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शनिवार, 20 दिसंबर 2025

पोर्ट्रेट - 1

 पोर्ट्रेट

लेखक: निकलाय गोगल

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

भाग 1

 

कहीं भी इतने सारे लोग नहीं रुकते थे, जितना शुकिन यार्ड में चित्रों की दुकान के सामने रुकते थे. यह दुकान, वाकई में, अजीब-अजीब वस्तुओं का सबसे अजीब संग्रह था: अधिकांश चित्र ऑइल पेंट से बने थे, गहरे हरे रंग की लाख से ढंके थे, गहरी पीली चमचमाती फ्रेमों में थे. शीत ऋतु सफेद पेड़ों के साथ, पूरी तरह लाल शाम, जो आग की चमक जैसी थी, टूटी हुई बांह और मुंह में पाईप दबाए फ्लेमिश किसान, जो कफ़ में इन्सान की अपेक्षा एक भारतीय मुर्गे जैसा दिखाई देता था – ये आमतौर पर चित्रों के विषय थे. इनमें कुछ उत्कीर्ण चित्रों को भी शामिल करना होगा : भेड़ की खाल की टोपी में खोज्रेव मिर्ज़ा की तस्वीर, तिकोनी हैट में, मुड़ी हुई नाक वाले किन्हीं जनरलों की तस्वीरें. इसके अलावा, ऐसी दुकान के दरवाज़ों पर आम तौर से स्प्लिन्ट्स के साथ मुद्रित कार्यों के बंडल लटकाए जाते हैं, जो रूसी व्यक्ति की मूल प्रतिभा की गवाही देते हैं. एक तस्वीर में राजकुमारी मिलिक्त्रीसा किर्बित्येव्ना थी, दूसरी में येरूशलम शहर, जिसके घरों और चर्चों पर लाल रंग बिना किसी समारोह के बह रहा था, जिसने धरती के एक भाग और दस्ताने पहने, प्रार्थना कर रहे दो रूसी किसानों को भी रंग दिया था. ऐसी रचनाओं के खरीदार आम तौर से कम ही होते हैं, मगर दर्शक – झुण्ड के झुण्ड. कोई शराबी नौकर, शायद, उनके सामने, अपने मालिक के लिए हाथ में सराय से डिनर के बर्तन लिए खड़ा है, जो, बेशक, गरम सूप नहीं खायेगा. उसके आगे, बेशक ग्रेट कोट पहने एक सैनिक है, ये बाज़ार का घुड़सवार, जो दो जेबी-चाकू बेच रहा है; जूतों से भरे बक्से के साथ एक छोटा दुकानदार. हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से तारीफ़ करता है : किसान आम तौर से उंगलियाँ गड़ाते हैं; घुड़सवार गंभीरता से देखते हैं; नौकर-छोकरे और कारीगर हंसते हैं और चित्रित किये गए व्यंग्य चित्रों से एक-दूसरे को चिढ़ाते हैं; फ्रिज़ ओवरकोट में बूढ़े नौकर सिर्फ कहीं उबासी लेने के लिए देखते हैं ; और व्यापारी, युवा रूसी महिलाएं यूँ ही सुनाने के लिए भागती हैं, कि लोग किस बारे में बात कर रहे हैं, और यह देखने के लिए कि वे क्या देख रहे हैं.

इस समय वहाँ से गुज़रता हुआ युवा कलाकार चिर्त्कोव अनचाहे ही दुकान के सामने रुक गया. पुराना ओवरकोट और मामूली पोशाक उसके भीतर के उस व्यक्ति को प्रदर्शित कर रहे थे जो निस्वार्थ रूप से अपने काम के प्रति समर्पित था और जिसके पास अपनी वेश-भूषा की फ़िक्र करने का समय नहीं था, जो हमेशा रहस्यमय रूप से नौजवानों को आकर्षित करती है. वह दुकान के सामने रुका और पहले तो इन बदसूरत तस्वीरों पर मन ही मन हंसा. आखिरकार इच्छा के विपरीत उसके मन को अचानक एक विचार ने दबोच लिया: वह सोचने लगा कि इन रचनाओं की किसे ज़रुरत है. उसे इस बात से आश्चर्य नहीं हुआ कि रूसी लोग येरुस्लानव लाज़ारेविचों को, खाया और पिया को, फोमा और येरेमा को  देखते हैं: चित्रित वस्तुएँ लोगों को सरलता से उपलब्ध थीं, और उनकी समझ में भी आती थीं; मगर इन शोख़, गंदे तैल चित्रों के खरीदार कहाँ हैं? इन फ्लेमिश किसानों की, इन लाल-नीले परिदृश्यों की ज़रूरत किसे है, जो किसी उच्च श्रेणी की कला का दावा करते हैं, मगर जिनमें उनका गहरा अपमान प्रदर्शित होता है? ये, लगता है, किसी नौसिखिये, बच्चे का काम तो नहीं था. अन्यथा, अपनी समस्त व्यंगात्मक असंवेदनशीलता के बावजूद, उनमें से एक तीव्र आवेग प्रकट होता. मगर यहाँ तो सिर्फ मूर्खता, शक्तिहीन, क्षीण, औसत दर्जे का काम था, जो मनमाने ढंग से कला के क्षेत्र में शामिल हो गया था, जबकि उसका स्थान निम्न श्रेणी की कला में था, औसत दर्जे का काम, जो कि स्पष्ट था, और अपने व्यवसाय के लिए अपने शिल्प को कला के क्षेत्र में ले आया था. वे ही रंग, वही तरीका, वही भरा हुआ, अभ्यस्त हाथ, जो किसी फूहड़ स्वचालित मशीन जैसा प्रतीत होता था, न कि इंसान का! ...वह बड़ी देर तक इन गंदी तस्वीरों के सामने खड़ा रहा, अंत में उनके बारे ज़रा भी न सोचते हुए, और इस दौरान दुकान का मालिक, फ्रिज़ का ओवरकोट पहने उदास आदमी, इतवार से न बनाई हुई दाढ़ी में, बड़ी देर से उससे बातें कर रहा था, मोल-भाव और सौदा कर रहा था, अभी तक यह न जानते हुए कि उसे क्या अच्छा लगा है और क्या चाहिए.

 – “इन किसानों और लैंडस्केप के लिए सफ़ेद लूंगा. क्या पेंटिंग है! आंख में चुभती है; अभी अभी एक्स्चेंज से मिली हैं; अभी तो लाख भी नहीं सूखी है. या फिर, शीत ऋतु, शीत ऋतु ले लीजिये! पंद्रह रूबल्स! सिर्फ फ्रेम ही कितनी महंगी है. क्या शीत ऋतु है!” अब दुकानदार ने कैनवास पर हल्की चुटकी मारी, शायद शीत ऋतु की पूरी शान दिखाने के लिए. “क्या इन्हें एक साथ बांधने और आपके पीछे ले जाने का हुक्म देते हैं? आपका ठिकाना कहाँ है?, छोकरे, इधर रस्सी दे.”

“ठहर जा, भाई, इतनी जल्दी नहीं,” – हड़बड़ाकर कलाकार ने कहा, यह देखकर, कि फुर्तीला व्यापारी सचमुच में उन्हें एक साथ बांधने की तैयारी कर रहा था. दुकान पर इतनी देर खड़े रहकर कुछ भी न खरीदने में उसे अटपटा लग रहा था, और उसने कहा:

“ज़रा ठहरो, मैं देखूंगा, कि यहाँ मेरे लायक कुछ है भी या नहीं,” -  और वह झुककर फर्श पर फेंके हुए ढेर से जीर्ण, धूल भरी, पुरानी पेंटिंग्स निकालने लगा, जो बड़ी बेरहमी से फेंकी गई थीं. इनमें पुराने पारिवारिक चित्र थे, जिनके वंशजों को, शायद, दुनिया में ढूँढना भी असंभव था, एकदम अनजान चित्र, फटे हुए कैनवास के साथ, पॉलिश उड़ी हुई फ्रेम्स, - एक लब्ज़ में – हर तरह का जीर्ण-शीर्ण कचरा. मगर कलाकार गौर से देखने लगा, मन में सोचते हुए: ‘शायद कुछ मिल ही जाए. उसने कई बार ऐसी कहानियाँ सुनी थीं, कि कभी-कभी ऐसे छोटे-मोटे दुकानदारों के यहाँ महान कलाकारों की तस्वीरें मिल जाती हैं.

मालिक ने यह देखकर कि वह कहाँ घुसा है, अपनी फुर्ती रोक दी और, अपनी साधारण स्थिति और गंभीरता धारण करते हुए फिर से दरवाज़े के पास खड़ा हो गया, और एक हाथ से दुकान की ओर इशारा करते हुए आने-जाने वालों को बुलाता रहा. “यहाँ, जनाब, ये हैं तस्वीरें! आईये, आईये, अभी-अभी स्टॉक से आई हैं”. वह बड़ी देर तक चिल्लाता रहा, मगर कोई फ़ायदा न हुआ, पैचवर्क विक्रेता से, जो उसीके सामने अपनी दुकान के दरवाज़े में खडा था, जी भर के बातें की, और आखिरकार उसे याद आया कि उसकी दुकान में खरीदार है, वह लोगों की तरफ़ पीठ करके भीतर गया. “क्या, जनाब, आपने कुछ चुना?” मगर कलाकार कुछ देर से एक बड़ी फ्रेम में जड़े पोर्ट्रेट के सामने, निश्चल खडा था, जो कभी शानदार थी, मगर जिस पर अब मुश्किल से कुछ सुनहरे निशान  बाकी थे.

यह एक बूढा था, चेहरे का रंग कांसे जैसा, गालों की उभरी हुई हड्डियां, कमज़ोर, ऐसा लग रहा था, कि चेहरे के अवयवों को, किसी कंपकंपाहट के दौरान चित्रित कर लिया गया था और उनमें उत्तरी कशिश नहीं थी. उनमें सुलगती दोपहर अंकित थी. वह चौड़े एशियन सूट में लिपटा था. पोर्ट्रेट कितना ही क्षतिग्रस्त और धूल भरा क्यों न था, मगर जब उसके चहरे से धूल साफ़ की गई तो किया गया, तो उसे किसी महान कलाकार की रचना के चिह्न दिखाई दिए. लगता है, कि पोर्ट्रेट पूरा नहीं किया गया था : मगर ब्रश की सामर्थ्य चौंकाने वाली थी. सबसे असाधारण थीं उसकी आंखें: लगता है, कलाकार ने उनमें अपने ब्रश की पूरी ताकत और अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दी थी. वे सिर्फ देख रही थीं, खुद पोर्ट्रेट के भीतर से देख रही थीं, मानो अपनी विचित्र सजीवता से उसके सामंजस्य को नष्ट कर रही हैं. जब वह दरवाज़े के पास पोर्ट्रेट लाया तो आंखें और भी प्रखरता से देखने लगीं. लगभग उसी तरह का प्रभाव उन्होंने लोगों पर भी डाला. उसके पीछे जो महिला रुक गयी थी, वह चिल्लाई: ‘देख रहा है, देख रहा है, - और पीछे हट गई. एक अप्रिय, खुद को भी समझ में न आने वाली भावना उसे महसूस हुई और उसने पोर्ट्रेट को ज़मीन पर रख दिया.

“क्या बात है, पोर्ट्रेट ले लीजिये!” दुकान के मालिक ने कहा.

“कितने का है?” कलाकार ने कहा.

“उसकी फ़िक्र आप क्यों करते हैं? तीन चौथाई दे दीजिये!”

“नहीं.”

“आखिर आप कितना देंगे?

“दो कोपेक,” जाने के लिए तैयार कलाकार ने कहा.

“एख, आपने भी क्या कीमत लगाई है! दो कोपेक में तो सिर्फ फ्रेम भी नहीं मिलती. शायद, कल खरीदेंगे? महाशय, महाशय, वापस आईये ! कम से कम एक कोपेक तो डालो. लीजिये, लीजिये. सही में, सिर्फ बोनी के लिए, आप पहले ही ग्राहक हैं.”

“इसके बाद उसने हाथ से ऐसा इशारा किया, मानो कह रहा हो : “चलो, ऐसा ही हो, भाड़ में जाए पोर्ट्रेट!” 

इस तरह चिर्त्कोव ने पूरी तरह अकस्मात् रूप से पुराना पोर्ट्रेट खरीद लिया और साथ ही सोचा: ‘मैंने इसे क्यों खरीद लिया? मुझे इसकी क्या ज़रुरत है?’ मगर कुछ नहीं किया जा सकता था. उसने जेब से दो कोपेक का सिक्का निकाला, दुकानदार को दिया, बगल के नीचे पोर्टेट दबाया और उसे घसीट कर ले चला. रास्ते में उसे याद आया की जो दो कोपेक का सिक्का उसने दे दिया था, उसके पास आख़िरी था. उसके विचार अचानक धुंधले हो गए : निराशा और उदासीन खालीपन ने फ़ौरन उसे घेर लिया. “शैतान ले जाए! दुनिया कितनी घिनौनी है!” उसने उस रूसी आदमी की भावना  के साथ कहा, जिसके हालात बुरे हैं. और वह लगभग यंत्रवत् तेज़-तेज़ कदमों से चलने लगा, हर चीज़ के प्रति उदासीन. संध्या की लालिमा अभी भी आधे आसमान में थी; उस ओर के घर अभी भी उसके गर्माहट भरे प्रकाश से चमक रहे थे; और इस बीच चाँद की ठंडी नीली रोशनी गहराती जा रही थी. घरों की और पैदल चलने वालों की अर्धपारदर्शी हल्की छायाएं पूँछों की तरह धरती पर गिर रही थीं. कलाकार थोड़ा-थोड़ा आसमान की ओर देखने लगा था, जो किसी पारदर्शी, महीन, संदेहास्पद रोशनी से प्रकाशित था, और अचानक उसके मुख से शब्द निकले : “कितना हल्का साया है!” – और शब्द: “निराशाजनक, शैतान ले जाए!” और उसने पोर्ट्रेट को संभालते हुए, जो निरंतर बांह के नीचे से छिटक रहा था, अपनी चाल तेज़ कर दी.

थका हुआ और पसीने से लथपथ, वह घिसटता हुआ वसिल्येव्स्की द्वीप की पंद्रहवीं कतार में अपने घर पहुंचा. मुश्किल से और हांफते हुए वह सीढियां चढने लगा, जो गंदे पानी से भीगी हुई थीं, और कुत्तों, तथा बिल्लियों के पैरों के निशानों से सजी थीं. दरवाज़े पर उसकी खटखटाहट का कोई जवाब नहीं आया: नौकर घर पर नहीं था. वह खिड़की से टिककर सब्र से इंतज़ार करने लगा, जब तक कि उसके पीछे नीली कमीज़ पहने छोकरे – उसके गुर्गे, मॉडल, कपड़े धोने वाले और फर्श धोने वाले, के पैरों की आहट नहीं सुनाई दी, जो उसे फ़ौरन अपने जूतों से गंदा कर देता था. लड़के का नाम निकिता था और जब मालिक घर पर नहीं होता, तो वह सारा समय गेट के बाहर बिताता था. निकिता बड़ी देर तक ताले के छेद में चाभी डालने की कोशिश कर रहा था, जो अँधेरे के कारण दिखाई नहीं दे रहा था. आखिरकार दरवाज़ा खुल गया. चिर्त्कोव अपने प्रवेश कक्ष में आया, जो असहनीय रूप से ठण्डा था, जैसा अक्सर कलाकारों के यहाँ होता है, मगर, जिस पर वे ध्यान नहीं देते. निकिता को ओवरकोट दिए बिना, वह उसे पहने हुए ही अपने स्टूडियों में आया, जो चौकोर कमरा था, बड़ा, मगर नीची छत वाला, खिड़कियाँ जम गई थीं, और जिसमें सभी प्रकार का कलात्मक कबाड़ भरा था: प्लास्टर के हाथों के टुकड़े, कैनव्हास से ढंकी फ्रेम्स, शुरू किये गए और बीच ही में छोड़ दिए गए स्केचेस, कुर्सियों पर लिपटे हुए परदे. वह बहुत थक गया था, उसने ओवरकोट उतारा और बिना ध्यान दिए लाए हुए पोर्ट्रेट को दो छोटे कैनव्हासों के बीच रख दिया और संकरे दीवान पर लेट गया, जिसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता था, कि वह चमडे से ढंका है, क्योकि तांबे की कीलों की कतार, जो उस पर जड़ी थी, कब से अपने आप खडी थी, और चमड़ा भी ऊपर से अपने आप ही पड़ा था, इस तरह, कि निकिता उसके नीचे काली जुराबें, कमीजें और बिना धुले अंतर्वस्त्र घुसा देता था. कुछ देर बैठने और लेटने के बाद, जितना इस तंग दीवान पर संभव था, आखिरकार वह उठा और मोमबत्ती मांगी.

