगलियाँ उठाईं, ताकि उसे पकड़ सके. ऐसा तरीका ही था इवान याकव्लेविच का.
“देखो, देखो, देखो!” कवाल्योव चीख़ा.इवान याकव्लेविच ने हाथ नीचे गिरा लिया और ऐसे शरमाया जैसे अपनी ज़िंदगी में कभी न शरमाया था. अंत में उसने बड़ी सावधानी से दाढ़ी पर उस्तरा चलाना शुरू किया, हालाँकि बिना सूँघनेवाले अंग का सहारा लिए उसे बड़ी कठिनाई हो रही थी, मगर फिर भी अपनी बड़ी उँगली को उसके गाल और निचली ठुड्डी पर टिकाकर उसने सहजता से हजामत बना दी.
जब तैयारी पूरी हो गई तो कवाल्योव ने जल्दी से कपड़े पहने, गाड़ी ली और सीधे गोलियों वाली दुकान में पहुँचा. भीतर घुसते-घुसते वह चिल्लाया : “छोकरे, एक प्याला चॉकलेट लाओ!” और उसी समय ख़ुद आईने की ओर लपका : नाक है! वह ख़ुशी से घूमा और बड़े व्यंग्य से आँखें सिकोड़कर उन दो फ़ौजियों को देखने लगा जिनमें से एक की नाक बटन जितनी छोटी थी. उसके बाद वह उस विभाग में गया जहाँ वह उपराज्यपाल के पद के लिए कोशिश कर रहा था, और जिसके न मिलने पर कमिश्नर के पद के लिए उम्मीद लगाए था. बड़े हॉल से गुज़रते हुए उसने आईने में झाँका : नाक है. फिर वह दूसरे सुपरिंटेंडेंट मेजर के पास गया, जो बड़ा मज़ाकिया था, जिसे वह तीखे व्यंग्यबाणों के जवाब में कहता, “जाओ, मैं तुम्हें जानता हूँ, तुम गुरू हो!” रास्ते में वह सोचता रहा, ‘अगर मुझे देखते ही मेजर हँसी से लोट-पोट न हो जाए तो यह प्रमाण होगा इस बात का, कि सब कुछ अपनी जगह पर ठीक-ठाक है.” मगर सुपरिंटेंडेंट कुछ भी नहीं बोला. “अच्छा ठीक है, भाड़ में जाओ!” कवाल्योव ने अपने आप से कहा. रास्ते में वह उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना से मिला जो अपनी बेटी के साथ थी. उसने झुककर अभिवादन किया और उन्होंने ख़ुशी की किलकारियों से उसका स्वागत किया : शायद सब ठीक है, उसमें कोई खोट नहीं है. वह बड़ी देर तक उनसे बातें करता रहा, जानबूझकर नसवार की डिबिया निकालकर उनके सामने बड़ी देर तक उसे सूँघता रहा, अपने आपसे बड़बड़ाता रहा : “तो लो, फँसाओ मुर्गी! मगर फिर भी तुम्हारी बेटी से तो शादी करूँगा ही नहीं. बस यूँही दिल बहलाने के लिए – ठीक है.” और तब से मेजर कवाल्योव यूँ घूमने लगा जैसे कि कुछ हुआ ही न था. वह हर जगह जाता, नेव्स्की एवेन्यू पर, थियेटर में, जहाँ जी चाहे. नाक भी उसके चेहरे पर यूँ बैठी रही जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो. और इसके बाद मेजर कवाल्योव को लोगों ने हमेशा हँसते हुए, मुस्कुराते हुए, सुंदर महिलाओं का पीछा करते हुए ही देखा. एक बार तो वह गोस्तिनी महल की एक दुकान से तमगोंवाला रिबन ख़रीदते हुए देखा गया, न जाने क्यों, क्योंकि वह ख़ुद तो तमगेधारी घुड़सवार था नहीं.
तो ऐसी घटना घटी हमारे विशाल राज्य की उत्तरी राजधानी में. अब, सारी बातों की ओर गौर करने से प्रतीत होता है, कि उसमें काफ़ी मात्रा में झूठ मिला हुआ था. अगर यह न भी कहें कि नाक का गायब होना और उसका अलग-अलग स्थानों पर अफ़सर के रूप में दिखाई देना एक दैवी चमत्कार था, तो कवाल्योव के अख़बार की सहायता से नाक ढूँढ़ने की कोशिश को क्या कहेंगे? मैं यह नहीं कहता कि मुझे इश्तेहार पर खर्च करना काफ़ी महँगा लगा : यह बेवकूफ़ी है, और मैं कंजूस भी नहीं हूँ. मगर वह अशिष्टता है, अच्छी बात नहीं है, उलझनवाली बात है. और फिर नाक ब्रेड में कैसे आई और इवान याकव्लेविच?...नहीं यह तो मैं समझ ही नहीं सकता, ज़रा भी नहीं समझ सकता. मगर जो बात सबसे अजीब और समझ में नहीं आने वाली है – वह ये है कि लेखक ऐसे विषयों पर लिख कैसे सकते हैं. मानता हूँ, कि यह अनबूझ पहेली है, यह तो...नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं समझ पा रहा. पहली बात यह कि समाज को इससे ज़रा भी फ़ायदा नहीं है, दूसरी...दूसरी बात में भी कोई फ़ायदा नहीं है. बस मैं नहीं जानता कि यह...
मगर फिर भी, इस सबके बावजूद, पहली, दूसरी, तीसरी...बात भी मानी जा सकती है...और हाँ, गोलमाल कहाँ नहीं होती?...मगर, फिर भी, जब सोचो तो लगता है कि सचमुच कुछ बात तो है. कुछ भी कहो, ऐसी घटनाएँ दुनिया में होती हैं – कम ही सही, मगर होती ज़रूर हैं.

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