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शनिवार, 16 मार्च 2019

The Nose - 4




नाक - 4

लेखक : निकोलाय गोगल
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास 

वह बेसुध-सा घर आया, शाम हो चुकी थी. इन सब असफ़ल कोशिशों के बाद उसे अपना घर बड़ा दयनीय और मनहूस प्रतीत हुआ. हॉल में घुसते ही उसे सरकारी, धब्बेदार सोफ़े पर पड़ा नज़र आया सेवक इवान, जो पीठ के बल लेटा हुआ एकटक छत को घूरे जा रहा था. वह बड़ी देर तक इसी अवस्था में पड़ा रहा. सेवक की इस उदासीनता से वह तैश में आ गया, उसने अपनी टोपी से उसके माथे पर चोट करते हुए कहा : “सूअर कहीं के, हमेशा बेवकूफ़ियाँ करते रहते हो!”
इवान अपनी जगह से उछल पड़ा और फ़ौरन लपककर उसका कोट उतारने लगा.
अपने कमरे में आकर थका हुआ, दयनीय मेजर कुर्सी पर ढेर हो गया और कई बार गहरी आहें भरने के बाद बोला :
“ऐ ख़ुदा! ऐ मेरे ख़ुदा! यह दुर्भाग्य क्यों? अगर मैं बे-पैर या बे-हाथ का होता – तो वो बेहतर होता, अगर मैं बे-कान का होता! होती तो अजीब बात, मगर बर्दाश्त की जा सकती थी : मगर बे-नाक का आदमी शैतान जाने क्या होता है : पंछी- पंछी नहीं, और नागरिक – नागरिक नहीं! – बस, उठाओ और खिड़की से बाहर फेंक दो! लड़ाई में या द्वंद्व युद्ध में ही कट जाती, मेरी ही गलती से कट जाती, मगर ये तो बे-बात के ग़ायब हो गई, मुफ़्त में, एक दमड़ी भी नहीं मिली. मगर नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता,” वह कुछ सोचकर आगे बोला, “विश्वास नहीं होता, कि नाक खो जाए, किसी भी तरह नहीं! यह बात बिल्कुल सच है, या कहीं मुझे सपना तो नहीं आ रहा? हो सकता है, मैं गलती से पानी के बदले वोद्का पी गया, जिससे हजामत बनवाने के बाद मैं अपनी ठुड्डी साफ़ करता हूँ. इवान, बेवकूफ़ ने, शायद ली नहीं और, अवश्य ही मैंने उसे पी लिया...”
यह देखने के लिए कि वह नशे में है या नहीं मेजर ने स्वयम् को इतनी ज़ोर से चुटकी काटी कि वह ख़ुद ही चीख़ पड़ा. मगर इस दर्द ने उसे विश्वास दिला दिया कि वह वास्तविकता में ही जी रहा है और हरकत कर रहा है. वह दबे पाँव आईने के करीब आया और आँखे सिकोड़कर इस ख़याल से देखने लगा कि उसे नाक अपनी जगह पर ही मिलेगी, मगर वह फ़ौरन उछलकर पीछे हट गया और चीख़ा :
“ओss, एकदम जोकर!”
यह बिल्कुल समझ में न आने वाली बात थी. अगर बटन खो जाता, चाँदी की चम्मच खो जाती या फिर घड़ी या ऐसी ही कोई और चीज़ खो जाती, मगर खोया भी तो क्या खोया? और अपने ही घर में!...सारे हालात पर भली भाँति नज़र डालने के बाद मेजर कवाल्योव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस घटना के पीछे उच्च श्रेणी के अफ़सर की पत्नी पोद्तोचिना का हाथ है, जो चाहती थी कि कवाल्योव उसकी बेटी से शादी कर ले. वह स्वयम् भी उसकी ख़ुशामद करना पसन्द करता था, मगर अंतिम निर्णय को हमेशा टालता रहा. जब पोद्तोचिना ने उससे खुल्लम खुल्ला कह दिया कि वह अपनी बेटी का ब्याह उससे करना चाहती है तो उसने धीमे से उसकी लल्लो-चप्पो करते हुए यह कहकर टाल दिया कि अभी तो वह बहुत छोटा है, उसे कम से कम और पाँच साल नौकरी करनी है, जिससे वह ठीक बयालीस साल का हो जाए. और इसीलिए, अफ़सर की बीबी ने बदले की भावना से, उसका रूप बिगाड़ने की ठान ली, और किसी जादूगरनी को इस काम के लिए पैसे दिए, क्योंकि इस बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कोई उसकी नाक काटकर ले गया हो : उसके कमरे में कोई आया ही नहीं था, नाई इवान याकव्लेविच ने बुधवार को हजामत बनाई थी, और पूरे बुधवार और बृहस्पतिवार को भी उसकी नाक सही-सलामत थी, यह बात उसे अच्छी तरह याद थी; अगर कोई दर्द ही महसूस होता, क्योंकि कोई ज़ख़म इतनी जल्दी तो भर नहीं सकती थी और पैनकेक की तरह चिकनी नहीं बन सकती थी. उसने अपने मस्तिष्क में योजना बनाई : क्या अफ़सर की पत्नी को अदालत में घसीटा जाए या उसके पास स्वयम् जाकर जवाब तलब किया जाए? उसके विचारों को दरवाज़ों से छनकर आती रोशनी ने भंग कर दिया, जिससे पता चल रहा था कि इवान ने हॉल में मोमबत्ती जला दी है. शीघ्र ही स्वयम् इवान भी दिखाई दिया जो मोमबत्ती को हाथ में पकड़े हुए पूरे कमरे को आलोकित कर रहा था. कवाल्योव ने झपट कर रूमाल उठा लिया और उस जगह को ढाँक दिया, जहाँ कल तक नाक थी, जिससे कि यह बेवकूफ़ आदमी अपने मालिक को ऐसी विचित्र अवस्था में देखकर चीख़ न मारे.