“मोमबत्ती नहीं है,” निकिता ने कहा.

“कैसे नहीं है?

“असल में कल भी नहीं थी,” निकिता ने कहा.

कलाकार को याद आया, कि वाकई में कल भी मोमबत्ती नहीं थी, वह शांत हो गया और चुप हो गया. उसने अपने कपड़े उतारने दिए और अपना तंग बदरंग ड्रेसिंग गाऊन पहन लिया.      

“ और हाँ, मालिक आया था,” निकिता ने कहा.

“अच्छा, पैसों के लिए आया था? जानता हूँ,” कलाकार ने हाथ हिलाकर कहा.

“और वह अकेला नहीं आया था,” निकिता ने कहा.

“फिर किसके साथ आया था?

“पता नहीं, किसके साथ...कोई पुलिस वाला था.”

“पुलिस वाला क्यों?

“पता नहीं क्यों, कहा रहा था, कि इसलिए, कि क्वार्टर का किराया नहीं दिया है.”

“तो, इसका क्या मतलब है?

“मैं नहीं जानता, कि क्या मतलब है; वह कह रहा था, कि अगर किराया नहीं देना है, तो, कह रहा था, कि क्वार्टर खाली कर दे; वे दोनों कल भी आने वाले हैं.”

“आने दो,” नैराश्यपूर्ण उदासीनता से चिर्त्कोव ने कहा. और जैसे एक तूफ़ान ने उसे पूरी तरह घेर लिया. 

युवा चिर्त्कोव प्रतिभाशाली कलाकार था, जो भविष्य के बारे में काफ़ी कुछ बताता था; और उसका ब्रश चमक बिखेरते हुए और पल भर में अवलोकन से, कल्पना से, प्रकृति के अधिक निकट आने के तीव्र आवेग को प्रकट कर देता था. “ देखो, भाई,” – उसके प्रोफ़ेसर ने उससे कई बार कहा, “तुम्हारे पास प्रतिभा है, उसे नष्ट करना गुनाह होगा. मगर तुम बेसब्र हो. तुम्हें कोई एक चीज़ लुभाती है. कोई एक चीज़ तुम्हें पसंद आ जाती है – तुम उसीमें व्यस्त हो जाते हो, और बाकी सब तुम्हारे लिए बकवास है, बाकी किसी चीज़ की तुम्हें ज़रुरत नहीं है, तुम उसकी तरफ़ देखना भी नहीं चाहते. देखो, कि तुम फैशनेबल पेंटर न बन जाओ. तुम्हारे रंग अभी से तीव्रता से चिल्लाने लगे हैं. तुम्हारी ड्राईंग विशुद्ध नहीं है, और कभी-कभी कमज़ोर भी है, रेखा स्पष्ट नहीं है, तुम फैशनेबल चकाचौंध का पीछा कर रहे हो, जो देखते ही प्रभावित करती है. देखो, कहीं अंग्रेज़ी श्रेणी में न चले जाना. सावधान रहो; चकाचौंध तुम्हें आकर्षित कर रही है; मैं कभी-कभी मैं तुम्हारे चित्र में गले में शानदार रूमाल, चमकदार हैट देखता हूँ. ये ललचाता है, फैशनेबल चित्र, पोर्ट्रेट्स पैसों के लिए चित्रित किये जा सकते हैं. मगर इसीसे प्रतिभा नष्ट होती है, विकसित नहीं होती. धीरज रखो. हर काम के बारे में गहराई से सोचो, भड़कीलापन छोड़ो – दूसरे लोगों को इससे पैसा कमाने दो. तुम्हारी प्रतिभा तुम्हें नहीं छोड़ेगी.”

प्रोफ़ेसर कुछ हद तक सही था. वाकई में, कभी-कभी हमारे कलाकार का दिल चाहता था अच्छे कपड़े पहनने को, इठलाने को – मतलब कहीं-कहीं अपनी जवानी दिखाने को. मगर इस सबके बावजूद वह स्वयँ पर नियंत्रण रख सकता था. कभी-कभी, हाथ में ब्रश लेने पर, वह सब कुछ भूल सकता था, और उससे वह इस तरह जुदा होता था, जैसे किसी अधूरे, ख़ूबसूरत सपने से जुदा हो रहा हो. उसकी शैली लक्षणीय रूप से विकसित हो रही थी. अब तक वह रफ़ाएल की समूची गहराई को समझ नहीं पाया था, मगर ग्विदा के तेज़, चौड़े ब्रश से मोहित था, टिटियान के चित्रों के सामने रुकता था, फ्लेमिशों की प्रशंसा करता था. पुरानी पेंटिंग्स को घेरती हुई कालिमा उसके सामने से अभी पूरी तरह से अदृश्य नहीं हुई थी; मगर वह उनमें बहुत कुछ देख चुका था, हांलाकि अपने मन में वह प्रोफ़ेसर की बात से सहमत नहीं था, कि प्राचीन कलाकार हमारे लिए इतने अप्राप्य हैं; उसे ऐसा भी प्रतीत होता था, कि उन्नीसवीं शताब्दी किसी किसी क्षेत्र में उनसे काफ़ी आगे थी, कि प्रकृति की नक़ल अब और अधिक उज्जवल, अधिक जीवंत, निकट हो गई थी; एक लब्ज़ में ऐसी परिस्थिति में वह इस तरह सोचता था, जैसा युवावस्था सोचती है, जिसने पहले ही कुछ प्राप्त कर लिया है और अपने गर्वीली आतंरिक चेतना में इसका अनुभव कर रही है. कभी-कभी उसे गुस्सा भी आ जाता, जब वह देखता, कि कैसे कोई प्रवासी फ्रेंच या जर्मन चित्रकार, जो पेशे से चित्रकार भी न होता, सिर्फ अभ्यस्त तरीके से, ब्रश की चपलता से और रंगों की चमक से ही तहलका मचा देता और पल भर में अपने लिए पैसे कमा लेता. यह बात उसके दिमाग में तब नहीं आई जब अपने काम में पूरी तरह मगन, वह खाना-पीना भी भूल जाता, और पूरी दुनिया भी, मगर तब आई जब आखिरकार शिद्दत से ज़रुरत महसूस हुई, जब ब्रश और रंग खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, जब जिद्दी मकान मालिक दिन में दस बार क्वार्टर का किराया लेने आता. तब उसकी भूखी कल्पना में ईर्ष्या से अमीर चित्रकार का भाग्य साकार हो जाता; तब दिमाग में यह विचार भी हिलोरें लेता, जो अक्सर किसी रूसी दिमाग में आता है : सब कुछ छोड़ छाड़ कर स्वयं को दुःख में लपेट ले. और फिलहाल वह लगभग इसी मनोदशा में था.

हाँ! सब्र करो, सब्र करो!” उसने झुंझलाहट से कहा. “आखिर सब्र का भी अंत होता ही है. सब्र करो! और कल खाने के लिए पैसे कहाँ से लाऊँ? उधार तो कोई देगा नहीं. और अगर मैं अपनी सारी पेंटिंग्स और चित्रों को बेच दूं, तो उन सबके लिए मुझे सिर्फ दो कोपेक देंगे. वे उपयोगी हैं, बेशक, मैं यह महसूस करता हूँ. उनमें से कोई भी बेकार में नहीं बनाया गया था, उनमें से हरेक में मैंने कुछ न कुछ सीखा है. मगर, फ़ायदा क्या है? स्केचेस, प्रयास – और बार-बार होंगे स्केचेस और प्रयास, और उनका कोई अंत नहीं है. और मेरे नाम से, मुझे बिना जाने उन्हें खरीदेगा कौन? और किसे ज़रुरत है प्रकृति-समूह से प्राचीन चित्रों की, या मानसिकता के प्रति मेरा अधूरा प्यार या मेरे कमरे का परिप्रेक्ष्य, या मेरे निकिता का पोर्ट्रेट, हांलाकि वह, सही में, किसी भी फैशनेबल चित्रकार के पोर्ट्रेट्स से बेहतर है? क्या, सच में? मैं क्यों पीड़ित हूँ और, एक विद्यार्थी के रूप में, वर्णमाला ही पर अटका हूँ, जब कि मैं दूसरों की तुलना में किसी तरह भी कम नहीं चमक सकता था, और उनके जैसा पैसे वाला हो सकता था.

यह कहने के बाद कलाकार अचानक काँप गया और पीला पड़ गया: कैनवास के पीछे से निकलकर किसी का ऐंठा हुआ, विकृत चेहरा उसकी तरफ़ देख रहा था. दो भयानक आंखें सीधे उस पर टिकी हुई थीं, मानो उसे खा जाना चाहती हों; होंठों पर चुप रहने की धमकी भरी आज्ञा लिखी हुई थी. भयभीत होकर, वह चिल्लाना और निकिता को बुलाना चाहता था, जो अपने हॉल में जोर-जोर से खर्राटे ले रहा था; मगर अचानक रुक गया और हँसा. डर की भावना पल भर में कम हो गई. ये उसीके द्वारा खरीदा हुआ पोर्ट्रेट था, जिसके बारे में वह बिलकुल भूल चुका था. कमरे को प्रकाशित करती हुई चाँद की रोशनी उस पर भी गिर रही थी और उसे एक विचित्र सजीवता प्रदान कर रही थी. वह उसे गौर से देखने लगा और धूल साफ़ करने लगा. पानी में स्पंज डुबोया, कई बार उसे पोंछा, उस पर से लगभग जमी हुई सभी धूल और गन्दगी को धो दिया, उसे अपने सामने दीवार पर टांग दिया और इस बेहद असाधारण काम से चकित रह गया : पूरा चेहरा लगभग सजीव हो गया, और आँखें उसकी तरफ़ इस तरह देखने लगीं कि आखिरकार वह थरथरा गया और पीछे की तरफ लड़खड़ा कर आश्चर्यचकित स्वर में बोला: “देख रहा है, मानवीय आंखों से देख रहा है!”   

उसके दिमाग़ में अचानक एक किस्सा कौंध गया, जो उसने बहुत पहले अपने प्रोफ़ेसर से सुना था, सुप्रसिद्ध लिओनार्दो दा विंची के एक पोर्ट्रेट के बारे में, जिस पर महान कलाकार ने कई वर्षों तक काम किया था मगर फिर भी उसे अधूरा ही मानता रहा, और जो वज़री के शब्दों में सभी के द्वारा कला की पूरी तरह सम्पूर्ण और समापक कृति है. सबसे लाजवाब थीं उसकी आंखें, जो उसके समकालीनों को चकित करती थीं; अत्यंत छोटी, मुश्किल से दिखाई देने वाली नसें भी छूटी नहीं थीं, और कैनवास पर दिखाई गयी थीं. मगर यहाँ, उसके सामने रखे पोर्ट्रेट में कुछ विचित्रता थी. मगर, ये कला नहीं थी, बल्कि ये खुद पोर्ट्रेट के सामंजस्य को नष्ट कर रही थी. ये जीवित आंखें थीं, मानवीय आंखें थीं! ऐसा लग रहा था, जैसे उन्हें किसी ज़िंदा आदमी से काटकर यहाँ डाल दिया गया हो. यहाँ वह उच्च श्रेणी का आनंद नहीं था, जो कलाकार की रचना को देखते ही आत्मा पर छा जाता है, चाहे उसके द्वारा चुनी गई वस्तु कितनी ही भयानक क्यों न हो, मगर यहाँ एक दर्दनाक, सुस्त भावना थी. “ये क्या है?” कलाकार ने अनजाने में ही खुद से पूछा – “खैर, हांलाकि ये प्रकृति है, ये सजीव प्रकृति है, तो फिर ये अजीब- अप्रिय भावना क्यों है? या फिर प्रकृति की गुलामों जैसी, शब्दश: नक़ल एक गुनाह है, और वह भड़कीली, विसंगत चीख जैसी प्रतीत होती है? या, अगर आप किसी वस्तु को उदासीनता से, असंवेदनशीलता से लेते हैं, उसके साथ कोई सहानुभूति न रखते हुए, तो वह निश्चित ही सिर्फ अपनी भयानक वास्तविकता में दिखाई देगी, किसी अप्राप्य, अनाकलनीय प्रकाश से आलोकित नहीं होगी, जो हर वस्तु में छुपी हुई है, उस वास्तविकता में प्रकट होगी, जो तब प्रकट होती है, जब किसी सुन्दर मनुष्य को समझाने के लिए आप चीर-फाड़ वाला चाकू लेते हो, उसके भीतरी अंगों को काटते हो और एक घृणित आदमी को देखते हो? क्यों ऐसा होता है कि सरल, निम्न प्रकृति किसी प्रकार के प्रकाश में दिखाई देती है, और किसी प्रकार के ओछे प्रभाव का अनुभव नहीं होता; बल्कि,  ऐसा प्रतीत होता है मानो आनंद उठा रहे हों, और इसके बाद आपके चारों ओर सब कुछ अधिक शान्ति से और समानता से घूमता है और बहता है? और ऐसा क्यों होता है, कि वो ही प्रकृति किसी अन्य कलाकार की रचना में हीन, गंदी प्रतीत होती है, और, वह भी प्रकृति के प्रति वफादार था ? मगर नहीं, उसमें कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो प्रकाशित करती है. फिर भी, यह प्रकृति के किसी दृश्य की तरह है : वह चाहे कितना ही शानदार क्यों न हो, फिर भी यदि आसमान में सूरज न हो तो कुछ कमी रह जाती है.

वह फ़िर से पोर्ट्रेट के पास आया, ताकि इन अद्भुत आँखों को गौर से देख सके, और उसने भय से गौर किया, कि वे उसीकी तरफ़ देख रही हैं. ये प्रकृति से बनाई हुई नक़ल नहीं थी, ये अजीब सजीवता थी, जो कब्र से उठने वाले आदमी को रोशन करती. चन्द्रमा का प्रकाश, जो अपने साथ सपने का प्रलाप लिए था, और सभी चीज़ों को किसी अन्य रूपों में ढांक रहा था, जो सकारात्मक दिन के विपरीत थे, या इसका कोई अन्य कारण था, मगर अचानक उसे उस कमरे में अकेले बैठने में डर लगने लगा. वह हौले से पोर्ट्रेट से दूर हटा, दूसरी ओर मुड़ा  और कोशिश करने लगा कि उसकी तरफ़ न देखे, मगर आंख अनचाहे ही, तिरछी होकर उसे देख लेती थी. आखिर उसे कमरे में अकेले घूमने में डर लगाने लगा; उसे ऐसा लगा जैसे अभी, इसी समय कोई और उसके पीछे-पीछे चलने लगेगा, और वह हर बार भय से पीछे मुड़कर देख लेता. वह कभी भी डरपोक नहीं था; मगर उसकी कल्पना और नसें संवेदनशील थीं, इस शाम को वह खुद ही इस अवांछित भय को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पा रहा था. वह एक कोने में बैठ गया, मगर यहाँ भी उसे ऐसा लगा, जैसे कोई उसके कंधे से झुककर उसके चेहरे को देख रहा है. प्रवेश कक्ष से आ रही निकिता के खर्राटों की आवाज़ ने भी उसके भय को दूर नहीं भगाया. आखिरकार वह घबराहट से, आंख उठाये बिना, स्क्रीन के पीछे, अपने कमरे में गया और बिस्तर पर लेट गया. स्क्रीन की दरारों से उसने चाँद से प्रकाशित अपने कमरे को देखा और सीधे दीवार पर लटके पोर्ट्रेट को देखा. आंखें और भी ज़्यादा डरावनी थीं, और भी ज़्यादा गौर से उस पर टिकी हुई थीं और, जैसे वे उसे छोड़कर कुछ और नहीं देखना चाहती थीं. पूरी तरह भयभीत, उसने बिस्तर से उठने का फैसला कर लिया, चादर उठाई, और पोर्ट्रेट के निकट आकर उसे पूरी तरह उसे लपेट दिया.

यह करने के बाद वह और अधिक शान्ति से बिस्तर पर लेट गया, कलाकार की गरीबी और उसके दयनीय भाग्य के बारे में सोचने लगा, उसकी काँटों भरी राह के बारे में, जो इस दुनिया में उसके सामने थी; और इस बीच उसकी आंखें अपने आप ही स्क्रीन की दरार से चादर में लिपटे पोर्ट्रेट को देख रही थीं. चाँद की रोशनी चादर की सफेदी को बढ़ा रही थी, और उसे ऐसा लगा कि डरावनी आंखें कैनवास से होकर चमकने भी लगी हैं. भय से उसने आंखें एकटक गड़ा दीं, जैसे यकीन करना चाहता हो, कि ये बकवास है. मगर आखिरकार, वाकई में...वह देखता है, स्पष्ट रूप से देखता है: चादर नहीं है...पोर्ट्रेट पूरा खुला है और अपने चारों की हर चीज़ से होकर देख रहा है, सीधे उसके भीतर, उसके भीतर देख रहा है...उसका दिल ठंडा हो गया. और देखता है: बूढ़ा हिला और अचानक दोनों हाथों से फ्रेम पर टिक गया. आखिरकार हाथों पर उठा और दोनों पैर बाहर निकालकर फ्रेम से बाहर कूद गया...

स्क्रीन की दरार से सिर्फ खाली फ्रेम दिखाई दे रही थी. कमरे में पैरों की आहट सुनाई दी, जो आखिरकार दरारों के अधिकाधिक पास आती गयी. बेचारे कलाकार का दिल तेज़ी से धड़कने लगा. भयपूर्ण वेदना से वह इंतज़ार कर रहा था, कि अभी-अभी फ्रेम के पीछे से बूढ़ा उसकी तरफ़ देखेगा. और उसने देखा, वाकई में, फ्रेम के पीछे से, उसी तांबे के चहरे से, बड़ी-बड़ी आंखें घुमाते हुए. चिर्त्कोव ने पूरी ताकत से चिल्लाने का प्रयास किया – और उसे महसूस हुआ कि उसके पास आवाज़ ही नहीं है, हिलने की कोशिश की, कोई हरकत करने की कोशिश की – उसके शरीर के अंग ही नहीं हिल रहे हैं. खुले हुए मुंह, और जमती हुई साँसों से उसने इस भयानक ऊँचे, कोई चौड़ी एशियाई पोशाक पहने भूत की ओर देखा, और इंतज़ार करने लगा की वह क्या करने वाला है. बूढ़ा लगभग उसके पैरों के पास बैठ गया और फिर अपनी चौड़ी पोशाक की सिलवटों के नीचे से उसने कुछ निकाला. ये एक बोरा था. बूढ़े ने उसे खोला और दो कोनों को पकड़कर झटक दिया: धम् की आवाज़ के साथ स्तंभों के आकार में दो भारी पैकेट फर्श पर गिरे: हर पैकेट नीले कागज़ में लिपटा हुआ था, और हरेक पर लिखा था : ‘1000 ड्यूक’. चौड़ी आस्तीनों से अपने लम्बे, हडीले हाथ बाहर निकालकर बूढा पैकेट्स को खोलने लगा. सोना चमक रहा था. कलाकार के मन वेदना की और पगला देने वाले भय की भावना, चाहे कितनी ही ज़्यादा क्यों न थी, मगर उसकी आंखें सोने पर टिकी थीं, एकटक देखते हुए कि वह कैसे हडीले हाथों में खुल रहा है, चमक रहा है, पतली और खोखली आवाज़ में छनछना रहा है और फिर से पैकेट्स में बंद हो गया है. अब उसकी नज़र एक पैकेट पर पडी, जो लुढ़क कर अन्य पैकेट्स से दूर चला गया था, ठीक उसके पलंग की टांगों के पास, सिरहाने के पास. लगभग थरथराते हुए उसने पैकेट को पकड़ लिया, और पूरी तरह भयभीत होकर देखा, कि कहीं बूढ़े ने देख तो नहीं लिया. मगर, ऐसा लग रहा था, कि बूढ़ा बहुत व्यस्त था. उसने अपने सारे पैकेट्स इकट्ठे किये, उन्हें फिर से बोरे में रख दिया और, उसकी तरफ़ देखे बिना, स्क्रीन के पीछे चला गया. कलाकार का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, जब उसने कमरे में दूर जाते हुए पैरों की सरसराहट सूनी. उसने अपना पैकेट हाथ में कस कर पकड़ लिया, उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था, और अचानक उसने सुना कि पैर फिर से स्क्रीन के पास आ रहे हैं, - ज़ाहिर है, बूढ़े को याद आ गया कि एक पैकेट कम है. और फिर – उसने फिर से स्क्रीन के पीछे उसकी तरफ देखा. पूरी तरह बदहवास, उसने अपने हाथ में पूरी ताकत से पैकेट भींच लिया, कुछ हलचल करने की पूरी कोशिश की, चीखा – और जाग गया.

उसका पूरा शरीर ठन्डे पसीने से भीग गया; दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था, जितना धड़क सकता था; सीना इतना सिकुड़ गया था, जैसे उसके भीतर से अंतिम सांस निकल जाना चाहती हो.

“कहीं ये सपना तो नहीं था?” उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर कहा, मगर इस घटना की सजीवता सपने जैसी नहीं थी. उसने देखा, जागने के बाद, कि बूढा कैसे फ्रेम के भीतर गया, उसकी चौड़ी पोशाक के पल्ले की झलक भी दिखाई दी, और उसका हाथ, जो एक मिनट पहले उसके सामने एक वज़न लेकर खडा था, स्पष्ट रूप से महसूस हो रहा था. चाँद की रोशनी कमरे को प्रकाशित कर रही थी, और अँधेरे में रखे उसके कैनवास को, प्लास्टर के हाथ को, कुर्सी पर पड़े परदे को, पतलून  को, और गंदे जूतों को उजागर कर रहा था. तभी उसका ध्यान गया कि वह बिस्तर पलंग पर नहीं लेटा है, बल्कि सीधे पोर्ट्रेट के सामने अपने पैरों पर खड़ा है. वह यहाँ तक कैसे पहुंचा – ये किसी तरह याद नहीं आ रहा था. और इससे भी ज़्यादा आश्चर्य इस बात का हुआ कि पोर्ट्रेट पूरी तरह खुला था और वाकई में उस पर चादर नहीं थी. स्तब्ध भय से उसने पोर्ट्रेट की तरफ़ नज़र डाली और देखा कि कैसे सजीव मानवीय आंखें उस पर गडी हैं. उसके चहरे पर ठण्डा पसीना छलक आया: वह दूर हटना चाहता था, मगर महसूस हुआ कि उसके पैर ज़मीन में गड गए हैं. और देखा कि : यह सपना नहीं है. बूढ़े के अंगप्रत्यंग हिले और उसके होंठ कलाकार की तरफ खिंचे, जैसे उसे चूसना चाहता हो. बदहवास चीख के साथ वह उछला – और जाग गया.

“कहीं यह भी तो सपना नहीं था?” तेज़ी से उछलते दिल से उसने अपने चारो ओर हाथों से टटोला. हाँ, वह बिस्तर पर लेटा था, उसी हालत में, जैसे  गया था. उसके सामने था स्क्रीन, चाँद की रोशनी ने कमरे को भर दिया था. स्क्रीन की दरार से – पोर्ट्रट दिखाई दे रहा था, जैसा चादर से ढंका होना चाहिए था, - जैसा की खुद उसने उसे ढांक दिया था. तो, यह भी सपना था! मगर भिंचा हुआ हाथ अभी तक महसूस कर रहा था, जैसे उसमें कुछ था. दिल की धड़कन तेज़ थी, लगभग खतरनाक: सीने में भारीपन असहनीय था. उसने दरार में आंखें गड़ाईं और चादर की तरफ़ एकटक देखता रहा. और स्पष्ट रूप से देखा कि चादर खुलने लगी है, जैसे उसके नीचे हाथ कुछ टटोल रहे हैं, और उसे फेंकने की कोशिश कर रहे हैं. “खुदा! माय गॉड, ये क्या है!”- बदहवासी से सलीब का निशान बनाते हुए वह चीखा, और जाग गया.

और यह भी सपना ही था! वह बिस्तर से कूदा, आधा पागल, मतिहीन, और यह नहीं समझ सका कि उसे क्या हो रहा है: क्या किसी दु:स्वप्न का दबाव या घरेलू ‘जिन्न’ का दबाव, बुखार का प्रलाप या कोई सजीव छाया. मानसिक उत्तेजना और उछलते हुए खून को शांत करने के लिए, जो सारी नसों में तनावपूर्ण नाड़ी के साथ धड़क रहा था, वह खिड़की के पास पहुंचा और रोशनदान को खोल दिया. ठंडी. महकती हवा ने उसमें जान डाल दी. चाँद की रोशनी अभी तक घरों की छतों और सफ़ेद पर दीवारों पर पडी थी, हालांकि आसमान में छोटे-छोटे बादल तेज़ी से चल रहे थे. सब कुछ शांत था: कभी-कभार दूर से गाडीवान की गाड़ियों की खडखडाहट सुनाई दे जाती, जो देर से लौट रहे किसी मुसाफिर के इंतज़ार में, अपने अलसाए डंडे की लोरी सुनते हुए, किसी अदृश्य गली में, कहीं सो रहा था. रोशनदान में सिर घुसाकर वह बड़ी देर तक देखता रहा. आसमान में सुबह की लाली के संकेत दिखाई दे रहे थे; आखिरकार उसे ऊंघ महसूस होने लगी, उसने रोशनदान बंद कर दिया, वहां से दूर हटा, बिस्तर पर लेट गया और शीघ्र ही मुर्दे की भांति सो गया, बेहद गहरी नींद में.

वह बड़ी देर से उठा और उसे शरीर में एक अप्रिय भावना का एहसास हुआ, जो नशे के बाद किसी आदमी को दबोच लेती है.; उसका सिर बुरी तरह से दर्द कर रहा था. कमरे में धुंधलापन था; हवा में अप्रिय नमी बैठ गई थी, जो उसकी खिड़कियों की दरारों से भीतर आ रही थी, जो चित्रों या प्राईम कैनवास से बंद की गई थीं. उदास, गीले मुर्गे की तरह असंतुष्ट, वह अपने फटे हुए दीवान पर बैठ गया, खुद भी न समझते हुए, कि क्या करना है, कौनसा काम हाथ में ले, और आखिरकार उसे अपना पूरा सपना याद आ गया. जैसे ही उसने इसे याद किया, सपना उसकी कल्पना में इतना बोझिल रूप से सजीव प्रतीत हुआ, कि उसे संदेह होने लगा, कि वह वाकई में सपना था या साधारण भ्रम, यहाँ कोई और चीज़ तो नहीं थी. कहीं यह धोखा तो नहीं था. चादर हटाकर, वह दिन के प्रकाश में इस भयानक पोर्ट्रेट को गौर से देखने लगा. आंखें, वाकई में अपनी असाधारण सजीवता से हैरान कर रही थीं, मगर उसे उनमें कोई असाधारण भयानकता नज़र नहीं आई, सिर्फ मन में जैसे एक अस्पष्ट, अप्रिय भावना रह गयी. इस सब के बावजूद वह पूरी तरह विश्वास न कर सका कि वह सपना था. उसे प्रतीत हुआ कि सपने के बीच वास्तविकता का कोई खौफनाक अंश था. ऐसा लगा, कि बूढ़े की नज़र और उसकी अभिव्यक्ति कुछ कह रही थी, कि वह रात को उसके पास आया था; उसका हाथ अभी भी वज़न महसूस कर रहा था, जिसे शायद किसी ने एक मिनट पहले ही उससे खींच लिया था. उसे लगा, कि यदि वह पैकेट को कस कर पकड़े रहता, तो शायद वह जागने के बाद भी उसके हाथ में होता. 

“माय गॉड, अगर इन पैसों का थोड़ा सा हिस्सा!” उसने भारी आह के साथ कहा, और उसकी कल्पना में थैले से आकर्षक इबारत “1000 ड्यूक्स” लिखे सारे पैकेट्स बाहर निकलने लगे. पैकेट्स खुलने लगे, सोना चमक रहा था, फिर से लिपट गया और वह बैठा रहा, स्थिर और बेमतलब खाली हवा में अपनी निगाहें गडाए, ऐसी चीज़ से अपना ध्यान हटाने में असमर्थ – जैसे कोई बच्चा, जो मिठाई के सामने बैठा देख रहा हो कि दूसरे लोग उसे कैसे खाते हैं. आखिरकार दरवाज़े पर खटखट हुई, जिसने उसे अप्रिय भावना के साथ जागने पर मजबूर कर दिया. फ़्लैट का मालिक आया डिस्ट्रिक्ट सुपरावाइज़र के साथ, जिसका आगमन छोटे लोगों के लिए उससे अधिक अप्रिय होता है, जितना अमीरों के लिए याचना करने वालों का. उस छोटे से घर का मालिक, जिसमें चिर्त्कोव रहता था, एक ऐसा नमूना था, जैसे आम तौर पर वसिल्येव्स्की द्वीप की पंद्रहवीं पंक्ति में रहने वाले मकान मालिक होते हैं, पीटर्सबुर्ग की तरफ या कलोम्ना के दूर दराज़ के कोने में, - नमूना, जैसे रूस में बहुत सारे हैं और जिनके चरित्र को पहचानना उतना ही मुश्किल है जैसे घिसे पिटे बदरंग कोट का रंग पहचानना होता है. जवानी में वह कैप्टेन था और खूब चीखा करता था, सरकारी काम काज भी किया करता था, अच्छी ख़ासी नक्काशी कर लेता था, फुर्तीला था, छैला था और बेवकूफ था; मगर अपने बुढापे में उसने अपनी इन तीनों तेज़ तर्रार विशेषताओं को मिलाकर एक सुस्त अनिश्चितता बना ली थी. वह विधुर था, सेवानिवृत्त हो चुका था, छैलापन नहीं करता था, शेखी नहीं बघारता था, किसी को तंग नहीं करता था, सिर्फ चाय पीना पसंद करता था, और चाय पीते हुए हर तरह की बकवास करता था; कमरे में घूमता, मोमबत्ती की लौ को ठीक करता; हर महीने के अंत में पैसे लेने के लिए अपने किरायेदारो के पास आता; हाथ में चाभी लिए बाहर आता, ताकि अपने घर की छत देख सके; उसने कई बार चौकीदार को अपनी कोठरी से बाहर निकाल दिया, जहां वह सोने के लिए छुप जाता था; एक लब्ज़ में, सेवानिवृत्त आदमी, जिसके पास अपने गहमा गहमी के जीवन और क्रॉसबार पर हिचकोले खाने के बाद सिर्फ ओछी आदतें ही बची हैं.