इवान अपने दड़बे में घुस भी न पाया था कि बाहर हॉल में एक अपरिचित आवाज़ सुनाई दी:
“क्या सुपरिंटेंडेंट कवाल्योव यहाँ रहते हैं?”
“आइए, मेजर कवाल्योव यहीं रहते हैं,” कवाल्योव ने उछलकर फ़ौरन दरवाज़ा खोल दिया.
एक सुदर्शन पुलिस वाला, कुछ काले, कुछ भूरे कल्लोंवाला, भरे-भरे गालों वाला, वही, जो इस कथा के आरंभ में इसाकियेव्स्की पुल के अंत में खड़ा था, प्रविष्ट हुआ.
“क्या आपके दुश्मनों की नाक खो गई है?”
“बिल्कुल ठीक.”
“वह मिल गई है.”
“क्या कह रहे हैं?” मेजर कवाल्योव चीख़ा. ख़ुशी के मारे उसकी ज़ुबान बन्द हो गई. उसने बड़े ध्यान से अपने सामने खड़े संतरी की ओर देखा जिसके भरे-भरे होठों और गालों पर फड़फड़ाती मोमबत्ती का प्रकाश तैर रहा था. “कैसे?”
“बड़ी अजीब बात है : उसे रास्ते पर पकड़ा गया. वह बग्घी में बैठ चुका था और रीगा जाना चाहता था. मगर पासपोर्ट पर किसी एक कर्मचारी का नाम लिखा था. आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैं भी उसे वही व्यक्ति समझ बैठा. मगर सौभाग्य से मेरे पास चश्मा था, और उसे पहनते ही मैंने देखा कि वह तो नाक थी. खैर, मैं तो निकट की वस्तुओं को ठीक से देख नहीं पाता, याने अगर आप मेरे सामने खड़े हो जाएँ, तो मैं सिर्फ आपका चेहरा ही देख सकूँगा, आपकी नाक, दाढ़ी...कुछ भी मुझे नज़र नहीं आएगा. मेरी सास, याने मेरी बीबी की माँ भी कुछ नहीं देख सकती.”
कवाल्योव को अपने आप पर काबू नहीं रहा.
“कहाँ है वह? कहाँ है? मैं अभी चलता हूँ.”
“घबराइए नहीं! मैं जानता था कि आपको उसकी ज़रूरत है, उसे अपने साथ ही ले आया हूँ. अजीब बात यह है कि इस घटना का मुख्य अभियुक्त, दुष्ट नाई, वज़्नेसेन्स्की सडक पर रहने वाला, इस समय हवालात में है. मुझे पहले से ही उसके पियक्कड़ और चोर होने का शक था, अभी तीन दिन पहले उसने एक दुकान से बटनों का डिब्बा चुराया था. आपकी नाक ठीक वैसी है, जैसी थी.
इतना कहकर संतरी ने जेब में हाथ डाला और कागज़ में लिपटी हुई नाक बाहर निकाली.
“हाँ, वही है!” कवाल्योव चीख़ पड़ा, “बिल्कुल वही! आज आप मेरे साथ चाय पीजिए.”
“मैं इसे अपना बहुत बड़ा सम्मान समझता, मगर आज किसी भी हालत में संभव नहीं है : यहाँ से मुझे सीधे पागलखाने जाना है...सभी चीज़ों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं...मेरे घर में मेरी सास भी रहती है, याने मेरी बीबी की माँ, और बच्चे भी हैं, बड़े बेटे से मुझे काफ़ी उम्मीदें हैं : बड़ा होशियार बच्चा है, मगर उनके उचित भरण-पोषण के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं...”
कवाल्योव समझ गया और मेज़ पर से लाल नोट उठाकर उसने संतरी के हाथ में थमा दिया, जो फ़ौरन गोल घूमकर दरवाज़े से बाहर निकल गया, और लगभग उसी समय कवाल्योव को सड़क पर उसकी आवाज़ सुनाई दी, जो एक भोले-भाले ग्रामीण को फ़टकार रही थी, जो अपनी ठेला गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ा रहा था.
संतरी के जाने के बाद कवाल्योव कुछ देर गुमसुम बैठा रहा, तब कहीं जाकर वह कुछ देखने-समझने की स्थिति में आया : इस विस्मृति का कारण थी आकस्मिक प्रसन्नता. उसने ढूँढ़ी गई नाक को बड़ी सावधानी से उठाया और उसे दुबारा बड़े गौर से देखा.
“वही है, बिल्कुल वही!” मेजर कवाल्योव बड़बड़ाया.
“दाईं ओर मस्सा भी है, जो कल ही उग आया था.”
मेजर ख़ुशी से हँस पड़ा.

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