आप खुद ही देखिये, वरूख कुज्मिच,” सुपरवाइज़र से मुखातिब होते हुए हाथ फैलाकर मकान मालिक ने कहा, “क्वार्टर का किराया नहीं देता है, नहीं देता.”

“अब अगर मेरे पास पैसे न हों तो क्या करूं? कुछ इंतज़ार कीजिये, मैं पैसे दे दूंगा.”

“मेरे बाप, मैं इंतज़ार नहीं कर सकता,” हाथ में रखी चाभी से इशारा करते हुए मकान मालिक ने गुस्से से कहा, “मेरे पास पतागोन्कीन रहता है, लेफ्टिनेंट कर्नल, सात साल से रह रहा है; आन्ना पित्रोव्ना बुख्मिस्तेरवा के पास सराय है, और दो घोड़ो वाला अस्तबल भी है, उसके पास तीन नौकर हैं – ऐसे लोग रहते हैं मेरे यहाँ. साफ़ साफ़ कहूं तो मैंने ऐसी कोई संस्था नहीं खोल रखी है, कि कोई क्वार्टर के लिए किराया न दे. मेहेरबानी से अभी किराया दीजिये और यहाँ से निकल जाईये.”

“हाँ, अगर आपने फैसला कर ही लिया है, तो पैसे दे दीजिये,” डिस्ट्रिक्ट सुपरवाईज़र ने सिर को हल्का सा हिलाते हुए, और अपने कोट की बटन के पीछे उंगली रखकर कहा.

“मगर कैसे दूं? – ये सवाल है. मेरे पास इस समय एक कौड़ी भी नहीं है.”

“ऐसी हालत में इवान इवानाविच को अपने व्यवसाय की चीज़ों से संतुष्ट करें,” सुपरवाईज़र ने कहा, “शायद, वह पेंटिंग्स लेने के लिए तैयार हो जाये.”

“नहीं, मेरे बाप, पेंटिंग्स के लिए शुक्रिया. अच्छा होता कि पेंटिंग्स अच्छे विषय पर होतीं, ताकि उन्हें दीवार पर टांग सकें, कम से कम कोई ‘स्टार’ वाला जनरल या राजकुमार कुतूज़व का पोर्ट्रेट, वरना यहाँ तो इसने किसान का चित्र बनाया, कमीज़ पहने किसान का, लोग कहते हैं कि बस रंग मल  देता है. और, इससे अपना चित्र बनवाना; मैं इसकी गर्दन काट दूंगा: इस बदमाश ने मेरी कुण्डियों से सभी कीलें निकाल लीं. ये देखिये, कैसी चीज़ें हैं : यह एक कमरे की पेंटिंग है. काश, मैं एक साफ़ सुथरा, सजा हुआ कमरा लेता, मगर उसने इसकी भी तस्वीर बना दी सभी कूड़े कर्कट के साथ, जो भी पडा था. गौर फरमाइए, कैसे उसने मेरे कमरे को गंदा कर दिया. मेरे यहाँ सात-सात साल से किराएदार रहते हैं, कर्नल, बुख्मिस्तेरवा आन्ना पित्रोव्ना. नहीं, मैं आपसे कहता हूँ, चित्रकार से ज़्यादा बुरा कोई किराएदार नहीं होता; सुअर है, सुअर की तरह ही रहता है, खुदा बचाए.”

और यह सब बेचारे चित्रकार को बड़े सब्र से सुनना पड़ रहा था. इस बीच डिस्ट्रिक्ट सुपरवाईज़र चित्रों और स्केचेस को देखने में व्यस्त था, और उसने फ़ौरन प्रकट किया कि उसकी आत्मा मकान मालिक से ज़्यादा संवेदनशील है और कलात्मक अनुभूतियों से अनभिज्ञ नहीं थी.   

हेहे...’ उसने एक कैनवास में उंगली गड़ाकर कहा, जिस पर एक नग्न औरत का चित्र था, “क्या चीज़ है...चंचल. और इसकी नाक के नीचे काला क्यों है? क्या उसने अपने आप पर तम्बाकू छिड़क लिया है?

“छाया है,” चिर्त्कोव ने उसकी ओर देखे बिना गंभीरता से उत्तर दिया.

“अच्छा, उसे किसी और जगह पर ले जा सकते हैं, मगर नाक के नीचे प्रमुख जगह है,” सुपरवाइज़र ने कहा, “और यह किसका पोर्ट्रेट है?” बूढ़े के पोर्ट्रेट के निकट आते हुए वह कहता रहा, - काफी डरावना है. मानो वह सचमुच में इतना डरावना था, आह, हाँ, वह सीधे देख रहा है! एह, कैसा है ठंडरबोल्ट (वज्र – अनु.)! ये किसे देखकर बनाया?

“हूँ, एक ...” चिर्त्कोव ने कहा और अपना शब्द पूरा नहीं किया : चरमराहट की आवाज़ सुनाई दी. सुपरवाइज़र ने, ज़ाहिर है, काफ़ी ताकत से पोर्ट्रेट की फ्रेम को दबाया था, अपने कुल्हाड़ी जैसे पुलिसिया हाथों की मेहेरबानी से; किनारे वाले फट्टे भीतर की तरफ़ टूट गए, एक फर्श पर गिरा, और उसके साथ ही गिरा, भारी खनखनाहट के साथ, नीले कागज़ में लिपटा एक पैकेट. चिर्त्कोव की आंखों के सामने उस पर लिखे अक्षर तैर गए : “ 1000 ड्यूक्स”. पागल की तरह वह उसे उठाने के लिए लपका, पैकेट को पकड़ा, थरथराते हुए उसे हाथ में दबोचा, जो भारी वज़न के कारण नीचे झुक गया था.

कोई चारा नहीं, पैसे खनखनाए,” किसी चीज़ के फर्श पर गिरने की आवाज़ सुनकर सुपरवाईज़र ने कहा, जो चिर्त्कोव की फुर्ती के कारण उस चीज़ को देख नहीं पाया, जो उसे उठाने के लिए तेज़ी से लपका था.

“मगर आपको इससे क्या मतलब है, कि मेरे पास क्या है?

“मतलब ये है, कि आपको फ़ौरन मकान मालिक को क्वार्टर का किराया देना है, कि आपके पास पैसे हैं, मगर आप देना नहीं चाहते – ये बात है.”

“खैर, मैं आज उसे पैसे दे दूंगा.”

“मगर, आप पहले क्यों नहीं देना चाहते थे, और मकान मालिक को परेशान कर रहे हैं, और पुलिस को भी परेशान कर रहे हैं?

“क्योकि मैं इन पैसों को हाथ नहीं लगाना चाहता था; मैं आज शाम को ही उसके सारे पैसे चुका दूंगा, और कल ही क्वार्टर से चला जाऊंगा, क्योंकि मैं ऐसे मकान मालिक के यहां नहीं रहना चाहता.”

“अच्छा, इवान इवानविच, वह आपको पैसे दे देगा” सुपरवाईज़र ने मकान मालिक से मुखातिब होते हुए कहा. “और, अगर आप आज शाम को संतुष्ट न हुए, तो फिर मुझे माफ़ ही करना कलाकार महाशय.”

यह कहकर उसने अपनी तिकोनी टोपी पहनी और प्रवेश कक्ष में निकल गया, और उसके बाद मकान मालिक भी गया, सिर नीचे झुकाए और, जैसे किसी ख़याल में डूबा हुआ.

“शुक्र है खुदा का, शैतान उन्हें ले गया!” प्रवेश कक्ष में दरवाज़े के बंद होने की आवाज़ सुनकर चिर्त्कोव ने कहा.

उसने प्रवेश कक्ष में झांककर देखा, निकिता को किसी काम से बाहर भेज दिया, ताकि पूरी तरह अकेला रहे, उसके पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया, और अपने कमरे में वापस आकर तेज़ी से धड़कते दिल के साथ पैकेट खोलने लगा. उसमें सोने के सिक्के थे, सारे के सारे एकदम नए, आग जैसे गरम. लगभग पगला कर, वह सोने के ढेर के पीछे बैठ गया, अपने आप से पूछते हुए, कि कहीं ये सब सपना तो नहीं है. पैकेट में पूरे एक हजार सिक्के थे; वे बिल्कुल वैसे ही थे, जैसे उसे सपने में दिखाई दिए थे. कुछ देर तक वह उन्हें देखता रहा, उनका निरीक्षण करता रहा, और अपने आप की संभाल नहीं सका. उसकी कल्पना में सारे खजानों के, छिपे हुए दराजों वाले ताबूतों के किस्से साकार हो उठे, जिन्हें अपने गरीब पोतों के लिए पूर्वज छोड़ जाते थे, इस पक्के यकीन के साथ कि वे बर्बाद ही होने वाले हैं. उसने इस तरह सोचा: ‘कहीं अभी भी किसी दद्दू ने पारिवारिक पोर्ट्रेट की फ्रेम में रखकर अपने पोते के लिए उपहार तो नहीं छोड़ा है?’ रोमांटिक भ्रम से भरा हुआ वह यह भी सोचने लगा, कि कहीं इसका उसके भाग्य से गुप्त संबंध तो नहीं है: कहीं पोर्ट्रेट के अस्तित्व का उसके अपने अस्तित्व से संबंध तो नहीं है, और सबसे महत्वपूर्ण, इसकी प्राप्ति में उसके लिए कहीं कोई पूर्वसंकेत तो नहीं था? वह उत्सुकता से पोर्ट्रेट की फ्रेम देखने लगा. उसके एक तरफ एक खोखली नली थी, जिसे लकड़ी के तख्ते से इतनी आसानी और चतुराई से भीतर धकेला गया था, कि अगर सुपरवाईज़र का भारी भरकम हाथ उसे न तोड़ता, तो सोने के सिक्के सदियों तक शान्ति से वहीं पड़े रहते. पोर्ट्रेट को गौर से देखते हुए वह उच्च कोटि काम से चकित रह गया, आंखों की असाधारण चित्रकारी से : अब वे उसे डरावनी नहीं लग रही थीं, मगर फिर भी मन में अभी तक एक अप्रिय भावना रह गई थी. “नहीं, उसने अपने आप से कहा, ‘चाहे तुम किसी के भी दादा हो, मगर मैं तुम्हें कांच के पीछे रखूंगा और तुम्हारे लिए सोने की फ्रेम बनवाऊंगा. अब उसने अपने सामने पड़े सोने के ढेर पर हाथ मारा और इस स्पर्श से उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा. ‘इनका क्या करूँ?’ उन पर नज़र जमाते हुए वह सोच रहा था. ‘अब कम से कम तीन साल तक मैं सुरक्षित हूँ, अपने आप को कमरे में बंद कर सकता हूँ, काम कर सकता हूँ.  अब मेरे पास रंगों के लिए पैसे हैं; खाने के लिए, चाय के लिए, रोज़मर्रा के खर्च के लिए, क्वार्टर के लिए है; अब मुझे कोई परेशान और बेज़ार नहीं करेगा, एक बढ़िया मॉडल खरीदूंगा, पैर बनाऊंगा, वीनस रखूंगा, पहली तस्वीरें बेचने से प्रिंटिंग मशीन खरीदूंगा. और अगर इस तरह, बिना जल्दबाजी किये तीन साल अपने लिए काम करूंगा, बेचने के लिए नहीं, तो उन सबको पीछे छोड़ दूंगा, और प्रसिद्ध कलाकार हो जाऊंगा.”

इस प्रकार वह अपने तर्क से सोच रहा था; मगर भीतर से एक दूसरी आवाज़ सुनाई दे रही थी, ज़्यादा तेज़

और खनखनाती. और उसने दुबारा सोने के ढेर की तरफ़ देखा, जैसे बाईस साल और जोशीली जवानी उससे बातें  

कर रहे थे. अब उसके पास वह सब कुछ था, जिसकी ओर वह अब तक, थूक निगलते हुए, ललचाई नज़रों से

देखा करता था,  ओह,कैसे उत्साह का अनुभव हो रहा था, जब वह उस बारे में कैसी ईर्ष्या का अनुभव होने

लगा, जैसे ही वह उस बारे में सोचने लगा!

‘फैशनेबल टेल कोट पहनना, लम्बे उपवास के बाद खाना खाना, फ़ौरन थियेटर जाना, कन्फेक्शनरी की दुकान में जाना,’ वगैरह, वगैरह ...और हाथ में पैसे लिए वह सड़क पर था.

सबसे पहले वह दर्जी के पास गया, बच्चे की तरह सिर से पैर तक पोशाक पहनी और, बच्चे की भांति, निरंतर अपने आप को चारों तरफ़ से देखता रहा, सेंट खरीदे, पोमेड, बिना भावताव किये नेव्स्की अवेन्यू पर जो पहला ही शानदार घर दिखाई दिया, उसे किराये पर ले लिया, आईनों और पूरे-पूरे शीशों वाला, यूं ही दुकान में दूरबीन खरीद ली. यूंही हर तरह की अनगिनत टाई खरीद लीं, फिर, शायद ज़रुरत पड़े, हेयर ड्रेसर के पास जाकर कल्ले रख लिए, बिना किसी वजह के घोड़ा गाड़ी में बैठकर दो बार शहर का चक्कर लगाया, कन्फेक्शनरी में जाकर ढेर सारे चॉकलेट खाए और फ्रेंच रेस्टारेन्ट में गया, जिसके बारे में अब तक उसने वैसी ही अस्पष्ट अफवाहें सुनी थीं, जैसी चीनी राज्य के बारे में सुनता आ रहा था. वहां उसने हाथों को कमर पर रख कर खाना खाया, दूसरों पर काफी गर्वीली नज़र डालते हुए, और लगातार आईने के सामने अपनी घुंघराली लटों को ठीक करता रहा. वहां वह शैम्पेन की एक बोतल पी गया, जिसके बारे में वह ज़्यादातर केवल सुनी सुनाई बातों से ही जानता था. वाईन ने दिमाग़ में थोड़ा सा शोर मचाया, और वह बाहर सड़क पर आया, जिंदादिल, फुर्तीला, रूसी कहावत के अनुसार: बस, शैतान का ही भाई... फुदक फुदक कर फुटपाथ पर चलता रहा, सबके ऊपर लोर्नेट घुमाते हुए. पुल के ऊपर उसने अपने प्रोफ़ेसर को देखा और उसके पास से इस तरह गुज़र गया, जैसे देखा ही न हो, जिससे स्तब्ध हो गया प्रोफ़ेसर चेहरे पर सवालिया निशान बनाए बड़ी देर तक पुल पर बिना हिले डुले खड़ा रहा.                     

सारी चीज़ें और सब कुछ, जो भी था: उपकरण, कैनवास, चित्र – उसी शाम को एक शानदार क्वार्टर में ले जाई गईं. जो अच्छी थीं,उन्हें उसने प्रमुख स्थानों पर रखा, जो बुरी थीं, उन्हें या तो कोने में फेंक दिया और शानदार कमरों में घूमता रहा, लगातार आईने में देखता रहा. उसके दिल में फ़ौरन पूंछ से पकड़कर प्रसिद्धी पाने और दुनिया के सामने स्वयं को दिखाने की इच्छा जागी. उसे जोश भरी चीखें सुनाई देने लगीं : ‘चिर्त्कोव. चिर्त्कोव्! क्या आपने चिर्त्कोव का चित्र देखा? कैसा तेज़ ब्रश है चिर्त्कोव का! कैसी ज़बर्दस्त प्रतिभा है चिर्त्कोव के पास!’ वह उत्तेजित अवस्था में अपने कमरे में घूमता रहा, न जाने कहां खो गया. अगले ही दिन दस सिक्के लेकर वह एक लोकप्रिय अखबार के प्रकाशक के पास पहुंचा और उदारता से उससे सहायता मांगी; पत्रकार ने प्रसन्नता से उसका स्वागत किया, फ़ौरन विस्तार से उसके नाम, कुलनाम, पते के बारे में पूछकर, दोनों हाथों से हस्तांदोलन करते हुए, उसे ‘परम आदरणीय कहकर संबोधित किया, और अगले ही दिन नई-नई आविष्कृत चर्बी वाली मोमबत्तियों के इश्तेहार के बाद ही इस शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ: ‘चिर्त्कोव की असाधारण प्रतिभाओं के बारे में : “सभी लिहाज़ से, कह सकते हैं, एक ख़ूबसूरत, आविष्कार से राजधानी के शिक्षित निवासियों को वाकिफ करवाना चाहते हैं. सभी इस बात से सहमत हैं, कि हमारे यहाँ काफी बेहद ख़ूबसूरत व्यक्ति और बेहद ख़ूबसूरत चेहरे हैं, मगर भावी पीढी को उन्हें सौंपने के लिए गज़ब के कैनवास पर प्रदर्शित करने का अब तक कोई साधन नहीं था; अब यह कमी पूरी हो गई है: एक कलाकार मिल गया है, जिसके पास वह सब कुछ है, जिसकी आपको आवश्यकता है. अब सुन्दरी आश्वस्त हो सकती है, कि वह अपने सौन्दर्य की पूरी गरिमा के साथ पारदर्शक, हल्की, सम्मोहक, आश्चर्यजनक, बसंत के फूलों पर फड़फड़ाती तितलियों जैसी प्रदर्शित होगी. परिवार के सम्माननीय पिता स्वयं को अपने परिवार से घिरा हुआ देखेंगे. व्यापारी, योद्धा, नागरिक, राजनेता – हर कोई: नए जुनून के साथ अपने पेशे को जारी रखेगा. जल्दी आईये, जल्दी आईये, अपनी सैर से आईये, दोस्त के पास से, चचेरी बहन के घर से, चमकीली दूकान की सैर से आईये, जल्दी कीजिये, चाहे जहाँ भी हों. कलाकार का शानदार स्टूडियो, (नेव्स्की प्रोस्पेक्ट, फ़लां फ़लां नंबर, उसकी ब्रश से बने पोर्ट्रेट्स से सजा हुआ, वान्दिक और तित्सिआनव की टक्कर का. समझ में नहीं आता, कि किस बात पर आश्चर्य करें: मूल चित्रों के प्रति ईमानदारी और उनसे साम्य, या ब्रश की असाधारण चमक और ताज़गी पर. आपका स्वागत है, कलाकार महाशय! आप भाग्यवान हैं. स्वागत है, अंद्रेई पित्रोविच (पत्रकार को, ज़ाहिर है, बेतकल्लुफी पसंद थी)! हमारा और आपका सम्मान बढ़ाएं. हम आपकी सराहना करना जानते हैं. सार्वजनिक सम्मलेन, और साथ ही पैसे भी, हालांकि हमारे कुछ पत्रकार भाई ही विरोध करेंगे, मगर यह आपके लिए पुरस्कार होगा”.  

गुप्त प्रसन्नता से कलाकार ने यह इश्तेहार पढ़ा: उसका चेहरा चमक उठा. उसके बारे में समाचार छपा था – यह उसके लिए नई बात थी: कई बार उसने इन पंक्तियों को पढ़ा. वन्दिक और तित्सिआन से तुलना से उसे बेहद प्रसन्नता हुई. वाक्य ‘विवात, अंद्रेई पित्रोविच!’ भी बहुत अच्छा लगा; छपे हुए रूप में उसका नाम और पिता के नाम सहित उल्लेख करते हैं – बहुत बड़ा सम्मान, जो अब तक उसके लिए पूरी तरह अपरिचित था. वह शीघ्रता में कमरे में घूमने लगा, अपने बालों को बिखेरने लगा, कभी कुर्सियों पर बैठ जाता, कभी उनसे उछल जाता, और सोफे पर बैठ जाता, हर पल कल्पना करते हुए कि वह आगंतुकों का स्वागत कैसे करेगा, कैनवास के पास जाता और उस पर जोरदार तरीके से ब्रश लहराता, हाथ को शानदार गति देने की कोशिश करते हुए. अगले दिन उसके दरवाज़े की घंटी बजी; वह खोलने के लिए भागा. फ़र की वर्दी पहने एक नौकर के साथ एक महिला भीतर आई, और महिला के साथ आई अठारह वर्ष की जवान बेटी.  

“आप मिस्टर चिर्त्कोव हैं?” महिला ने कहा.

कलाकार ने झुककर अभिवादन किया.

“आपके बारे में इतना कुछ लिखते हैं. कहते हैं कि आपके पोर्ट्रेट्स उत्कृष्टता की चरम सीमा हैं.” इतना कहकर उसने आंखों पर दूरबीन चढ़ा ली और फ़ौरन दीवारों को देखने के लिए भागी, जिन पर कुछ भी नहीं था. “आपके पोर्ट्रेट्स हैं कहाँ?

“बाहर निकाल लिए हैं,” कलाकार ने कुछ सकुचाते हुए कहा, “मैं हाल ही में इस क्वार्टर में आया हूँ, वे अभी रास्ते में हैं. अभी पहुंचे नहीं हैं.”

“क्या आप इटली जा चुके हैं?” देखने के लिए कुछ और न होने से ने महिला ने उसकी तरफ़ लोर्नेट घुमाते हुए पूछा.    

“ नहीं, मैं नहीं गया, मगर जाना चाहता था, वैसे अभी मैंने उसे स्थगित कर दिया है. ये कुर्सी...क्या आप थक गई हैं?...”

“धन्यवाद, मैं बड़ी देर तक घोड़ागाड़ी मैं बैठी थी. आह, आखिरकार आपका काम देख रही हूँ!” महिला ने सामने वाली दीवार की तरफ़ भाग कर और लोर्नेट को फर्श पर खड़े उसके चित्रों, कार्यक्रमों, पोर्ट्रेट्स और परिप्रेक्ष्य पर लोर्नेट जमाते हुए कहा. ‘बहुत प्यारा है, लीज़, लीज़, यहाँ आओ! कमरा त्येनेर की स्टाईल में है, देख रही हो: अव्यवस्था, गड़बड़, मेज़, उस पर अर्ध प्रतिमा, हाथ, रंग मिश्रण करने की पट्टी , ये है धूल, - देख रही हो, कैसे धूल को चित्रित किया गया है! बेहद प्यारा! और दूसरे कैनव्हास पर है एक औरत, चेहरा धोती हुई, - कितनी सुन्दर आकृति! आह, छोटा आदमी! लीज़, लीज़, छोटा आदमी रूसी कमीज़ में! देख : छोटा आदमी! तो, आप सिर्फ पोर्ट्रेट्स पर ही काम नहीं करते हैं?

“ओह, ये बकवास है...बस, यूंही हाथ साफ़ कर रहा था, प्रैक्टिस की खातिर.”

“अच्छा बताइये तो कि आजकल के चित्रकारों के बारे में आपकी क्या राय है? क्या ये सच है, कि अब तित्सिआन जैसे चित्रकार नहीं हैं? उनकी रंगसंगति में वह बात नहीं है. बिलकुल नहीं...अफसोस की बात है, कि मैं आपको अपनी बात रूसी में नहीं समझा सकती. (महिला पोर्ट्रेट्स की दीवानी थी, और अपने लॉर्नेट के साथ  इटली की सभी आर्ट गैलरीज़ का दौरा कर रही थी.) मगर मिस्टर नोल...आह, क्या तस्वीर बनाते हैं! कैसा असाधारण ब्रश है! मुझे ऐसा प्रतीत होता है, कि उसके चेहरों पर तित्सियन की अपेक्षा अधिक भाव हैं. क्या आप मिस्टर नोल को जानते हैं?

“कौन है ये नोल?” कलाकार ने पूछा.

“मिस्टर नोल. ओह, कैसी प्रतिभा है! उसने इसका पोर्ट्रेट बनाया था, जब ये सिर्फ बारह वर्ष की थी. आपको हमारे घर ज़रूर आना चाहिए. लीज़, तुम इन्हें अपना एल्बम दिखाओ. आप जानते हैं, हम यहाँ इसलिए आये हैं, कि आप फ़ौरन इसका पोर्ट्रेट बनाना शुरू करें.”

“क्यों नहीं. मैं इसी पल तैयार हूँ.”

और पल भर में ही उसने कैनव्हास वाले ईज़ल को सरकाया, हाथ में पैकेट लिया, बेटी के छोटे से फीके चहरे पर नज़र गड़ा दी. अगर उसे मानव-स्वभाव का ज्ञान होता, तो वह पल भर में ही बॉल नृत्य के प्रति बच्चों जैसे शौक के आरंभ को पहचान जाता, लंच से पहले और उसके बाद के समय की बोरियत और उकताहट को जान जाता, बॉल नृत्य के प्रति बच्चों जैसे शौक को देखता, नई ड्रेस में समारोहों में भागते फिरने की इच्छा को, माँ द्वारा भावना और आत्मा की उन्नति और प्रगति के लिए थोपी गई अनेक कलाओं के प्रति उदासीनता को भांप लेता. मगर कलाकार ने इस नाजुक चेहरे में सिर्फ पोर्सिलीन जैसी एक लुभावनी पारदर्शिता ही देखी, आकर्षक हल्की चुस्ती, पतली और उजली गर्दन और काया की कुलीन फुर्ती ही देखी. और वह अभी से जश्न मनाने की तैयारी करने लगा, अपने ब्रश की फुर्ती और चमक दिखाने की, जिसका सामना अब तक सिर्फ बदसूरत मॉडल्स के कठोर अंग-प्रत्यंगों से, सख्त शिल्प और किन्हीं क्लासिक कलाकारों की नक़ल से ही पडा था. उसने ख्यालों में कल्पना की कि यह नर्म, नाज़ुक चेहरा कैसे अवतरित होगा.

“पता है,” महिला ने चेहरे पर भावुकता लाते हुए कहा, “मैं चाहती हूँ, कि उसके शरीर पर अभी ड्रेस है: मैं, स्वीकार करती हूँ, वह ड्रेस में न रहे, जिसे देखने के हम सब इतने आदी हो चुके हैं, मैं ये चाहती हूँ, कि वह साधारण पोशाक में हो, और हरियाली की छाँव में बैठी हो, किन्हीं खेतों की पृष्ठभूमि में, कि दूर पर मवेशियों का झुण्ड हो, और फुलवारी हो. ताकि यह पता न चले कि क्या वह किसी बॉल डांस में जा रही है, या किसी फैशनेबल पार्टी में. हमारे बॉल डांस, मैं स्वीकार करती हूँ, कि आत्मा को इस तरह आहत करते हैं कि बची खुची भावनाओं को ही समाप्त कर देते हैं, मैं चाहती हूँ कि सादगी, सादगी ज़्यादा हो.

ओह! माँ और बेटी के चेहरे पर लिखा हुआ था, कि उन्होंने बॉल नृत्यों में इतना अधिक नृत्य किया है की दोनों बिल्कुल मोम जैसी हो गई थीं.

चिर्त्कोव ने अपना काम शुरू किया, मूल व्यक्ति को बिठाया, अपने दिमाग़ में कुछ कल्पना की: हवा में ब्रश लहराया, ख्यालों में कुछ बिंदु प्रस्थापित किये: आंखें कुछ सिकोड़ीं, पीछे हटा, दूर से देखा – और एक घंटे में मूल कैनवास पर रंग फेर दिया। इससे प्रसन्न होकर वह पेंटिंग बनाने लगा, काम में वह मगन हो गया। वह सब कुछ भूल गया, यह भी भूल गया कि कुलीन महिलाओं की मौजूदगी में है, कभी कभी कुछ कलात्मक हरकतें दिखाने लगा, अलग-अलग तरह की आवाजें निकालते हुए, कभी कुछ गुनगुनाते हुए, जैसा कि अक्सर पूरी तन्मयता से अपने काम में डूबे हुए कलाकार के साथ होता है. बिना किसी औपचारिकता के, सिर्फ ब्रश की एक हरकत से उसने मूल को सिर ऊपर उठाने पर मजबूर कर दिया, जो आखिरकार ज़ोर ज़ोर से घूमने लगा, और पूरी तरह से थकावट प्रदर्शित करने लगा.   

“काफ़ी है, पहली बार के लिए काफ़ी है,” महिला ने कहा.

“बस, कुछ देर और,” अपने काम में खो गए कलाकार ने कहा.

“नहीं, समय हो गया है! लीज़, तीन बज रहे हैं!” उसने कमर पर सुनहरी चेन से लटक रही अपनी छोटी सी घड़ी निकालते हुए कहा और चीखी, “आह, कितनी देर हो गई!” 

“सिर्फ एक मिनट,” चिर्त्कोव ने बच्चों जैसी मासूम और मिन्नत-सी करती आवाज़ में कहा.

मगर लगता है, कि इस बार महिला उसकी कलात्मक मांगों को पूरा करने की मनःस्थिति में नहीं थी, और उसने वादा किया कि इसके बदले अगली बार ज़्यादा देर बैठेंगी. मगर,

‘मगर ये बड़ी तकलीफदेह बात है,’ चिर्त्कोव ने मन में सोचा, - ‘हाथ ने अभी अभी तो गति पकड़ी थी.’ और उसे याद आया कि जब वह अपने वसिल्येव्स्की द्वीप पर अपने स्टूडियो में काम करता था, तो उसे कोई नहीं रोकता था, और टोकता था. निकिता, कभी कभी बिना हिले डुले एक ही जगह बैठा रहता था – जितनी चाहो उसकी पेंटिंग बना लो, वह उसके लिए नियत स्थिति में सो भी जाता था. और, कुछ अप्रसन्न, उसने अपना ब्रश और पैलेट कुर्सी पर रख दिया और झिझकते हुए कैनव्हास के सामने खड़ा हो गया. कुलीन महिला की तारीफ़ ने उसे जैसे नींद से जगा दिया. वह उन्हें बिदा करने के लिए जल्दी से दरवाज़े की तरफ़ भागा; सीढ़ियों पर उनके घर आने का, अगले हफ़्ते भोजन का निमंत्रण प्राप्त किया और खुशी खुशी अपने कमरे में लौटा. कुलीन महिला ने उसे पूरी तरह सम्मोहित कर दिया था. आज तक वह इस तरह के व्यक्तियों को अप्राप्य समझता था, जो सिर्फ इसीलिये पैदा होते हैं, कि शानदार घोड़ागाड़ी में घूमें, चमचमाते नौकरों के साथ और छैले गाड़ीवान के साथ और साधारण कोट पहने, पैदल चल रहे आदमी पर उदासीन नज़र डालें. और अब अचानक इन व्यक्तियों में से एक उसके कमरे में आया, वह पोर्ट्रेट बनाएगा, कुलीन घर में भोजन के लिए आमंत्रित किया गया है. असाधारण प्रसन्नता से वह भावविभोर हो गया, और इसके उपलक्ष्य में उसने स्वयं को बढ़िया ‘लंच दिया, शाम का ‘शो’ देखा और फिर से , बिना ज़रुरत घोड़ागाड़ी में शहर का चक्कर लगा आया.

इन सभी दिनों में सामान्य काम में उसका मन नहीं लग रहा था. वह केवल उस पल का इंतज़ार कर रहा था, स्वयं को उसके लिए तैयार कर रहा था, जब घंटी बजेगी. आखिरकार कुलीन महिला अपनी फीके रंग वाली बेटी के साथ आई. उसने उन्हें बिठाया, बड़ी सफ़ाई से और शिष्टाचार से कैनवास को व्यवस्थित किया और पोर्ट्रेट बनाने लगा. धूप वाले दिन और स्पष्ट प्रकाश ने उसकी बहुत मदद की.  

उसने अपने हल्के से मौलिक पोर्ट्रेट में बहुत कुछ ऐसा देखा, जिसे यदि पकड़ पाता और कैनवास पर दिखाता, तो पोर्ट्रेट को बहुत सम्मान प्राप्त होता; देखा, कि कुछ विशेष बात की जा सकती है, यदि सब कुछ उसी परिपूर्णता से दिखाना है, जिस तरह प्रकृति उसे प्रतीत हो रही है. उसका दिल हौले-हौले धड़कने लगा, जब उसने महसूस किया कि वह ऐसी छबि प्रदर्शित करेगा, जिसकी तरफ औरों ने अब तक ध्यान नहीं दिया है. वह काम में पूरी तरह मगन हो गया, अपने मूल मॉडल की कुलीनता के बारे में भूलकर. सधी हुई सांस से उसने गौर किया कि कैसे उसके सामने हल्के नाकनक्श और सत्रह वर्ष की युवती का लगभग पारदर्शी शरीर प्रकट हो रहा है. उसने हर बारीकी को पकड़ा, हल्का पीलापन, आंखों के नीचे मुश्किल से दिखाई देने वाला नीलापन, और माथे पर उभर आई छोटी सी फुंसी भी दिखाने वाला था, कि अचानक अपने ऊपर माँ की आवाज़ सुनी, “आह, ये किसलिए? इसकी कोई ज़रुरत नहीं है,” माँ कह रही थी. “और आपने कुछ जगहों पर ज़्यादा पीलापन दिया है, और ये, यहाँ बिल्कुल काले दाग़ हैं.”  

कलाकार समझाने लगा की ये धब्बे और पीलापम ही तो अच्छे लगते हैं, और वे चेहरे पर हल्का और सुखद प्रभाव उत्पन्न करते हैं. मगर उससे यह कहा गया, कि वे कोई प्रभाव पैदा नहीं करते, और ऐसा सिर्फ़ उसे प्रतीत हो रहा है. “मगर, सिर्फ यहाँ, सिर्फ एक ही जगह पर हल्के पीले रंग से छूने की इजाज़त दीजिये” – कलाकार ने मासूमियत से कहा. मगर उसे यही करने की अनुमति नहीं दी गई. यह बताया गया. कि लिज़ बस आज ही थोड़ी अस्वस्थ है, और उसके चेहरे पर ज़रा भी पीलापन नहीं है और उसका चेहरा खासकर अपने रंगों की ताज़गी से चकित करता है. अफ़सोस के साथ वह मिटाने लगा, जिसे उसके ब्रश ने कैनवास पर उतारा था. कई अत्यंत सूक्ष्म विशेषताएं लुप्त हो गईं, और उनके साथ ही कुछ हद तक समानता भी गायब हो गयी. उसने उदासीनता से उसे वह सामान्य रंग देना शुरू किया, जो मुंहज़बानी याद होता है, और प्रकृति से लिए गए चेहरों को भी ठंडी उदासीनता प्रदान करता है, जो अक्सर छात्रों के कार्यक्रमों में देखे जाते हैं. मगर महिला इस बात से खुश थी कि आपत्तिजनक रंग पूरी तरह हटा दिया गया था. उसने केवल इस बात पर अचरज दिखाया कि काम में इतनी देर लग रही है, और आगे बोली, कि उसने तो यह सुना था कि वह केवल दो ‘सिटिंग्स में पोर्ट्रेट पूरा कर देता है. कलाकार को इसका कोई जवाब नहीं सूझा. महिलाएँ उठकर जाने लगीं. उसने ब्रश रख दिया, उन्हें दरवाज़े तक छोड़ा और उसके बाद बड़ी देर तक अपने पोर्ट्रेट के सामने गुमसुम बैठा रहा. वह बेवकूफ की तरह उसकी ओर देखता रहा, और उसके दिमाग में वे नाज़ुक नारीसुलभ नाक नक्श तैरते रहे, वह झलक और हल्के सुर घूम रहे थे, जिन पर उसने गौर किया था, जिन्हें उसके ब्रश ने बेरहमी से नष्ट कर दिया था. उनमें ही पूरी तरह मगन, उसने पोर्ट्रेट को एक ओर रख दिया और कहीं फेंका हुआ ‘साइकी (आत्मा) का चित्र ढूंढने लगा, जिसकी रूपरेखा उसने बहुत पहले बनाई थी. ये एक चेहरा था, कुशलता से बनाया हुआ. मगर पूरी तरह आदर्श, ठंडा, जिस पर आम नाक नक्श थे, जिसने सजीव शरीर का रूप धारण नहीं किया था. करने के लिए कुछ न होने के कारण अब वह उसे निहारता रहा, हर वह चीज़ याद करते हुए, जो वह कुलीन मेहमान के चहरे पर अंकित करना चाहता था. उसने जिन  लक्षणों पर गौर किया था, नाक-नक्श, रंग, छटा वे यहाँ उस निर्मल रूप में थे, जो तब प्रकट होते हैं, जब कलाकार, प्रकृति का गहन अवलोकन करने के बाद, उससे दूर हो जाता है और उसीके समकक्ष चित्र का निर्माण करता है. ‘साइकी सजीव होने लगी, और मुश्किल से दिल को छूती हुई कल्पना धीरे धीरे साकार शरीर धारण करने लगी. अनचाहे ही कुलीन युवती का चेहरा ‘साइकी में संचारित हो गया, और उससे चेहरे पर एक स्वतन्त्र अभिव्यक्ति छा गयी, जिससे उसे वास्तविक मौलिक रचना का स्वरूप प्रदान कर दिया. ऐसा लग रहा था, कि वह छोटे-छोटे अंशों में और समूचे रूप में उन विवरणों का उपयोग कर रहा था, जिन्हें मौलिक मॉडेल ने प्रस्तुत किया था, और पूरी तरह अपने काम में मगन हो गया. कई दिनों तक वह केवल उसी पर काम करता रहा. और इस काम के दौरान ही परिचित महिलाएं आ गईं. वह ईज़ल से चित्र नहीं हटा पाया. दोनों महिलाएं अचरज से चीख उठीं, और तालियाँ बजाने लगीं.

“लिज़! लिज़! आह कितनी मिलती- जुलती है! शानदार, शानदार! आपने कितना अच्छा किया कि उसे ग्रीक पोशाक में दिखाया है. आह, कैसा आश्चर्य!

कलाकार समझ नहीं पाया कि महिलाओं को इस सुखद भ्रम से कैसे बाहर निकाले. संकोच से, सिर नीचा करके उसने हौले से कहा:

“ये ‘साइकी है.’

“ ‘साइकी’ के रूप में? माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, और साथ ही बेटी भी मुस्कुराई.  – “है ना, लिज़, ‘साइकी के रूप में चित्रित तुम सबसे ज़्यादा अच्छी लगती हो? क्या शानदार आइडिया है! ये तो कोरेज है. स्वीकार करती हूँ, कि मैंने आपके बारे में पढ़ा था और सुना था, मगर मैं ये नहीं जानती थी कि आपके पास ऐसा हुनर है. नहीं, आपको मेरा भी एक ऐसा ही पोर्ट्रेट बनाना होगा.

महिला को भी, ज़ाहिर था, किसी तरह की ‘साइकी’ के रूप में प्रकट होने की ख्वाहिश थी.

“मैं क्या कर सकता हूँ?’ कलाकार ने सोचा. ‘अगर वे खुद ही ऐसा चाहती हैं, तो ‘साइकी वही करे, जो वे चाहती हैं – और उसने कहा:

“कुछ देर और बैठने की तकलीफ़ बर्दाश्त करें. मैं थोड़ा-सा अंतिम स्पर्श करूंगा.”

“आह, मुझे डर है, की आप उसे...अब वह कितनी मिलती-जुलती है.”

मगर कलाकार समझ गया कि उनका डर पीलेपन के बारे में था, और उसने यह कहकर उन्हें यकीन दिलाया कि वह सिर्फ आंखों को और ज्यादा चमक और भाव प्रदान करेगा. और सच कहें तो उसे बहुत संकोच हो रहा था और वह चाहता थी किसी तरह मूल के साथ अधिक साम्य प्रदर्शित करे, ताकि कोई उसे निर्णायक बेशर्मी के लिए प्रताड़ित न करे. और सचमुच, आखिरकार, बेचारी लड़की के नाक नक्श स्पष्ट रूप से ‘साइकी की छाया से प्रकट होने लगे.

“बस, काफ़ी है!” माँ ने कहा, जो डरने लगी थी कि आखिरकार समानता काफ़ी निकट न हो जाए.

कलाकार को हर चीज़ से सम्मानित किया गया : मुस्कान से, पैसों से, तारीफ़ से, ईमानदारीपूर्ण हस्तांदोलन से, डिनर के निमंत्रण से; मतलब, हज़ारों चापलूसी भरे पुरस्कार दिए गए. पोर्ट्रेट ने शहर में धूम मचा दी. महिला ने उसे अपनी सहेलियों को दिखाया: सभी उसकी प्रतिभा से चकित हो गए, जिससे कलाकार ने समानता को बरकरार रखते हुए असली मॉडेल को भी खूबसूरती प्रदान की थी. इस अंतिम बात को, ज़ाहिर है, चेहरे पर हल्की सी ईर्ष्या का भाव लाते हुए प्रदर्शित किया गया. और कलाकार कामों के बोझ तले दब गया. दरवाज़े की घंटी हर मिनट बजती रहती. एक तरफ़ से तो ये अच्छी बात हो सकती थी, जो उसे विविधता से, चेहरों की बहुलता से अंतहीन अभ्यास का मौक़ा देती थी. मगर बदकिस्मती से ये सामान्य लोग थे, जिनसे पेश आना बेहद मुश्किल था, लोग, जो जल्दबाज़ थे, व्यस्त थे या दुनियादारी में उलझे हुए थे – शायद, किन्हीं और व्यक्तियों से भी ज़्यादा व्यस्त, और इसलिए बेहद अधीर थे. चारों ओर से बस यही मांग होती थी, कि काम अच्छा और शीघ्र हो. कलाकार ने देखा, कि सब कुछ पूरा करना असंभव था, ब्रश की कुशलता और फुर्ती से सब कुछ बदलना था. सिर्फ एक ‘सम्पूर्ण’ को, एक सामान्य अभिव्यक्ति को पकड़ना चाहिए, सूक्ष्म विवरण में जाने की ज़रुरत नहीं है; संक्षेप में, प्रकृति को उसकी सम्पूर्णता में चित्रित करना बिलकुल असंभव था. साथ ही यह भी जोड़ना होगा कि पोर्टेट बनवाने वालों के पास कई अन्य झंझट भी थे. महिलाएँ चाहती थीं, कि पोर्ट्रेट्स में केवल आत्मा और चरित्र ही प्रदर्शित हो, बाकी किसी चीज़ पर कभी कभी बिल्कुल ही ध्यान न दिया जाए, सारे कोणों को गोल कर दिया जाए, सभी खामियों को कम करें, और यदि संभव हो, तो उनसे पूरी तरह बचें. मतलब, चेहरे को देखते ही रहने का मन हो, यदि पूरी तरह उसके प्यार में न पड़ें तो भी. और इसकी वजह से, जब वे पोर्ट्रेट बनवाने के लिए बैठतीं, तो कभी कभी चेहरे पर ऐसे-ऐसे भाव लातीं जो कलाकार को चकित कर देते : कोई अपने चेहरे पर उदासी का भाव लाती, दूसरी विचारमग्न होने का, तीसरी हर तरह से मुंह छोटा करने की कोशिश करती और उसे इस हद तक सिकोड़ती की आखिरकार वह एक बिंदु जैसा हो जाता, जो आलपिन के सिर से बड़ा न होता. और, इस सबके बावजूद, उससे समानता और सहज स्वाभाविकता की मांग करतीं. मर्द भी महिलाओं से ज़्यादा बेहतर नहीं थे. एक मांग करता था की उसके सिर को मज़बूत, ऊर्जावान मोड़ लेते हुए चित्रित किया जाए; दूसरा चाहता था कि उसकी आंखें ऊपर उठी हुई, प्रेरित करती हुई हों, गार्ड्स का लेफ्टिनेंट ये मांग करता, की उसकी आंखों में मंगल की झलक दिखाई दे; नागरिक अधिकारी इस बात पर जोर देता, कि चेहरे पर अधिक खुलापन, कुलीनता दिखाई दे और उसका हाथ एक किताब पर टिका हुआ हो, जिस पर स्पष्ट अक्षरों में लिखा हो, “हमेशा सत्य के पक्ष में खडा रहा.

आरंभ में तो कलाकार को ऐसी मांगों से पसीने छूटते थे : इस सबकी कल्पना करनी पड़ती थी, इसके बारे में सोचना पड़ता था, और समय बहुत कम दिया जाता था. आखिरकार वह समझ गया,  कि बात क्या है, और फिर उसे कोई कठिनाई नहीं हुई. सिर्फ दो-तीन शब्दों से ही वह समझ जाता था, कि कौन अपने आप को किस रूप में प्रदर्शित करना चाहता है. कोई ‘मंगल जैसा दिखना चाहता है, वह उसके चेहरे पर ‘मंगल चिपका देता; कोई बायरन जैसा चित्र चाहता, तो वह उसे बायरन का ‘स्टाईल और मोड़ दे देता. महिलाएं जो भी चाहतीं, - कोरिना, या उन्दिना, अस्पाज़िया, वह खुशी-खुशी हर बात के लिए तैयार हो जाता, और हरेक को बहुत अच्छे नाक-नक्श देता, जो, ज़ाहिर है, कभी भी ओछा नहीं लगता, और जिसके लिए अत्यंत असमानता के होते हुए भी कलाकार को माफ़ कर दिया जाता है. जल्दी ही स्वयं उसे ही अपने ब्रश की गति और चपलता पर आश्चर्य होने लगा. और जो उसके पास अपने पोर्ट्रेट बनवाने आते थे, ज़ाहिर है, उसके काम से बेहद खुश थे, और उन्होंने उसे ‘जीनियस घोषित कर दिया.

चिर्त्कोव सभी प्रकार से फैशनेबल चित्रकार बन गया. वह दावतों में जाता, महिलाओं के साथ चित्र-गैलरियों में जाता, और टहलने भी जाया करता, छैलेपन से कपड़े पहनता और ज़ोर देकर कहता कि कलाकार को समाज से संबंधित होना चाहिए, कि उसके नाम और काम का समर्थन करना चाहिए, कि कलाकार मोचियों के समान कपडे पहनते हैं, गरिमापूर्ण व्यवहार नहीं करते, उच्च स्तर नहीं बनाए रखते और हर तरह की शिक्षा से वंचित रहते हैं. अपने घर में, कार्यशाला में उसने उच्चतम स्तर का साफ़-सुथरापन रखा, दो शानदार नौकर रखे, फैशनेबल विद्यार्थी लाया, दिन में कई बार सुबह के सूट बदलने लगा, बालों को घुंघराले बनाया, शिष्टाचार की विभिन्न आदतों को सुधारता रहा, जिससे आगंतुकों का स्वागत करे, अपने बाह्य रूप को सभी संभव उपायों से संवारता रहा, जिससे महिलाओं पर सुखद प्रभाव डाल सके; एक शब्द में, शीघ्र ही उसमें उस पुराने, नम्र कलाकार को पहचानना असंभव हो गया, जो कभी वसिल्येव्स्की द्वीप पर अपनी झोंपड़ी में बिना किसी का ध्यान आकर्षित किये काम किया करता था. अब वह कलाकारों और कला के बारे में कटुता से बोलता: इस बात पर ज़ोर देता, कि पुराने कलाकारों को ज़रा ज़्यादा ही हुनरमंद बताया गया है, रफाएल से पूर्व वे इन्सानों की आकृतियाँ नहीं, बल्कि हेरिंग ही बनाते थे; कि विचार केवल दर्शकों की कल्पना में ही विद्यमान होता है, जैसे उसमें किसी पवित्रता का अस्तित्व हो, कि खुद रफाएल ने हर चीज़ अच्छी ही नहीं बनाई और अनेक चित्रों के लिए उसकी प्रसिद्धि केवल परंपरा के कारण बनी रही, कि मिकलएंजेल घमंडी है, क्योंकि सिर्फ शारीरिक संरचना के ज्ञान का दिखावा करना चाहता था, कि उसमें कोई आकर्षकता नहीं है, और असली प्रतिभा, ब्रश की ताकत और प्रतिभा केवल अभी, आज के युग में ही देखी जा सकती है. यहां, बात अनचाहे ही खुद पर पहुँच गई.    

“नहीं, मुझे समझ में नहीं आता,” – वह कहता, “दूसरों के काम पर बैठकर, तनाव में काम करना. ये आदमी, जो किसी एक चित्र पर कई महीने खटता है, मेरे हिसाब से, मज़दूर है, कलाकार नहीं. मुझे यकीन नहीं होता कि उसमें कोई प्रतिभा है. प्रतिभा निर्भयता से, जल्दी-जल्दी बोलती है. उदाहरण के लिए,” – आमतौर से वह मेहमानों से मुखातिब होकर कहता, “ये पोर्टेट मैंने दो दिनों में बनाया, ये सिर – एक दिन में, ये वाला कुछ ही घंटों में, ये एक घंटे से कुछ ज़्यादा समय में. नहीं, मैं...मैं, स्वीकार करता हूँ, मैं उसे कला नहीं मानता, जो पंक्ति दर पंक्ति गढ़ी जाती है, ये तो शिल्प है, कला नहीं.”

इस तरह की बातें वह अपने मेहमानों से कहता, और मेहमान उसके ब्रश की सामर्थ्य और फुर्ती से चकित रह जाते, यह जानकर प्रशंसात्मक उद्गार भी प्रकट करते कि वे कितनी जल्दी प्रकट हो गए थे, और फिर एक दूसरे से कहत, “ये है प्रतिभा, वास्तविक प्रतिभा! देखिये, कैसे बात करता है, उसकी आंखें कैसे चमकती हैं! अपने हर काम में वह असाधारण है!”

कलाकार को अपने बारे में ऐसी अफवाहें सुनकर बहुत खुशी होती थी. जब पत्रिकाओं में उसके बारे में तारीफ़ छपा करती, तो वह बच्चों की तरह खुश हो जाता, हालांकि उसने अपने ही पैसों से उसे खरीदा था. वह ऐसे प्रकाशित पन्ने हर जगह ले जाता और, जैसे अनजाने ही अपने परिचितों और मित्रों को दिखाता, और इससे उसे बच्चो जैसी मासूम खुशी होती. उसकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी, काम और ऑर्डर्स बढ़ने लगे. अब वह एक जैसे पोर्ट्रेट्स और चेहरों से, जिनकी मुद्राएं और मोड़ उसे रट गए थे, उकताने लगा था. वह बिना किसी ख़ास उत्साह के चित्र बनाता और, सिर्फ किसी तरह सिर्फ़ सिर बना देता, और बाकी का पूरा करने के लिए अपने शिष्यों को दे देता. पहले वह कोई नया पोज़ देने की कोशिश करता, अपनी प्रतिभा की ताकत से, प्रभाव से चकित करता था. अब तो उसे यह भी उकताहट भरा प्रतीत होता. वह सोचने और कल्पना करने से थक गया. यह उसकी सामर्थ्य से बाहर था, और उसके पास समय नहीं था: परेशान ज़िंदगी और समाज, जहां वह एक ज़िम्मेदार सामाजिक व्यक्ति की भूमिका करना चाहता था, - यह सब उसे परिश्रम और ख्यालों से दूर ले गया. उसका ब्रश ठंडा पड़ गया और कुंद हो गया, और वह भावनाहीन ढंग से एक जैसे, कब के घिसे-पिटे रूप में ही सीमित होकर रह गया. अधिकारियों के, फौजियों के और नागरिकों के एक जैसे, ठन्डे, सदा साफ़ सुथरे, और, चाक चौबंद चेहरे ब्रश के लिए ज़्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ते थे: वह शानदार परदे, सशक्त हाव भाव और भावनाओं को भूलता जा रहा था. साहित्यिक गुटों के बारे में, कलात्मक नाटक के बारे में, उसकी उच्च संवेदना के बारे तो कुछ कहने को ही नहीं था. उसके सामने थे सिर्फ एक वर्दी, कोर्सेट, एक टेलकोट था, जिसके सामने कलाकार को ठण्ड महसूस होती है, और हर तरह की कल्पना ख़त्म हो जाती है. साधारण गुण भी अब उसकी रचनाओं में नहीं दिखाई देते थे, मगर वे सब प्रसिद्द हो रहे थे, हांलाकि वास्तविक जानकार और कलाकार उसकी हाल ही की रचनाओं को देखकर सिर्फ कंधे उचका देते थे. मगर कुछ लोग, जो चिर्त्कोव को पहले से जानते थे, समझ नहीं पा रहे थे, कि उसकी प्रतिभा कैसे लुप्त हो सकती है, जिसके लक्षण आरंभ में उसकी कला में तीव्रता से प्रकट होते थे, और व्यर्थ ही बूझने की कोशिश करते, कि किसी व्यक्ति में प्रतिभा कैसे लुप्त हो सकती है, जबकि उसने अभी-अभी अपनी पूरी योग्यताओं को पूर्ण रूप से विकसित किया था.

मगर उस मदांध व्यक्ति ने इन तर्कों पर ध्यान नहीं दिया. वह वह उम्र और बुद्धि की स्थिरता पर पहुँचने लगा था, मोटा हो रहा था, और चौड़ा भी हो रहा था. अखबारों और पत्रिकाओं में वह अपने बारे में विशेषण ‘हमारे सम्माननीय अन्द्रेइ पित्रोविच, ‘हमारे सुयोग्य अन्द्रेइ पित्रोविच’ पढ़ चुका था. उसे प्रतिष्टित जगहों से सेवा की पेशकश की जाने लगी थी, परीक्षाओं में, कमिटियों में निमंत्रित किया जाने लगा था. अब वह, जैसा कि बढ़ती उम्र में होता है, रफ़ाएल और पुराने कलाकारों का पक्ष लेने लगा था, - इसलिए नहीं कि उनकी उच्च कोटि की योग्यता पर उसे विश्वास हो गया था, बल्कि इसलिए कि उन्हें नौजवान शिष्यों की आंखों में चुभा सके. उसने उस उम्र में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों के समान, नौजवानों को, बिना किसी अपवाद के, अनैतिकता और आत्मा के गलत दिशा में बढ़ने के लिए ताने देना आरंभ कर दिया. वह विश्वास करने लगा था, दुनिया में सब कुछ आसानी से हो जाता है, ऊपर से कोई प्रेरणा नहीं मिलती और सब कुछ एक अनुशासित और एक जैसे क्रम में किया जाना चाहिए. संक्षेप में, उसकी ज़िंदगी उम्र के उस मोड़ पर पंहुच चुकी थी, जब कोई प्रबल प्रेरणा मनुष्य के भीतर सिकुड़ जाती है, कम जोश से आत्मा तक पहुँचती है, जब सौन्दर्य का स्पर्श कुंआरी शक्तियों को आग और लपटों में नहीं बदलता, मगर सभी जल चुकी भावनाएँ सोने की खनखनाहट पर उपलब्ध हो जाती हैं. उसके लुभावने संगीत को ज़्यादा ध्यान से सुनती हैं, और धीरे-धीरे, अनजाने ही शांत कर देती हैं. शोहरत उस व्यक्ति को प्रसन्नता नहीं दे सकती, जिसने उसे चुराया हो, और कमाया न हो, वह सिर्फ उन लोगों में जोश पैदा करती है, जो उसके लायक हों. और इसलिए उसकी सारी भावनाएं और इच्छाएं सोने की ओर मुड़ गईं. सोना उसका जूनून, आदर्श, तीव्र इच्छा, प्रसन्नता, लक्ष्य बन गया.  संदूकों में नोटों की गड्डियां ऊंची होती गईं, और हर उस व्यक्ति की तरह, जिसे यह भयानक उपहार विरासत में मिलता है, वह उबाऊ होने लगा, हर चीज़ के लिए अप्राप्य, सिर्फ सोने को छोड़कर. अकारण ही कंजूस, असंतुष्ट संग्राहक बन गया और लगभग उन विचित्र प्राणियों में परिवर्तित होने लगा, जैसे हमारी भावनाहीन दुनिया में बहुतायत से होते हैं, जिनकी तरफ़ जीवन और हृदय से  परिपूर्ण आदमी भय से देखता है, जिसे वे चलते फ़िरते पत्थर के ताबूत के समान नज़र आते हैं, जिनमें दिल के स्थान पर मृतक होता है. मगर एक घटना ने तेज़ी से उसे झकझोर दिया और जीवन-रचना को जागृत कर दिया.

एक दिन उसने अपनी मेज़ पर एक चिट्ठी देखी, जिसमें ‘कला-अकादमी ने एक सम्माननीय सदस्य के रूप में उससे विनती की थी कि आकर एक नई, इटली से भेजी गयी रचना के बारे में अपनी राय दे, जिसे वहां से प्रवीणता प्राप्त किये हुए रूसी कलाकार ने बनाया था. यह कलाकार कभी उसका साथी रह चुका था, जिसे बचपन से ही कला के लिए जुनून था, किसी कामगार की उत्साही आत्मा के समान, अपनी पूरी आत्मा से वह कला में डूब गया, दोस्तों से, रिश्तेदारों से कट गया, प्यारी आदतों से दूर हो गया, और वहाँ चला गया, जहां ख़ूबसूरत आसमान के नीचे कला का भव्य केंद्र फल फूल रहा था, -  उस आश्चर्यजनक रोम में, जिसके नाम से कलाकार  का जोश भरा दिल पूरी तरह से और तेज़ी से धड़कता है. वहां, किसी फ़कीर की तरह वह मेहनत और अध्ययन में जुट गया, जिनसे उसका ध्यान कहीं और नहीं बंटता था. उसे इस बात से कोई लेना देना नहीं था, कि लोग उसके स्वभाव के बारे में क्या कहते हैं, लोगों से पेश आने की अयोग्यता के बारे में, सामाजिक शिष्टाचार का पालन न करने के बारे में, उस अपमान के बारे में जो वह अपनी छोटी, भद्दी पोशाक के कारण ‘कलाकार की उपाधि का कर रहा था. उसे इस बात को जानने की ज़रुरत नहीं थी, कि उसके कलाकार भाई उस पर नाराज़ हुए या नहीं. उसने हर चीज़ की उपेक्षा की, सब कुछ कला को समर्पित कर दिया. अथक रूप से कला-गैलरियों में जाता रहा, महान कलाकारों की रचनाओं के सामने घंटों खड़ा रहता, उनके आश्चर्यजनक ब्रश की हरकतों को पकड़ता और उसका अनुकरण करता रहा. कोई भी काम वह तब तक पूरा नहीं करता, जब तक कई-कई बार इन महान गुरुओं की सलाह को आत्मसातन करता, और उनकी कृतियों से स्वयं के लिए मौन और प्रभावशाली सलाह को नहीं पढ़ लेता. वह जोर शोर की बहस और वाद विवादों में नहीं पड़ता, वह न तो ‘शुद्धतावादियों’ के पक्ष में था, न ही उनके विरोध में. वह सबको उचित सम्मान देता था, सब से केवल वही ग्रहण करता, जो ‘सुन्दर था, और अंत में अपने गुरू के रूप में उसने सिर्फ दिव्य रफ़ाएल को चुना. महान कवी-कलाकार की भांति, जिसने अनेक आकर्षक और महान सौन्दर्यपूर्ण रचनाओं को बार बार पढ़ा था, अपनी मेज़ पर केवल होमर के ‘इलियाड को ही रखा, यह जानने के बाद कि उसमें वह सब कुछ है, जो चाहते हो, और ऐसा कुछ नहीं है, जो उसमें इतनी गहराई और महान परिपूर्णता से परिलक्षित न हुआ हो. और इसके बाद वह अपने ‘स्कूल’ से निर्मिती की शानदार कल्पना, विचार की शक्तिशाली सुन्दरता, स्वर्गीय ब्रश का आकर्षण बाहर लाया.                       

हॉल में प्रवेश करने के बाद चिर्त्कोव ने आगंतुकों की भारी भीड़ देखी, जो पोर्ट्रेट के सामने थी. गहरी खामोशी, जो प्रशंसकों की भीड़ में कभी-कभार ही होती है, इस बार चारों ओर विद्यमान थी. उसने फ़ौरन एक प्रशंसक दिखने की कोशिश की और पोर्ट्रेट के पास आया; मगर, खुदा, उसने क्या देखा!

कलाकार का काम उसके सामने था: शुद्ध, निष्पाप, सुन्दर, किसी दुल्हन जैसा: सकुचाहट पूर्ण, दैवीय, निर्दोष और सादगीपूर्ण, किसी ‘जीनियस की तरह वह सब से ऊपर उठ गया. ऐसा प्रतीत हुआ, मानो स्वर्गीय आकृतियों ने, अपनी तरफ आकर्षित इतनी नज़रों से, चकित होकर शर्म से अपनी ख़ूबसूरत पलकें झुका ली हों. अनैच्छिक विस्मय की भावना से जानकार, अनजाने ब्रश का कमाल देख रहे थे. ऐसा लगा रहा था, कि इसमें सब कुछ सम्मिलित हो गया है: रफाएल का अध्ययन, जो उच्च कोटि की स्थितियों में परिलक्षित होता है, कोरेजो का अध्ययन, जो ब्रश की सर्वोच्च परिपूर्णता से धड़क रहा था”. मगर सबसे ज़्यादा प्रभावशाली थी प्रभाव की सामर्थ्य, जो खुद कलाकार की आत्मा में थी. पेंटिंग की अंतिम चीज़ इसमें निहित थी; हर चीज़ में नियम और आतंरिक शक्ति निहित थी. हर जगह रेखाओं की तरल गोलाई दिखाई गई थी, जो प्रकृति में होती है, जिसे केवल कलाकार- निर्माता की आंख ही देख सकती है और जो नकलची के काम में कोनों से झांकती है. ज़ाहिर था कि बाह्य दुनिया से चुनी हुई हर चीज़ को कलाकार पहले अपनी आत्मा में सुरक्षित रखता है, और फिर वहां से, आत्मा के झरने से, उसे किसी लुभावने, शानदार गीत में ढालता है. और कला से अनभिज्ञ लोगों को भी समझ में आ गया कि रचना और प्रकृति की सीधी नकल के बीच कितनी बड़ी खाई है. उस असाधारण खामोशी को प्रकट करना लगभग असंभव था, जिसने अनचाहे ही पोर्ट्रेट पर गडी हुई आंखों को घेर लिया था, - कोई सरसराहट नहीं, आवाज़ नहीं; और इस बीच पोर्ट्रेट हर मिनट ऊंचा और ऊंचा, अधिकाधिक उज्जवल और अद्भुत होता गया, हर चीज़ से अलग होता गया, और अंत में पल भर में आसमान से कलाकार पर उतर आये फल में परिवर्तित हो गया, वह पल जिसके लिए पूरा जीवन सिर्फ एक पूर्वतैयारी जैसा है. पोर्ट्रेट को घेरे हुए मेहमानों के चेहरों पर अनायास ही आंसू निकलने वाले थे. ऐसा लग रहा था की हर तरह की पसंद, सभी धृष्ट, उसके गलत विचलन एक ख़ामोश गीत में समा गये थे, जो स्वर्गीय रचना को समर्पित था. चिर्त्कोव पोर्ट्रेट के सामने अविचल खड़ा था, उसका मुंह खुला था, और आखिरकार, जब आगंतुक और जानकार धीरे-धीरे शोर मचाने लगे और रचना की गरिमा पर चर्चा करने लगे और जब आखिरकार उसके पास आकर अपने विचार प्रकट करने की विनती करने लगे, तो वह अपने आप में लौटा; उसने एक उदासीन, साधारण रुख अपनाना चाहा, घिसेपिटे कलाकारों के बारे में मामूली, ओछी राय देना चाहा, जैसे : ‘हां, बेशक, सचमुच, कलाकार से उसकी प्रतिभा नहीं छीनी जा सकती; कोई तो है; ज़ाहिर है, वह कुछ प्रकट करना चाहता था: मगर, जहां तक मुख्य बात का प्रश्न है...’ और इसके बाद यह जोड़ना चाहता था, ज़ाहिर है, ऐसे प्रशंसात्मक उद्गार, जिनसे किसी कलाकार को अच्छा नहीं लगता. यह वो करना चाहता था, मगर शब्द उसकी जुबान पर आकर रुक गए, जवाब में लगातार हिचकियाँ और आंसू बहते रहे, और वह पागल की तरह हॉल से बाहर भागा.  

पल भर के लिए अविचल और भावहीन, वह अपनी शानदार कार्यशाला के बीचोंबीच खडा रहा. उसका पूरे अस्तित्व को, पूरे जीवन को पल भर में किसी ने झकझोर कर उठा दिया हो, मानो उसकी जवानी वापस लौट आई हो, जैसे प्रतिभा के बुझे हुए शोले फिर से भड़क उठे हों. उसकी आंखों से पट्टी हट गयी. खुदा! और इतनी निर्ममता से अपनी जवानी के बेहतरीन वर्षों का गला घोंट देना; आग की चिंगारी को बुझा देना, जो, हो सकता है, सीने में जल रही थी, हो सकता है जो अब तक महानता और सौन्दर्य में विकसित हो गई होगी, हो सकता है, विस्मय और कृतज्ञता के आंसू बहा रही हो! और इस सबका निर्ममता से गला घोंट देना! ऐसा लग रहा था, मानो अचानक इस पल उसकी आत्मा में वे सभी तनाव और आवेग अचानक सजीव हो उठे, जिनसे वह कभी परिचित था। उसने ब्रश उठाया और कैनवास के पास आया. प्रयत्न का पसीना उसके चेहरे पर छलकने लगा; वह पूरा का पूरा एक इच्छा में परिवर्तित हो गया और एक ही विचार से प्रज्वलित हो गया: उसके मन में ‘फालन एंजेल को चित्रित करने की इच्छा थी. यह विचार उसकी आत्मा की स्थिति के अनुरूप था. मगर अफसोस! उसकी आकृतियाँ, मुद्राएं, समूह, विचार बलात् और असंबद्ध थे. उसका ब्रश और कल्पना एक ही आयाम में सिमट गए थे, और सीमाओं और बेड़ियों को तोड़ने की एक निर्बल कोशिश, जिन्हें उसने खुद ही अपने चारों और जकड़ रखा था, अनियमितता और गलती को प्रकट कर रहे थे. उसने क्रमबद्ध जानकारी की लम्बी, थकाने वाली सीढ़ी को, और महान भविष्य के प्रथम मूलभूत सिद्धांतों की उपेक्षा की. झुंझलाहट ने उसे घेर लिया. उसने अपनी कार्यशाला से सभी हाल ही में बनाए गए चित्रों को बाहर निकालने की आज्ञा दी – सभी निर्जीव, फैशनेबल चित्र, ‘हुस्सारों’ के, महिलाओं के और शासकीय कौंसिलरों के सभी पोर्ट्रेट. अकेला अपने कमरे में बंद हो गया, किसी को भी उसके पास न भेजने की आज्ञा दी, और पूरी तरह काम में डूब गया। किसी धैर्यवान नौजवान की भांति, किसी विद्यार्थी की भांति वह अपने काम पर बैठ गया. मगर उसके ब्रश के नीचे से प्रकट होने वाली हर चीज़ कितनी बेरहम-कृतघ्न थी! हर कदम पर उसे सबसे बुनियादी तत्वों से अज्ञानता रोक देती थी; सरल, महत्वहीन प्रक्रिया उसके पूरे आवेग को ठंडा कर रही थी और कल्पना के लिए एक अगम्य रुकावट बन गई थी. ब्रश अनचाहे ही घिसीपिटी आकृतियों की ओर मुड जाता, हाथ एक ही सीखे हुए तरीके पर मुड़ता, सिर असाधारण मोड़ लेने में असमर्थ था, और तो और, पोशाक की सिलवटें भी अनुमोदित ढंग का ही पालन कर रही थीं, और शरीर की अनजान स्थिति का पालन नहीं कर रही थीं, और उस पर लिपटना नहीं चाहती थीं. और वह महसूस कर रहा था, वह महसूस कर रहा था और खुद यह देख रहा था!

‘क्या मेरे पास सचमुच में प्रतिभा थी?’ उसने आखिरकार कहा, ‘मैं धोखे में तो नहीं था?’ और, ये शब्द कहकर, वह अपनी पहली वाली रचनाओं के निकट गया, जिन पर कभी उसने इतनी सफ़ाई से, इतने नि:स्वार्थ भाव से, वहां, लोगों से दूर, एकांत में, वसिल्येव्स्की द्वीप पर दयनीय झोंपड़ी में, लोगों से दूर, प्रचुरता और हर तरह की सनक से दूर काम किया था. अब वह उनके निकट गया और गौर से उन सब का निरीक्षण करने लगा, और उनके साथ ही उसकी स्मृति में उसकी पुरानी दयनीय ज़िंदगी की याद ताज़ा हो गयी. ‘हाँ,’ उसने हताशा से कहा, ‘मुझमें प्रतिभा थी. हर जगह, हर चीज़ पर उसके लक्षण और निशान दिखाई दे रहे हैं.’

वह रुका, और अचानक उसका पूरा शरीर थरथराने लगा: उसकी आंखें एकटक उस पर गडी हुई आंखों से मिलीं. ये वही असाधारण पोर्ट्रेट था, जिसे उसने श्शूकिन यार्ड में खरीदा था. वह पूरे समय ढंका हुआ था, दूसरे चित्रों के बीच दबा हुआ था, और पूरी तरह उसके दिमाग़ से निकल गया था. मगर अब, जैसे जानबूझकर, जब सारे फैशनेबल पोर्ट्रेट्स और चित्र हटा दिए गए थे, जिनसे कार्यशाला भर गई थी, वह उसकी युवावस्था की पुरानी रचनाओं के साथ दिखाई दे रहा था. जैसे ही उसे पोर्ट्रेट की अजीब कहानी याद आई, उसे याद आया, कि किसी तरह से वह, यह विचित्र पोर्ट्रेट उसके परिवर्तन का कारण था, कि धन के ढेर ने, जो उसे इतने चमत्कारिक ढंग से प्राप्त हुआ था, उसके भीतर सभी व्यर्थ के आवेगों को जन्म दिया था, जिन्होंने उसकी प्रतिभा को नष्ट कर दिया  - उसकी आत्मा में क्रोध बस फट पड़ने को तैयार था. उसने उसी क्षण उस पोर्टेट को बाहर ले जाने की आज्ञा दी. मगर आत्मा की परेशानी इससे दूर नहीं हुई: सारी भावनाएं और समूचा अस्तित्व भीतर तक हिल गए थे, और उसने उस भयानक पीड़ा को पहचान लिया, जो कभी कभी एक चौंकाने वाले अपवाद के रूप में प्रकृति में प्रकट होती है, जब कोई कमज़ोर प्रतिभा अपने आकार से बढकर प्रकट होने की कोशिश करती है और प्रकट नहीं हो पाती” उस पीड़ा को, जो किसी नौजवान में महान चीज़ों को जन्म देती है, मगर सपनों की सीमा से पार जाकर असफल प्यास में बदल जाती है; उस भयानक पीड़ा में जो मनुष्य को खतरनाक काम करने के लिए उकसाती है. उस पर भयानक ईर्ष्या हावी हो गई. उस पर भयानक ईर्ष्या हावी हो गयी, जब उसने प्रतिभा का  प्रदर्शित करती हुई रचना देखी. उसने दांत किटकिटाए और उसे मानो अजगर की नज़र से चबा गया. उसके मन में सर्वाधिक नारकीय इरादा पुनर्जीवित हो गया, जिसे कभी मनुष्य ने अनुभव किया था, और एक जंगली ताकत से वह उस पर अमल करने के लिए लपका. उसने कला के क्षेत्र में निर्मित सभी बेहतरीन चीज़ों को ख़रीदना शुरू कर दिया. पोर्ट्रेट को महंगी कीमत देकर खरीदता उसे सावधानी से अपने कमरे में लाता और शेर जैसे वहशीपन से उस पर टूट पड़ता, उसे फाड़ देता, तार-तार कर देता, छोटे-छोटे टुकड़े कर देता और खुशी से ठहाके लगाते हुए, उसे पैरों तले कुचलता.  

उसके द्वारा संग्रहित बेशुमार दौलत ने उसे इस शैतानी इच्छा को पूर्ण करने के सभी साधन प्रदान किये. उसने अपनी सभी सोने की गठरियों को खोल दिया और संदूकें खोल दीं. कभी भी अज्ञान के किसी राक्षस ने इतनी सुन्दर रचनाएं नष्ट नहीं की थीं, जितनी इस क्रूर प्रतिशोधक ने कर दीं. सभी नीलामियों में, जहां भी वह दिखाई देता, हर व्यक्ति पहले ही बदहवासी से कलाकृति को लेने के लिए बेताब हो जाता. ऐसा लगता था, मानो क्रोधित आसमान ने जानबूझकर इस भयानक संकट को उसका पूरा सामंजस्य छीनने की इच्छा से दुनिया में भेज दिया है. इस भयानक जूनून ने उसके चेहरे पर एक खतरनाक रंग उंडेल दिया: उसके चेहरे पर हमेशा चिडचिडाहट रहती थी. दुनिया के खिलाफ़ निन्दा और उसे नकारना अपने आप ही उसकी आकृति में प्रकट होने लगी. ऐसा लगता था, कि उसके भीतर वह भयानक राक्षस प्रकट हो गया है, जिसका स्वाभाविक वर्णन पूश्किन ने किया था. ज़हरीले शब्दों और चिरंतन निंदा के अलावा उसके मुंह से कुछ और नहीं निकलता. किसी हिंस्त्र पक्षी की तरह वह सड़क पर प्रकट होता, और उसके सभी परिचित भी, दूर से ही उसे देखकर ये कहते हुए वापस मुड़ने की और ऐसी मुलाक़ात से बचने की कोशिश करते, कि उससे मुलाक़ात पूरे दिन में ज़हर घोलने के लिए पर्याप्त है.

सौभाग्य से ऐसा तनावपूर्ण और हिंसक जीवन लम्बे समय तक नहीं रह सकता था: उसके जूनून का आयाम  उसकी कमजोर ताकतों के लिए बहुत अधिक और भयानक था. वहशीपन और पागलपन के दौरे अधिकाधिक पड़ने लगे, और आखिरकार ये सब सर्वाधिक खतरनाक बीमारी में परिवर्तित हो गया. तीव्र बुखार, और अत्यंत तेज़ी से फैलते तपेदिक ने उसे इतने भयानक रूप से जकड़ लिया कि तीन ही दिनों में उसकी सिर्फ परछाई ही रह गयी. इसके साथ ही निराशाजनक पागलपन के लक्षण भी जुड़ गए. कभी कभी कुछ लोग मिलकर भी उसे पकड़ नहीं पाते थे. वह असाधारण पोर्ट्रेट की कब की भूली हुई, सजीव आंखों की कल्पना करने लगा, और तब उसकी वहशियत भयानक हो जाती. उसके पलंग को घेर कर खड़े सभी लोग उसे भयानक पोर्ट्रेट्स की तरह प्रतीत होते. उसकी आंखों के सामने वह दुगुना हो जाता, चौगुना हो जाता; सभी दीवारों पर पोर्ट्रेट्स टंगे हुए प्रतीत होते, जो अपनी निश्चल सजीव आंखों से उसे घूरतीं. डरावने पोर्ट्रेट्स छत से देखते, फर्श से देखते, कमरा चौड़ा होता गया और अंतहीन होता गया ताकि इन स्थिर आँखों को अधिकाधिक स्थान दे सके. डॉक्टर, जिसने उसके इलाज की ज़िम्मेदारी ली थी, और जिसने उसके अजीब किस्से के बारे में कुछ-कुछ सुन रखा था, उसके जीवन की घटनाओं और उसे सपनों में दिखाई देते भूतों के बीच रहस्य को ढूँढने के लिए सभी तरह के प्रयत्न कर रहा था, मगर वह  कुछ भी नहीं कर पाया. बीमार कुछ नहीं समझ रहा था और न ही महसूस कर रहा था, सिवाय अपनी पीड़ा के, और सिर्फ भयानक रूप से चीखता था, और असंबद्ध बातें करता था. आखिरकार एक अंतिम, बेआवाज़ पीड़ा से उसके जीवन की डोर टूट गई. उसकी लाश भयानक थी. उसकी विशाल संपत्ति से कुछ भी नहीं मिला; मगर उच्च स्तर की कलात्मक कृतियों के कटे हुए टुकड़े देखकर, जिनका मूल्य लाखों से अधिक था, उनके भयानक उपयोग के बारे में समझ गए.

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